यह पर्यावरणीय संकट का समय है। इस संकट ने सभ्यता को भयभीत कर दिया है. जर्मन चिन्तक उलरिच बेख के लिए यह सभ्यता “डरे हुए लोगों की सभ्यता” है. और इसका सबसे बड़ा प्रमाण ‘इन्सुरेंस-इंडस्ट्री’ का बढ़ता वैश्विक कारोबार है, जो हमारे भय पर टिका है। संकट और उससे उपजा भय बाजार के लिए एक अवसर की तरह है। इसमें वह अपने लिए संभावनाओं की तलाश कर लेता है। इसलिए अब उत्पाद के साथ-साथ सुरक्षा और सरोकार भी बेचे जा रहे हैं। बीमा के अलावा अन्य तरीकों से भी इसने अपना कारोबार बढ़ाया है।
‘ग्रीनवाशिंग’ उसमें से एक अहम् तरीका है। बाजार ने समझ लिया कि लोकसत्ता पर्यावरण के प्रति जागरूक हो रही है और अब यह समझ चुकी है कि पर्यावरण के क्षरण में इन बाजारू शक्तियों की ही सबसे बड़ी भूमिका है। तो फिर मल्टी नेशनल कम्पनियों ने अपने उत्पादों को खपाने के लिए पर्यावरण से जुड़े नारों, दावों, प्रतीकों आदि का सहारा लिया। इसने अपने उत्पादों को पर्यावरणीय सरोकारों से जोड़कर बेचना शुरू कर दिया। इसे ही ‘ग्रीनवाशिंग’ कहा गया।
हिंदी में इसे आप ‘हरित-धुलाई’ कह सकते हैं। इस शब्द का प्रथम प्रयोग वर्ष 1986 में न्यूयॉर्क के पर्यावरणविद वेस्टरवेल्ड ने किया था। उन्होंने होटल इंडस्ट्री के सन्दर्भ में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे होटल मालिक होटल के कमरों में ‘सेव द एनवायरनमेंट’ लिखकर ‘रिसाइकिल’ के नाम पर तौलिये और चादर को दोबारा प्रयोग करने को बाध्य करते थे। लेकिन ऐसा करने के पीछे उनका सरोकार पर्यावरण को बचाना नहीं था, बल्कि प्रबंधन पर अपने खर्च को कम कर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना था। हालांकि, साठ के दशक में जब पर्यावरणीय आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था तो इस तरह का एक और शब्द प्रचलन में आया था- ‘इको-पोर्नोग्राफी’।
यह शब्द पश्चिम के एक बड़े फर्म के विज्ञापन कार्यकारिणी के सदस्य जेरी मंडर के द्वारा दिया गया था। जब कल-कारखाने से निकलने वाले कचरा और हानिकारक रसायनों का जोरदार विरोध हो रहा था, तो इस स्थिति में कम्पनियों के लिए अपनी पर्यावरणीय छवि को सुधारना अनिवार्य हो गया था। और इसके लिए विज्ञापनों का सहारा लिया जाने लगा। जिसे ही ‘इको-पोर्नोग्राफी’ कहा गया।
हम विज्ञापन की दुनिया में जी रहे हैं। विज्ञापन ही हमारी जरूरतों को रच-गढ़ रहा है और यह इस बात से समझा जा सकता है कि दैनिक रूप से हमारा विज्ञापनों से कितना साक्षात्कार होता है। दस वर्ष पहले के ही आंकड़ों को ले तो प्रतिदिन कम से कम 1500 बाजारू उत्पादों से जुड़े विज्ञापनों से हमारा प्रतिदिन साक्षात्कार होता था। निश्चय ही अब यह आंकड़ा उससे कई गुणा अधिक होगा।
यह स्थिति भयानक है, क्योंकि यह बाजारवाद के विजय की उद्घोषणा है और ये सभी विज्ञापन हमें कम्पनियों के उत्पादों को खरीदने का तर्क प्रस्तुत करते हैं। अब चूंकि दुनिया के लिए पर्यावरण का मुद्दा लगातार जरुरी होता जा रहा है, तो कम्पनियों ने पर्यावरण के सहारे ही पर्यावरणविरोधी उत्पादों को बाजार में खपा देने में निपुणता प्राप्त कर ली है। जैसे रसोई से जुड़े उत्पाद ‘रेफ्रिजरेटर’ को बेचने के लिए एक पञ्च लाइन है- “बिकॉज वी टुक अ कुकिंग लेसन फ्रॉम मदर नेचर”, जबकि यह एक बड़ा तथ्य है कि ‘रेफ्रिजरेटर’ से निकलने वाली गैसें ओजोन परत के नुकसान के सबसे बड़े कारणों में से एक है।
