प्रदूषण

प्लास्टिक कचरे का निस्तारण, सरकार के ड्राफ्ट पर उठते सवाल

Raji Ajwani-Ramchandani

अगर हम ये कहें कि प्लास्टिक कचरा को लेकर केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के यूनिफॉर्म फ्रेमवर्क ऑफ एक्सटेंडेड प्रॉड्यूसर्स रेस्पांसिब्लिटी में कोई चूक नहीं है, तो निसंदेह ये सच्चाई पर परदा डालने वाला बयान होगा।

हालांकि सरकार ने इसका प्रारूप इसी साल जून में कोविड-19 महामारी के बीच सार्वजनिक किया था, लेकिन इसमें कोविड-19 को लेकर अस्पष्टता है, क्योंकि इसमें वर्तमान चुनौतियों को शामिल नहीं किया गया है।

इस ड्राफ्ट में इस्तेमाल हो चुके पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) और घरों से निकलने वाला मिश्रित कूड़ा, खतरनाक बायोवेस्ट जैसे मास्क, दस्ताना व साफ-सफाई से जुड़ी अन्य चीजें उठाने वालों की परेशानी पर कोई चर्चा नहीं है।

ये खतरनाक कचरा कूड़ा उठाने वालों को भी संक्रमित कर सकती हैं, जिससे वे गंभीर रूप से बीमार पड़ सकते हैं। उनका मेडिकल खर्च बढ़ सकता है और चरम स्थिति में उनकी मौत हो सकती है।

अधिकांश देशों में जोखिम वाले पेशों से जुड़े कामगारों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम चलाये जाते हैं, जिनके तहत स्वास्थ्य बीमा और जरूरी सुरक्षात्मक उपकरण मुहैया कराये जाते हैं। जबकि भारत में कूड़ा उठाने वाले कामगारों को नगर निकायों या ठेकेदारों की तरफ से किसी तरह का पीपीआई नहीं दिया जाता है। कई कामगारों को पिछले कई महीनों से तनख्वाह ही नहीं मिली है।

चूंकि उनके लिए किसी तरह की शिकायत निवारण प्रणाली उपलब्ध नहीं है, इसलिए वे इस डर से काम जारी रखे हुए हैं कि कहीं उनका पिछले काम का पैसा भी डूब न जाए।

और तो और, लॉकडाउन अवधि के दौरान कूड़ा निस्तारण से जुड़े डीलरों की दुकानें बंद रहीं क्योंकि उनका काम “जरूरी सेवाओं” के अंतर्गत नहीं आता है। इस वजह से क्रियान्वयन प्रक्रिया ठप पड़ गई, क्योंकि कूड़ा उठाने वाले रिसाइकल होने वाले कूड़े को बेच नहीं सके।

प्रारुप दस्तावेज में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा ईपीआर तंत्र की निगरानी लागू करने के लिए वेब पोर्टल का प्रस्ताव दिया गया है। पोर्टल अनुमानतः देशभर साझेदारों के लिए एकल रजिस्ट्रेशन प्वाइंट होगा, जहां कूड़ा प्रबंधन से जुड़े साझेदार-संग्रहकर्ता, संयोजनकर्ता और रिसाइकिल करने वाले पंजीयन करा सकते हैं। लेकिन, ड्राफ्ट आसानी से इस सच की अनदेखी कर देता है कि कूड़ा संग्रह और इसकी रिसाइक्लिंग असंगठित क्षेत्र द्वारा किया जाता है।

अतः सवाल ये उठता है कि असंगठित क्षेत्र से सरकार कैसे ये उम्मीद करती है कि वे ऑनलाइन पोर्टल पर पंजीयन करा लेंगे? असंगठित क्षेत्र में कामकाज नकद होता है। नकद के लिए कचरे का व्यापार होता है और वैल्यू चेन से जुडा हर व्यक्ति हर खरीद-बिक्री में कुछ फायदा कमाता है।

कूड़ा संग्रह करने वाले इस वैल्यू चेन पिरामिड में सबसे नीचे हैं। कूड़ा उठाने वाले रोजाना के हिसाब से डीलरों को कूड़ा बेचते हैं और इसकी कीमत बाजार के अपने नियम से संलाचित होती है न कि किसी आधिकारिक नियामक से। कूड़ा डीलर कुछ कीमत चढ़ाकर कूड़ा एक बड़े डीलर को बेच देता है और ये चक्र आगे बढ़ता है।

कूड़े पर कमाई उसकी मात्रा के आधार पर होती है। छोटी कॉलोनी, नगर निगम वार्ड, शहर, राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर कितना कूड़ा निकलता है, इसको लेकर कोई विश्वस्त आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, पर ये नकद आधारित बिजनेस मॉडल पिरामिड के ऊपरी हिस्से में बेहतर तरीके से काम करता है।

