प्रदूषण

डाउन टू अर्थ खास: उत्सर्जन का कारण बन रहे हैं समुद्री जहाज, नियंत्रण की दरकार

हाल में वैश्विक तापमान में हुए इजाफे की वजह पृथ्वी पर सल्फर डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में गिरावट हो सकती है

Rohini Krishnamurthy

आशंका है कि वायु प्रदूषण पर नकेल कसने के लिए किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों ने वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) में इजाफा ही किया है। जलयानों से समुद्र और आबोहवा में फैलने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए जिम्मेदार संगठन इंटरनेशनल मेरीटाइम ऑर्गनाइजेशन (आईएमओ) ने जलयानों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन में सल्फर की मात्रा को 3.5 प्रतिशत से घटाकर 0.5 प्रतिशत किया है।

विज्ञानियों का कहना है कि सल्फर डाई-ऑक्साइड (एसओ2) के उत्सर्जन में कमी ने नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 के बीच वैश्विक औसत तापमान में 1.32 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि में भूमिका निभाई होगी। इसके साथ ही जून 2023 में उत्तरी अटलांटिक महासागर में समुद्री सतह के तापमान में रिकॉर्ड वृद्धि हुई, जिससे संभवतः इस साल अमेजन में सबसे भयानक सुखा आया।

यूरोपियन सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फॉरकास्ट्स के कॉपरनिकस वायुमंडल निगरानी सेवा में वरिष्ठ विज्ञानी मार्क पेरिंग्टन ने डाउन टू अर्थ को बताया कि औसत वैश्विक तापमान में अचानक बढ़ोतरी संभवतः हाल के वर्षों में सबसे बड़ा उछाल है।

दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटरोलॉजी में वरिष्ठ विज्ञानी अनूप एस महाजन कहते हैं, “यह विश्वास करने के मजबूत कारण हैं कि तापमान में अचानक बढ़ोतरी की वजह शिपिंग उद्योग में लागू हुए नए नियम हैं। ये हमें उस दुनिया के करीब ले जा सकता है, जहां वैश्विक तापमान मौजूदा 1.1 डिग्री सेल्सियस के मुकाबले 1.5 डिग्री सेल्सियस (पूर्व औद्योगिक स्तर से ऊपर) पर पहुंचता है।

एसओ2 की वजह से सांस, हृदय और फेफड़े की बीमारियां हो सकती हैं और यह एसिड बारिश ला सकता है, जो फसल, जंगल और जलीय नस्लों के लिए खतरा है। साल 2022 में पीएनएएस जर्नल में छपे एक पेपर के मुताबिक, दुनियाभर में जितना एसओ2 का उत्सर्जन होता है, उसमें से 13 प्रतिशत उत्सर्जन जलयानों से होता है। बहुपक्षीय संगठन इंटरनेशनल मैरीटाइम ऑर्गनाइजेशन यानी आईएमओ के मुताबिक, उसके कदमों ने वैश्विक स्तर पर जलयानों से होने वाले एसओ2 के उत्सर्जन को 70 प्रतिशत तक घटाया है। यहां यह भी ज्ञातव्य हो कि विश्व व्यापार की 90 प्रतिशत माल ढुलाई जलयानों से होती है।

एसओ2 उत्सर्जन दो तरीके से पृथ्वी को ठंडा करता है। पहला तरीका सीधे असर करता है। दरअसल, आबोहवा में मौजूद एसओ2, सल्फेट एरोसोल में तब्दील हो जाता है, जो सौर विकिरण को अंतरिक्ष में प्रतिबिंबित करता है। दूसरे तरीके का प्रभाव अप्रत्यक्ष होता है। इसमें बादलों और सल्फेट एरोसोल के बीच संपर्क होता है, जिससे छोटे जल बूंदों वाले बादल बनते हैं और सल्फेट एरोसोल से चिपक जाते हैं। ये बूंदे रोशनी को बहुत सारी दिशाओं में फैला देती हैं, जिससे बादलों में चमक आती है, वे मोटे और सघन हो जाते हैं। अतः एसओ2 के उत्सर्जन में कटौती से मानव स्वास्थ्य को लाभ मिलता है, मगर इससे जलवायु परिवर्तन पर नकारात्मक असर भी पड़ता है।

