प्रदूषण

कैसे होगी साफ हवा, जब जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं के लिए जारी की जा रही 21 फीसदी अधिक फंडिंग

वैश्विक स्तर पर विकास के नाम पर दी जा रही सहायता धनराशि का केवल एक फीसदी हिस्सा ही वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए खर्च किया जा रहा है

Lalit Maurya

आज भी वैश्विक स्तर पर साफ हवा के स्थान पर जीवाश्म ईंधन को कहीं अधिक तवज्जो दी जा रही है। वायु गुणवत्ता की तुलना में जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को अधिक सहायता धनराशि का मिलना इसका जीता जागता सबूत है। गौरतलब है कि 2019 और 2020 के दौरान वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों की तुलना में जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को करीब 21 फीसदी अधिक सहायता राशि दी गई थी।

जीवाश्म ईंधन एक ऐसी समस्या है जो न केवल वायु प्रदूषण बल्कि साथ ही जलवायु परिवर्तन के खतरे को और बढ़ा रही है। इसके बावजूद इसको दी जा रही मदद समस्या को कम करने की जगह और बढ़ा रही है, जिसपर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। यह जानकारी हाल ही में अन्तराष्ट्रीय संगठन क्लीन एयर फण्ड द्वारा जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर क्वालिटी फंडिंग 2021’ में सामने आई है।

इसमें कोई शक नहीं की वायु प्रदूषण वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या बन चुका है, जो मलेरिया, एचआईवी/एड्स और टीबी से कहीं ज्यादा लोगों की जानें ले रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वायु प्रदूषण हर साल औसतन 70 लाख लोगों की जान ले रहा है। आज भी दुनिया की करीब 91 फीसदी आबादी दूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है, जो उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है। इसके बावजूद वैश्विक स्तर पर विकास के नाम पर दी जा रही सहायता धनराशि का केवल एक फीसदी हिस्सा ही वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए खर्च किया जा रहा है।

उस फंडिंग का ज्यादातर हिस्सा तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं को कर्ज के रूप में दिया जा रहा है जिसमें चीन जैसे देश प्रमुख हैं। 2015 से 2020 के बीच वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए चीन को करीब 18,487 करोड़ रुपए की फंडिंग की गई थी, जोकि कुल फंडिंग का करीब 45 फीसदी है। 

भारत को भी वायु प्रदूषण के चलते उठाना पड़ा था 7 लाख करोड़ रुपए का नुकसान

यदि भारत  से जुड़े आंकड़ों को देखें तो 2019 में भारतीय अर्थव्यवस्था को करीब 7 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा था, जोकि उसके कुल जीडीपी का करीब 3 फीसदी है। यही नहीं वायु प्रदूषण यहां हर साल होने वाली 10 लाख से ज्यादा मौतों के लिए भी जिम्मेवार है। इसके बावजूद वो वायु गुणवत्ता के नाम पर फंडिंग पाने वाले देशों की सूची में आठवें स्थान पर है। जिसे 2015 से 2020 के बीच 1,355 करोड़ रुपए की फंडिंग की गई थी।    

चिंता की बात यह है कि इन देशों में एक बेहतर जीवन के लिए जितनी फंडिंग की जरुरत है वो तो बड़ी दूर की बात हैं, उन्हें उतना फण्ड भी नहीं मिल रहा है जिससे वहां लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकें। देखा जाए तो वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए दी जा रही ज्यादातर फंडिंग उन देशों को की जाती है, जो इस समस्या से सबसे ज्यादा त्रस्त हैं, हालांकि इसके बावजूद अभी भी बहुत से ऐसे क्षेत्र ऐसे हैं, जिनकी अनदेखी कर दी जाती है। 

उदाहरण के लिए दक्षिण अमेरिका को इस फंडिंग का केवल 10 फीसदी और अफ्रीका को 5 फीसदी हिस्सा मिल रहा है, जबकि वहां कई देश वायु प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित हैं। अनुमान है कि यहां वायु प्रदूषण के चलते हर साल 5 लाख से ज्यादा लोगों की जान जा रही है। ऐसे में यह जरुरी है कि इन क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए। 

उदाहरण के लिए मंगोलिया को जहां 2019 में वायु प्रदूषण के चलते करीब 2,300 लोगों की जान गई थी जबकि उसे वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए 2015 से 2020 के बीच करीब 3,222.3 करोड़ रुपए की फंडिंग की गई थी, जबकि उसके विपरीत नाइजीरिया को 2015 से 2020 के बीच वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए करीब 1.8 करोड़ रुपए दिए गए थे, जबकि वहां वायु प्रदूषण के चलते 2019 में करीब 70 हजार लोगों की जान गई थी। 

वहीं यदि सबकी भलाई के लिए दान स्वरुप दी जा रही धनराशि को देखें तो 2015 के बाद से उसमें वायु गुणवत्ता की हिस्सेदारी भी बढ़ी है। हालांकि इसके बावजूद अभी भी वो उसके 0.1 फीसदी हिस्से से कम है। अनुमान है कि इस दर पर यह धनराशि अगले आठ वर्षों में भी 737.4 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष से अधिक नहीं होगी।

इसमें कोई शक नहीं की जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में भी वायु प्रदूषण को रोकने के लिए की जा रही कार्रवाई काफी मायने रखती है। हालांकि आईपीसीसी द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि भले ही हम आने वाले वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को काफी कम कर दें, फिर भी वायु प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों से कहीं अधिक होगा।

ऐसे में यह जरुरी है कि जो देश वायु प्रदूषण के खिलाफ खुद अपनी मदद नहीं कर सकते हैं उनकी ज्यादा से ज्यादा मदद की जाए। अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया के कई देशों में शहरीकरण तेजी से अपने पैर पसार रहा है, वहां विकास के नाम पर जीवाश्म ईंधन को मदद देने की जगह साफ-सुथरी ऊर्जा और तकनीकों को बढ़ावा देने की जरुरत है। जो न केवल वहां वायु गुणवत्ता में सुधार करेंगी, लोगों का जीवन बचाएंगी और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में भी मददगार होंगी।