प्रदूषण

भारत के कई राज्यों में फसल अवशेष जलाने से पीएम2.5 में भारी इजाफा, सघन माप नेटवर्क से चला पता

Dayanidhi

हर बार मॉनसून के मौसम के बाद, सर्दियों के आगमन के दौरान देश के कुछ हिस्सों में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में धान की फसल के अवशेष जलाने से इन हिस्सों में पीएम2.5 की मात्रा काफी बढ़ जाती है, हालांकि किस समय पर इसकी मात्रा कितनी होती है, इसके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं है।  

लेकिन अब, रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमैनिटी एंड नेचर (आरआईएचएन) की अगुवाई वाली टीम ने 29 किफायती और विश्वसनीय उपकरणों का उपयोग करके भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में वायु प्रदूषण का पहला नापने योग्य अध्ययन किया है। अध्ययन में क्षेत्रीय स्तर पर फसल अवशेष जलाने (सीआरबी) और वायु प्रदूषण का अवलोकन किया गया है।

पीएम 2.5 के संपर्क में आने से दुनिया भर के शहरों में स्वास्थ्य संबंधी खतरे पैदा होते हैं। हालांकि पीएम 2.5 के प्रमुख स्रोत औद्योगिक हैं, कुछ कृषि पद्धतियां भी कुछ मौसमों के दौरान सूक्ष्म कणों के उत्सर्जन और निर्माण के लिए जिम्मेवार हैं

क्षेत्रीय स्तर पर फसल अवशेष जलाना (सीआरबी) पंजाब, हरियाणा और सिंधु-गंगा के मैदान के हिस्से में एक आम प्रथा है, जो मॉनसून के बाद की अवधि यानी सितंबर से नवंबर में धान की फसल के तुरंत बाद होती है।

पिछले दो दशकों में सीआरबी गतिविधियां आंशिक रूप से 1990 के दशक में मशीनीकृत कृषि में वृद्धि और उपमृदा जल संरक्षण अधिनियम (2009) के बाद पंजाब और हरियाणा में धान की फसल की रोपाई में देरी के कारण बढ़ी हैं।

साल 2010 से, पंजाब और हरियाणा में सीआरबी का दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में प्रदूषण सुर्खियों में रहा है। फिर भी, प्रदूषण करने वाले इलाकों में पीएम2.5 की कोई माप नहीं की गई है।

इसे सुधारने के लिए, शोधकर्ताओं के एक टीम ने गैस सेंसर (सीयूपीआई-जीएस) के साथ 29 कॉम्पैक्ट और उपयोगी पीएम2.5 उपकरणों का उपयोग करके पहली सितंबर से 30 नवंबर, 2022 तक पंजाब, हरियाणा और एनसीआर को शामिल करते हुए एक क्षेत्र आधारित गहन अभियान चलाया।

लगातार निगरानी से पता चला है कि इलाके में पीएम 2.5 छह से 10 अक्टूबर के बीच धीरे-धीरे 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम और पांच से नौ नवंबर के बीच 500 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक बढ़ गया। इसके बाद 20 से 30 नवंबर के बीच यह घटकर लगभग 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रह गया।

पीएम2.5 के लिए भारतीय राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक वार्षिक औसत के लिए 40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और 24 घंटे के औसत के लिए 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर निर्धारित किए गए हैं। इस अध्ययन में माप से पता चला कि पंजाब से लेकर एनसीआर तक पीएम2.5 का मान अक्टूबर के मध्य से नवंबर के अंत तक 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक रहा और कई स्थानों पर नवंबर के पहले दो हफ्तों में 200 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक रहा।

शोधकर्ताओं ने दो से तीन और नौ से 11 नवंबर, 2022 को पंजाब से हरियाणा के रास्ते एनसीआर तक 500 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक पीम 2.5 के दो अलग-अलग सीआरबी का पता लगा।

ये उत्तर-पश्चिमी मॉनसून से जुड़े थे। दक्षिण-पूर्व के निचले क्षेत्रों में देखी गई अत्यधिक मात्रा ने दूसरे गठन यानी रासायनिक प्रतिक्रियाओं के कारण वातावरण में गैस से कण रूपांतरण की उपस्थिति का पता चला।

अध्ययन के हवाले से प्रोफेसर प्रबीर कहते हैं कि, प्रभावी जन जागरूकता के माध्यम से वायु प्रदूषकों को कम करना संभव है। वायु प्रदूषकों से प्रभावित व्यक्ति अक्सर उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां ये प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं, इसलिए उनकी जागरूकता लंबे समय तक रहने वाले ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक प्रभावों के विपरीत सीधा प्रभाव डाल सकती है।

अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि, वे सीयूपीआई-जी के विकास की बदौलत पंजाब से एनसीआर तक फैले एक विस्तृत क्षेत्र में वायु प्रदूषकों के व्यवहार के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठा करने में कामयाब रहे। इस आंकड़े को अब अन्य एशियाई इलाकों के कई क्षेत्रों में वायु प्रदूषण को मापने के लिए लागू किया जा रहा है।

अध्ययन के मुताबिक, उपयोग किए गए सेंसर पैनासोनिक कॉर्पोरेशन और नागोया विश्वविद्यालय के टीम द्वारा विकसित किए गए थे। अध्ययनकर्ता प्रोफेसर मनप्रीत सिंह भट्टी कहते हैं कि, ग्रीन और स्वच्छ भविष्य के निर्माण के हमारे प्रयासों को किफायती पीएम2.5 निगरानी की सटीकता द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए, जिससे स्वच्छ हवा और ग्रामीण और शहरी दोनों जगहों पर रहने वालों के लिए अहम होगा।

वायु प्रदूषण के कई अन्य पर्यावरणीय प्रभाव भी हैं। सीआरबी से उत्सर्जित प्रदूषकों में महत्वपूर्ण मात्रा में प्रकाश-अवशोषित एरोसोल होते हैं, जो हमारे वायुमंडल और बादल के गुणों के थर्मोडायनामिक्स को बदलने में सक्षम होते हैं। टोहोकू विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ. प्रदीप खत्री कहते हैं, सघन माप नेटवर्क से प्राप्त उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़े और संख्यात्मक मॉडलों के संयोजन से इन मुद्दों को हल किया जा सकता है।

प्रोफेसर सचिको हयाशिदा ने कहा, हमें उम्मीद है कि भविष्य में जापान-भारत सहयोग से इस क्षेत्र में गंभीर वायु प्रदूषण को कम करने में मदद करेगा। आकाश परियोजना भारतीय शोधकर्ताओं के साथ उन तरीकों पर भी काम कर रही है जिसमें बिना पुआल जलाए उसके प्रबंधन में सुधार किया जा सकता है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्टस नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।