एसओ2 का जलवायु पर प्रभाव इस पर भी निर्भर करता है कि वायुमंडल में यह प्रदूषक कहां अवस्थित है। मानवजनित एसओ2 उत्सर्जन वायुमंडल के सबसे निचले हिस्से में होता है, जिसे क्षोभमंडल कहा जाता है। इसका सबसे ऊपरी हिस्सा पृथ्वी की सतह से 10-18 किलोमीटर ऊपर होता है। यहां अवस्थित एसओ2 का अस्तित्व महज दो हफ्ते का होता है। हालांकि, प्राकृतिक तौर पर उत्सर्जित एसओ2 का असर ज्यादा होता है क्योंकि यह समताप मंडल तक पहुंच जाता है, जो पृथ्वी की सतह से 10 से 50 किलोमीटर तक ऊपर होता है।

इतनी ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यह प्रदूषक सालों तक अस्तित्व में रहता है क्योंकि इस ऊंचाई पर बादल भी नहीं होते हैं कि बारिश के साथ यह नीचे आ जाए। प्राकृतिक तौर पर एसओ2 के उत्सर्जन का एक उदाहरण साल 1991 में दिखा था जब फिलीपींस पिनाटुबो पर्वत अस्थिर हो गया था और पर्वत से 150 लाख टन गैस का उत्सर्जन हुआ था। अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक, इस उत्सर्जन के 15 महीनों के भीतर वैश्विक तापमान में 0.6 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आई थी।

प्रत्यक्ष बदलाव

जलयानों के ईंधन में सल्फर की मौजूदगी को लेकर साल 2020 में आए आईएमओ के नियमों के बाद से विज्ञानियों को वायुमंडल में बदलाव नजर आने लगा है। साल 2022 में साइंस एडवांसेज में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, नियमों में बदलाव ने जलयान रूट में बनने वाले बादलों का रूप बदल दिया है। जलयानों के रूट में बनने वाले बादलों की सघनता कम हो गई है (जलयानों के रूट में विषम बादलों का घनत्व)। प्राचीन पर्यावरणों में सल्फेट, समुद्री नमक या समुद्र में मौजूद अमोनियम साल्ट की वजह से बादल बनते हैं। आईएमओ के नियमों के लागू होने के बाद साल 2020 में पांच महत्वपूर्ण जलयान मार्गों में बादलों के वार्षिक औसत घनत्व में जलवायु औसत के मुकाबले 50 प्रतिशत की गिरावट हुई।

शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस गिरावट में 2019 की कोरोना वायरस महामारी की भी भूमिका है क्योंकि इस महामारी के दौरान वैश्विक जलयान यातायात में 1.4 प्रतिशत की गिरावट भी आई। साल 2021 के शुरू के 07 महीनों के आंकड़े बताते हैं कि साल 2020 की तरह ही इस अवधि में भी जलयान यातायात के रिकॉर्ड निचले स्तर पर रहे। जर्मनी की लेपजिग यूनिवर्सिटी में सैद्धांतिक मौसम-विज्ञान के प्रोफेसर जोहानेस क्वास ने डाउन टू अर्थ को बताया, “आईएमओ के नियमों के दो साल गुजर चुके हैं। अत: अब हम वैश्विक स्तर पर बादलों में बदलाव देख सकते हैं।”

असर का आकलन मुश्किल

महाजन कहते हैं कि यद्यपि यह स्पष्ट है कि आईएओ के निर्णयों ने नकारात्मक असर डाला है, लेकिन कितना असर डाला है, यह अज्ञात है। प्रभावों का आकलन करना आसान नहीं है क्योंकि विज्ञानियों में इसको लेकर स्पष्ट समझ नहीं है कि एरोसोल और बादलों के बीच किस तरह की प्रतिक्रिया होती है और इस प्रतिक्रिया का विकिरणीय बल पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है। विकिरणीय बल पृथ्वी-वातावरण व्यवस्था में आनेवाली और जानेवाली ऊर्जा में असंतुलन को नापता है। यह असंतुलन, मानवीय गतिविधियों मसलन कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन से आता है। विकिरणीय बल की गणना वाट प्रति वर्ग मीटर (वर्ग/मीटर2) में की जाती है।