अगर कम्पनी का प्रकृति से सरोकार होता तो कम्पनी को इस बात पर विज्ञापन करना चाहिए था कि इसने अन्य कम्पनियों की तुलना में किस तरह इसके उत्पादन में प्रकृति का सबसे कम नुकसान किया, या फिर इसका प्रयोग किस तरह सतत विकास के लिए लाभदायक है, लेकिन इसपर इनकी चुप्पी इनके पर्यावरणविरोधी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसी तरह ‘कॉस्मेटिक्स’ के विज्ञापन में इसे “प्रकृति के गुणों से युक्त”, “गो बैक टू नेचर”, जैसे पञ्च लाइन लिखकर रासायनिक क्रीम, साबुन आदि का कारोबार किया जाता है। आजकल एसयूवी कारों का प्रचलन है. इसके विज्ञापन के द्वारा ऐसे दिखाया जाता है कि यह प्रकृति प्रेमी लोगों के लिए सबसे उपयुक्त है।
आपको जंगल की, पहाड़ों की सवारी करनी है तो इसे ही खरीदिये. और विज्ञापन में एक छुपा हुआ पक्ष यह भी है कि इन कारों से प्रकृति पर विजय कैसे पाई जाए। बेशक, इन सभी उत्पादों के उत्पादन में प्रकृति की पीड़ा गंभीर है। अधिकांश कम्पनियां किसी न किसी रूप में पर्यावरणीय हितों के सन्दर्भ में खतरनाक से खतरनाक उत्पादों को प्रकृति से ही जोड़कर अपना कारोबार कर रही है। इस तरह के विज्ञापन तंत्र से एक फर्जी किस्म की पर्यावरणीय चेतना तो निर्मित होती ही है, साथ ही यह पर्यावरण से जुड़े आन्दोलनों और विमर्शो को भी लगातार भटकाती है।
संभवतः इससे ‘डीप-इकोलॉजिकल’ के बदले ‘सैलो-इकोलॉजिकल’ विचारों में ही समस्या का समाधान ढूँढने का असफल प्रयास किया जाता है और इस तरह अंतिम रूप से बाजार अपने शर्तों पर पर्यावरणीय विमर्शों को संचालित करता है। परिणामतः पर्यावरण की समस्या जस की तस बनी रहती है, और विमर्श जारी रहता है।
पर्यावरण से जुड़े चिंतकों ने कम्पनियों द्वारा ऐसे कृत्य को ‘पाप’ की संज्ञा दी है और इसे ‘सेवन-सिन’ या ‘सात-पाप’ के नाम से वर्णित किया है, जो इस प्रकार हैं-
पहला कि इसमें मुनाफा का स्वार्थ गोपनीय रहता है। दूसरा; इसका प्रमाण आसानी से नहीं दिया जा सकता। तीसरा; यह अस्पष्ट होता है, जैसे “ऑल नेचुरल” का कोई सीधा अर्थ नहीं निकलता और यह अलग-अलग व्याख्या का अवसर देता है। चौथा; अनावश्यक विज्ञापन, जैसे, ये लिखते हैं- “यह उत्पाद सीएफसी फ्री है”, जबकि यह पहले से ही कई देशों में बैन होता है। जो चीजें पहले से बैन है उसके नहीं होने का दावा ये ऐसे करते हैं जैसे अन्य कम्पनियों के उत्पादों में ऐसे पदार्थ अनिवार्य रूप से मौजूद हों।
पांचवा; यह एक तरफ तो उत्पाद के मुख्य चरित्र से अपने उत्पाद को अलग बताती है और दूसरी तरफ यह एक अन्य खतरे को पैदा भी करती हैं, जैसे, ‘आर्गेनिक सिगरेट’। छठा; यह गलत तरीके से गलत प्रमाणपत्रों का सहारा लेती है जैसे, ‘एनर्जी स्टार सर्टिफाइड’। और सातवां; यह उत्पादों पर अप्रमाणिक लेबल का प्रयोग करती है, जो उपभोक्ता को भ्रमित करते हैं और वे पर्यावरण के अनुकूल मानकर इसे खरीदते हैं।
आधुनिक विकास और कुछ नहीं, बल्कि उपभोक्ता के उत्पादन की कहानी है। और ‘ग्रीनवाशिंग’ उस कहानी की एक अहम् कड़ी. दुनिया के कई देशों में इसपर थोड़े-बहुत कानून तो बने हैं, लेकिन इन विज्ञापनों में इतनी अस्पष्टता होती है कि आमतौर पर ये क़ानूनी पकड़ में नहीं आ पाते. आज ऐसे ही विज्ञापनों के दौर में हम जी रहें हैं, जो पर्यावरण और हमारे विरुद्ध ‘पाप’ कर रही हैं- ग्रीनवाशिंग के तहत कम्पनियाँ विज्ञापन के ऐसे तरीकों का सहारा लेती है मानो इनकी चिमनियों से धुआं नहीं ताजे फूल निकलते हों।