वैज्ञानिकों को किलर व्हेल मछलियों में उच्च मात्रा में हानिकारक केमिकल्स मिले हैं। वैज्ञानिकों को नार्वे के पास इन किलर व्हेल्स के टिश्यूस में नई तरह के ब्रॉमिनेटेड फ़्लेम रिटार्डेंट्स मिले हैं, जोकि उनसे उनके बच्चों के शरीर में भी जा रहे हैं। यह जानकारी हाल ही में जर्नल एनवायर्नमेंटल टॉक्सिकोलॉजी एंड केमिस्ट्री में प्रकाशित शोध में सामने आई है।
किलर व्हेल या ओर्का समुद्री डॉल्फिन परिवार से सम्बन्ध रखती हैं, जिसमें यह सबसे बड़ी होती हैं। यह काफी समझदार जीव होती हैं, जो अन्य जीवों का शिकार करती हैं। अपने नाम के विपरीत यह कातिलाना स्वभाव की नही होती है।
शोधकर्ताओं को इन किलर व्हेल्स के उत्तकों में मानव निर्मित केमिकल्स के भी सबूत मिले हैं, जिन्हें परफ्लुओरोअल्काइल सब्सटैंस (पीएफएएस) कहा जाता है। इन विषैले केमिकल्स के बारे में माना जाता है कि यह इंसानी स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
हालांकि समुद्र के स्तनधारी जीवों के स्वास्थ्य को यह पीएफएएस केमिकल किस हद तक नुकसान पहुंचा सकते हैं इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना जरुरी है कि यह केमिकल जंगली जीवों में प्रजनन क्षमता और उनके हार्मोन को प्रभावित कर सकते हैं।
आठ में से सात किलर व्हेल्स के ब्लब्बर में मिले थे उच्च मात्रा में पीसीबी के अंश
इसके साथ ही इन मछलियों के शरीर में पॉलीक्लोराइनेटेड बाइफिनाइल (पीसीबी) भी पाए गए हैं, जिन्हें काफी पहले प्रतिबंधित कर दिया गया है। अध्ययन में आठ किलर व्हेल्स में से सात मछलियों की चर्बी (ब्लब्बर) में उच्च मात्रा में पीसीबी के अंश मिले हैं। इन समुद्री स्तनधारियों के शरीर में यह केमिकल विषाक्त प्रभावों की प्रस्तावित सीमा से ज्यादा थे।
इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता ने बताया कि इन पहली पंक्ति के शिकारी जीवों के शरीर में मिले प्रदूषकों का स्तर एक गंभीर चिंता का विषय है। यह न केवल इन पारिस्थितिकी तंत्र पर बढ़ते केमिकल के असर को दिखाता है, साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि हमारे वातावरण में इन केमिकल्स की मात्रा बढ़ती जा रही है जो वातावरण से जीवों के शरीर में पहुंच रहें हैं और इन प्रवासी जीवों से दूसरे जीवों में जा रहे हैं।
गौरतलब है कि इन हानिकारक केमिकल्स के प्रयोग को बंद करने के लिए स्टॉकहोम कन्वेंशन और मरकरी के प्रयोग को सीमित करने के लिए जापान के मीनामता में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ था जिसे मीनामता कन्वेंशन के नाम से जाना जाता है। इसके बावजूद दुनिया के कई देशों में अभी भी इन हानिकारक केमिकल का प्रयोग हो रहा है, जो स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है। जिसको नियंत्रित और नियमित करना जरुरी है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ताओं का भी मानना है कि आर्कटिक में इन हानिकारक केमिकल्स की नियमित निगरानी जरुरी है, जिससे पर्यावरण पर पड़ने वाले इनके प्रभावों को सीमित किया जा सके।