यह असंतुलन या तो पृथ्वी के औसत तापमान को बढ़ाता है या ठंडा करता है। बहुत सारे सवाल जैसे वायुमंडल में सल्फेट एरोसोल से कितनी बादल बूंदे बनती हैं, बादलों का मोटापन और चमक कैसे विकिरणीय बल को प्रभावित करता है, अभी अनुत्तरित हैं।

एसओ2 के विकिरणीय बल को समझना कार्बन डाई-ऑक्साइड या मीथेन जैसे ग्रीनहाउस गैसों के मुकाबले काफी जटिल है। पेरिंग्टन कहते हैं, “ग्रीनहाउस गैसों को बेहतर तरीके से मापा जाता है इसलिए वायुमंडल में इसकी मौजूदगी को देखना और हिसाब लगाना आसान है।”

वह आगे कहते हैं कि एसओ2 बहुत ज्यादा जटिल है क्योंकि सल्फेट, एरोसोल में ऑक्सीडाइज हो जाता है। इससे इसमें रासायनिक रूपांतरण हो जाता है, जो पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन को प्रभावित करता है। ग्लोबल वार्मिंग पर इसके प्रभाव के बावजूद विज्ञानी इस बात पर जोर देते हैं कि नीति निर्माताओं को एसओ2 को रोकने के लिए और अधिक काम करने की जरूरत है।

आईएमओ नियमों के लागू होने से ठीक पहले 2018 में नेचर कम्युनिकेशंस में छपे एक अध्ययन में आईएमओ के प्रस्तावों के लागू होने और लागू नहीं होने की स्थितियों में जलयानों से उत्सर्जन का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले वालों प्रभावों का अनुमान लगाया गया। इस अध्ययन में पाया गया कि साल 2020 में सामान्य परिदृश्य में जलयानों से उत्सर्जन के चलते 4,03,300 असमय मौते होंगी। वहीं, 2020 में नियम लागू होने पर प्रतिवर्ष 2,66,300 असमय मृत्यु होगी, यानी कि 34 प्रतिशत की गिरावट है।

वहीं, इससे बच्चों में होने वाले अस्थमा रोग में भी गिरावट आएगी। जलयानों के चलते सामान्य परिदृश्य में 2020 में बच्चों में अस्थमा के 140 लाख मामले होंगे, जो नियमों के लागू होने पर घटकर 64 लाख हो जाएंगे। शोधकर्ता 2020 के स्तर से आगे जाकर उत्सर्जन में अतिरिक्त कटौती की जरूरत बताते हैं।

क्वास जोर देते हैं, “एसओ2 मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिक तंत्र का निर्धारक है क्योंकि एरोसोल उत्सर्जन को कम करने का कोई तरीका नहीं है।” इसका एकमात्र व्यावहारिक समाधान ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम कर बढ़ते तापमान को रोकना है, जो साल 2021 से 2022 तक तक 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन नए रिकॉर्ड पर पहुंचा है, जो 57.4 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एमिशंस गैप रिपोर्ट 2023 के मुताबिक, इसमें सबसे बड़ा योगदान जीवाश्म ईंधन और औद्योगिक गतिविधियों से निकलने वाले सीओ2 का था, जो कुल ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का दो तिहाई था।

फिनिश मेट्रोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ शोधकर्ता जुक्का-पेक्का जल कनेन ने डाउन टू अर्थ को बताया, “उच्च सल्फर ईंधन की तरफ वापस लौटने के बारे में सोचने की जगह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करना अब प्राथमिकता है क्योंकि एसओ2 उत्सर्जन में कमी के चलते हम कूलिंग प्रभाव खो चुके हैं। अतः यह समाधान नहीं बल्कि जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल जारी रखने का बहाना है।

निचले एरोसोल की कूलिंग से नुकसान की कुछ हद तक भरपाई के लिए संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की छठवीं मूल्यांकन रिपोर्ट मिथेन, नाइट्रोजन के आक्साइड्स और वाष्पशील कार्बनिक यौगिक के उत्सर्जन को कम करने की सिफारिश करती है।