भारत में गॉलब्लेडर या पित्ताशय की थैली का कैंसर (जीबीसी) की घटनाएं सबसे अधिक होती हैं। जो कि दुनिया भर में होने वाले पित्ताशय की थैली के कैंसर की लगभग 10 फीसदी हैं।
पित्ताशय की थैली यकृत के नीचे एक छोटा, नाशपाती के आकार का अंग है। यकृत और पित्ताशय दोनों दाहिनी निचली पसलियों के पीछे होते हैं। वयस्कों में, पित्ताशय आमतौर पर लगभग तीन से चार इंच लंबा होता है और सामान्य रूप से एक इंच से अधिक चौड़ा नहीं होता है।
पित्ताशय की थैली का कैंसर जो किए एक दुर्लभ लेकिन पाचन तंत्र का घातक कैंसर है, जिसे अब तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। इसके कारणों को समझने के लिए पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और दिल्ली के सेंटर फॉर क्रॉनिक डिजीज कंट्रोल, गुवाहाटी के बी बरुआ कैंसर इंस्टीट्यूट और आईआईटी-खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के सहयोग से अध्ययन किया।
असम और बिहार के विभिन्न हिस्सों में रोगियों का इलाज करने वाले बड़े अस्पताल में किए गए दो साल के अध्ययन से पता चलता है कि लंबे समय तक आर्सेनिक वाले पानी के संपर्क में रहने और पीने से पित्ताशय की थैली या गॉलब्लेडर के कैंसर (जीबीसी) का खतरा हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने भारत के दो आर्सेनिक से प्रभावित राज्यों में 15 से 70 वर्षों तक रहने वाले लोगों के आर्सेनिक वाले पानी पीने से, पित्ताशय की थैली के कैंसर के खतरे की जांच की। जहां पीने के पानी की वजह से पित्ताशय की थैली के कैंसर होने की बात निकल कर सामने आई, जो कि एक भारी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है।
अध्ययन वाले इलाकों में, शोधकर्ताओं ने पाया कि भूजल में 1.3-8.9 जी/एल औसत आर्सेनिक सांद्रता के संपर्क में आने वाले प्रतिभागियों में पित्ताशय की थैली के कैंसर का दोगुने से अधिक खतरा पाया गया। जबकि इससे भी अधिक आर्सेनिक स्तर 9.1-448.3 जी/एल के संपर्क में आने वालों को अनुभव हुआ। इनमें पित्ताशय की थैली के कैंसर का खतरा 2.4 गुना बढ़ जाता है।
अध्ययन के एक तिहाई से अधिक प्रतिभागियों को 10 जी/एल की विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा सुझाए गए दिशा निर्देश की सीमा से अधिक था और 6 प्रतिशत को 50 जी/एल से अधिक या उसके बराबर पाया गया था। आर्सेनिक के अधिक स्तर वाले क्षेत्रों में अधिक प्रतिभागियों ने तलछट के साथ नलकूप के पानी का उपयोग पीने के लिए किया था। यहां आर्सेनिक के कम स्तर वाले क्षेत्रों की तुलना में पानी का रंग, गंध और स्वाद ठीक नहीं पाया गया।
प्रमुख अध्ययनकर्ता और पीएचएफआई के वैज्ञानिक तथा एसोसिएट प्रोफेसर कृतिगा श्रीधर ने कहा अध्ययन में प्रतिभागियों के बचपन से उनके रहने के इतिहास और जिला स्तर पर भूजल आर्सेनिक की औसत मात्रा के आधार पर प्रतिभागियों के आर्सेनिक से होने वाले खतरों का आकलन किया गया।
पीने के पानी के संभावित स्रोतों के बारे में जानकारी के साथ बचपन से लंबे समय तक आवासीय इतिहास हासिल करना इस अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण है। इस अध्ययन के शुरुआती जानकारी भारत के समान देशों के लिए भी उपयोगी हो सकती है जो पित्ताशय की थैली से संबंधित खतरों का अधिक सामना करते हैं।
भारत के दो राज्य असम और बिहार जो पीने के लिए उपयोग किए जाने वाले भूजल में जीबीसी के बड़े खतरे और उच्च आर्सेनिक प्रदूषण को सामने लाती है। वैज्ञानिकों ने इस बात का मूल्यांकन किया कि क्या इन क्षेत्रों में दोनों के बीच कोई संबंध है।
अध्ययन के मुताबिक,आंकड़े जीबीसी के लिए संभावित निवारक रणनीति के साथ खतरे पैदा करने वाले कारणों पर शुरुआती जानकरी प्रदान करता है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायर्नमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ के मुताबिक ग्रामीण और शहरी भारत में 1.8 से तीन करोड़ लोग अध्ययन किए गए इलाकों सहित, 10 ग्राम प्रति लीटर से ऊपर और 1,500 ग्राम प्रति लीटर तक आर्सेनिक का सेवन करते हैं।
शोध पीने के पानी के माध्यम से आर्सेनिक के सम्पर्क में आने, भारत में ज्ञात आर्सेनिक से प्रदूषित क्षेत्रों में पित्ताशय की थैली के कैंसर के बढ़ते खतरों से जुड़ा हुआ है। यह शोध अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च के कैंसर एपिडेमियोलॉजी, बायोमार्कर्स एंड प्रिवेंशन जर्नल में प्रकाशित हुआ है।