प्रदूषण

जानिए, कहां हुई थी आर्सेनिक की वजह से पहली मौत

चिली के अरीका शहर में 7,000 साल पहले चिंचोरो समुदाय को आर्सेनिक की मार झेलनी पड़ी थी, वहां सबसे पहले एक बच्चे की मौत आर्सेनिक की वजह से हुई थी

Bhagirath

आर्सेनिक प्रदूषण की बात आजकल खूब होती है। भारत में करीब 24 करोड़ लोग यानी करीब 19 प्रतिशत आबादी आर्सेनिक से प्रदूषित पानी पीने को मजबूर है। यह आर्सेनिक आज नहीं बल्कि हजारों साल से लोगों को प्रभावित कर रहा है। 1983 में हुई खुदाई से पता चला कि आर्सेनिक ने हजारों साल पहले लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया था। खुदाई से मिले प्रमाण बताते हैं कि 7,000 साल पहले चिली के आधुनिक बंदरगाह शहर अरीका से 100 किलोमीटर दूर एक बच्चे की मौत हुई थी। उस बच्चे के माता-पिता ने उसका अंतिम संस्कार नहीं किया। उन्होंने बच्चे का सिर और शरीर के अन्य हिस्से अलग कर पशु की खाल में छुपा दिया, सिर पर मिट्टी की एक आकृति बनाई और उसे बालों से सजा दिया। उस साल हुई खुदाई में अरीका के पास स्थित कैमेरोन में 100 से अधिक बच्चों की मम्मी भी मिलीं। बाद में वयस्कों के भी शव मिले। ये शव चिली के चिंचोरा समुदाय के लोगों के थे।

चिंचोरो समुदाय का अध्ययन करने वाले पुरातत्ववेत्ता बरनार्डो अरियाजा मानते हैं कि यह समुदाय जहरीले आर्सेनिक से पीड़ित था। उन्होंने उत्तरी चिली के 10 स्थानों से चिंचोरो समुदाय के बालों के 46 सैंपल एकत्रित किए हैं। कैमेरोन नदी घाटी से एकत्रित किए गए 10 सैंपलों में उन्होंने आर्सेनिक की मात्रा औसतन 37.8 माइक्रोग्राम प्रति ग्राम पाई। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित आर्सेनिक के मानक (1-10 माइक्रोग्राम) से अधिक था। नवजात बच्चों की ममी से लिए गए नमूनों में यह मात्रा 219 माइक्रोग्राम प्रति ग्राम थी।

इतिहासकारों का एक मत यह है कि हो सकता है इस समुदाय के लोग आर्सेनिक से प्रदूषित पानी से सिर धोते हों लेकिन रोगविज्ञानी मानते हैं कि सिर धोने से आर्सेनिक का इतना उच्च स्तर मिलना असंभव है। अरियाजा के अनुसार, चिंचोरो मछली पकड़ने वाला समाज था। वे नदी के मुहाने से पौधे एकत्रित करते थे और समुद्री व जंगली जीवों का शिकार करते थे। 1960 के दशक में कैमेरोन नदी घाटी से लिए गए पानी के सैंपलों के परीक्षण से पता चला कि इसके एक लीटर पानी में 860 माइक्रोग्राम आर्सेनिक था। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक से 86 गुणा अधिक है। अरियाजा मानते हैं कि ममी पर हुए परीक्षण इसी आर्सेनिक की पुष्टि करते हैं।

उनका मानना है कि चिंचोरा समाज कानों की क्रोनिक खुजली और दुर्बलता का भी शिकार था। यह शायद प्रशांत महासागर के ठंडे पानी में लगातार मछली पकड़ने की वजह से था। वे अधपके समुद्री शेर के मांस और मछलियों के सेवन से संक्रमण से भी जूझ रहे थे। इतिहासकारों का मत है कि चिंचोरो समुदाय के लोग बच्चों से बहुत प्यार करते थे और उनकी मौतों से उन्हें गहरा धक्का लगा था। उन्हें डर था कि कहीं उनका समुदाय ही विलुप्त न हो जाए। यही वजह है कि वे स्नेहवश अपने बच्चों के शव संरक्षित कर अपने पास ही रख लेते थे। वे मम्मीकरण से पहले चीरा लगाकर शरीर के अंदरूनी अंग निकाल लेते थे और उसे मिट्टी, खास और पंखों से भर देते थे। माना जाता है कि बाद में मिस्र जैसी सभ्यताओं में ममीकरण की यह कला विकसित हुई।

(सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा प्रकाशित एनवायरमेंट हिस्ट्री रीडर पुस्तक से साभार। अनुवाद भागीरथ ने किया है)