प्रदूषण

दिवाली से पहले जानें यह रहस्य, हमारी जिंदगी में कैसे आए पटाखे?

चीन में बारूद का आविष्कार और 15वीं शताब्दी में भारत में इसके आने के बाद पटाखों का चलन शुरू हुआ

Bhagirath



हर साल दिवाली पर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ जाती है कि पटाखे फोड़ें या नहीं। एक वर्ग पटाखों को संस्कृति का हिस्सा बताकर इसका हिमायती नजर आता है जबकि दूसरा धड़ा इसे पर्यावरण के अनुकूल न पाकर इसके विरोध में खड़ा दिखता है। ऐसे में यह जानना दिलचस्प हो जाता है कि क्या पटाखे वाकई हमारी संस्कृति का हिस्सा है? आखिर हमारे तीज-त्योहारों पर पटाखों का प्रवेश कब हुआ? इन प्रश्नों का उत्तर इतिहासकार पीके गौड़ द्वारा लिखी गई “द हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया विटवीन एडी 1400 एंड 1900” पुस्तक से मिलता है। दरअसल, आठवीं-नौंवी शताब्दी में चीन में बारूद का आविष्कार होने के बाद पटाखों का निर्माण शुरू हुआ। 15वीं शताब्दी में मंगोल बारूद भारत लेकर आए और इसी के बाद पटाखों का चलन शुरू हुआ।

किताब के अनुसार, “सुल्तान शाहरुख के राजदूत अब्दुल रज्जाक अप्रैल 1443 से 5 दिसंबर 1443 तक देवराज द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर में रुके थे। उन्होंने महानवमी पर्व पर आतिशबाजी देखी थी।” विजयनगर में पटाखों को देखकर स्पष्ट था कि या तो इनका उत्पादन विजयनगर में किया जा रहा है अथवा इन्हें बाहर से आयात किया जा रहा है। उस समय भी पटाखे मनोरंजन के लिए चलाए जाते थे। कश्मीर में 15वीं शताब्दी में जैनुलबदीन के शासनकाल (1421-1472 ईसवीं) में पटाखों का चलन शुरू हो गया था। मध्य काल में शादियों में पटाखों का चलन था। किताब इतिहासकार बार्बोसा के हवाले से कहती है कि 1518 ईसवीं में गुजरात में एक ब्राह्मण की शादी में रॉकेट के जरिए आतिशबाजी हुई थी।

उस समय भारत में बड़े पैमाने पर पटाखों का उत्पादन होने लगा था। तब शादियों और धार्मिक उत्सवों के मौके पर खूब पटाखे फोड़े जाते थे। संत एकनाथ की मराठी कविताओं में भी शादी समारोहों में पटाखों का जिक्र है। संत रामदास (1608-1682 ईसवीं) ने अपनी रचना रामदास समग्र ग्रंथ में पटाखों का उल्लेख किया है। 18वीं शताब्दी में राजपूतों के बीच आतिशबाजी काफी लोकप्रिय हो गई थी और राजसी समारोहों में आतिशबाजी शान का प्रतीक बन गई। महादजी सिंधिया पेशवा सवाई माधवराव को कोटा की दिवाली का वर्णन करते हुए बताते हैं “कोटा में दिवाली चार दिन तक मनाई जाती है। इस दौरान लाखों दीए जलते हैं। कोटा के राजा चार दिन तक अपनी राजधानी के बाहर आतिशबाजी करते हैं। इसे दारूची लंका कहा जाता है।” इसके बाद पेशवा महादजी से मनोरंजन के लिए ऐसी ही व्यवस्था करने को कहते हैं।

1790 ईसवीं में एक ब्रिटिश कलाकार ने लखनऊ के नवाब के सामने अपनी आतिशबाजी कला का इतना शानदार प्रदर्शन किया कि लोग वाहवाही करते रहे। 1820 ईसवीं में बड़ौदा के सयाजी राव द्वितीय की दूसरी शादी में जमकर आतिशबाजी होती है और इस पर करीब 3,000 रुपए का खर्च आता है।

20वीं शताब्दी में पटाखों का कारोबार व्यवस्थित रूप में आ गया। काफी हद तक इसका श्रेय जाता है तमिलनाडु के शिवकाशी में रहने वाले दो भाइयों पी अय्या नाडर और शणमुगा नाडर को। दोनों भाइयों ने 1923 में पश्चिम बंगाल में माचिस बनाने की कला सीखी और आठ महीने बाद शिवकासी लौटकर उसे व्यवस्थित रूप से शुरू किया। बाद में पटाखों के कारोबार में वे उतर गए। 1940 में भारतीय विस्फोटक नियम बने और लाइसेंस लेकर पटाखों का निर्माण शुरू हुआ। इसके बाद देखते ही देखते शिवकाशी पटाखों का केंद्र बन गया।