इतना ही नहीं, कूड़े के असेंबलर या डीलर शहर में इधर-उधर बिखरे हुए हैं, इसलिए उनकी शिनाख्त कर पाना मुश्किल है। ये कारोबार उन लोगों द्वारा किया जा रहा है, जो बहुत पढ़े लिखे नहीं हैं और वे लम्बे समय से ये काम कर रहे हैं या उन्हें विरासत में मिला है।

क्या ऐसी कंपनी या बिजनेस ऑनलाइन पोर्टल में अपना पंजीयन कराना चाहेंगी? खासकर कोविड-19 के समय में जब रिसाइकल करने योग्य कूड़े से संक्रमण का बड़ा खतरा है।

इसे देखते हुए कूड़ा-करकट के डीलर घरों से निकलने वाला कचरा लेना पसंद नहीं कर रहे हैं बल्कि दफ्तरों व अन्य व्यावसायिक कार्यालयों से निकलने वाले कूड़े के प्रबंधन की कोशिश कर रहे हैं।

वजह ये है कि इन दफ्तरों से कचरे के रूप में मुख्य रूप से कागज और गत्ता निकलता है, जिसे 72 घंटों तक आराम से रखा जा सकता है। इसे रखने के लिए ज्यादा जगह की जरूरत भी नहीं पड़ती, क्योंकि इन्हें दबाकर आसानी से स्टोर कर रखा जा सकता है।

ड्राफ्ट दस्तावेज कूड़े के संग्रहण और उसे अलग करने की पूरी जिम्मेवारी निकायों पर डालता है। लेकिन, निकायों पर जिम्मेवारी भी बहुत कारगर नहीं हो सका है। इसका कारण ये है कि एक बार सभी तरह का कचरा एक में मिल जाता है, तो उन्हें अलग करना व्यावहारिक नहीं होता और आखिर में कूड़ा लैंडफिल में जगह पाता है।

कूड़े के बेहतर प्रबंधन के लिए स्रोत स्थल यानी जहां से कूड़ा का उठाव होता है, वहां ही इसे अलग किया जाना जरूरी है।

कोविड-19 संकट को देखते हुए संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए स्रोत स्थल पर ही कचरे को अलग करना अहम हो जाता है। खासकर होम क्वारंटीन के मामलों में तो ये और भी जरूरी होता है।

हालांकि, स्रोतस्थल पर कूड़े को अलग करने के लिए समय, शिक्षा और प्रोत्साहन की जरूरत पड़ती है। मिसाल के तौर पर कोविड-19 से पहले पुणे के पिम्परी-चिंचवड़ म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में कूड़े को स्रोत स्थल पर ही अलग करने और जैविक व पुनःचक्रित (रिसाइकिल) होने लायक कूड़े के आंतरिक प्रबंधन के लिए बड़े आवासीय सोसाइटीज को प्रॉपर्टी टैक्स में छूट की स्कीम थी। लेकिन, कोविड-19 के कारण ये स्कीम रोक दी गई है।

नगरों का बुनियादी ढांचा अपने चरम पर पहुंच चुका है और म्युनिसिपल अथॉरिटी कर्मचारियों की किल्लत, प्रशासनिक और कोविड-19 से संबंधित रोकथाम के उपाय मसलन धूमीकरण (फ्युमिगेशन), अस्पतालों व जनस्वास्थ्य सुविधाओं की साफ-सफाई को लेकर संघर्ष कर रही है।

निकायों का राजस्व संग्रह पर नकारात्मक असर पड़ा है क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण शहरी परियोजनाएं प्रभावित हुई हैं। निकायों के पास शहर से निकलने वाले मिश्रित कूड़े को अलग करने के लिए वैसा नेटवर्क नहीं है क्योंकि शहर से जितनी मात्रा में कूड़ा निकलता है, वह कल्पना से परे है।

सैनिटरी पैड की दिक्कतें

चूक यहीं खत्म नहीं होती है। सॉलिट वेस्ट मैनेजमेंट, 2016 (एसडब्ल्यूएम) के मुताबिक, सैनिटरी नैपकिन और डायपर बनाने व उसकी मार्केटिंग करने वाली कंपनियों को म्युनिसिपल अथॉरिटी के साथ मिलकर एक व्यवस्था विकसित कर उनके ब्रांड से निकलने वाले कूड़े को वापस लेना है।

इन कंपनियों को हर नैपकिन के निस्तारण के लिए पाउच या रैपर देना है और उपभोक्ताओं को जागरूक भी करना है। इस निर्देश के पालन के लिए ब्रांड मालिकों ने अब तक कुछ भी नहीं किया है। पारंपरिक सैनिटरी पैड (इस्तेमाल करने के बाद फेंक देने वाले) में 90 प्रतिशत प्लास्टिक होता है।

सैनिटरी पैड का ऊपरी हिस्सा जिसे कपड़ा कहा जाता है, प्लास्टिक से बुना हुआ शीट होता है। अगर हम सैनिटरी पैड के अन्य तत्वों को देखें, तो उसकी पैकेजिंग, प्लास्टिक विंग्स, गोंद, तरल पदार्थ को अवशोषित करने वाला जेल (प्लास्टिक) आदि को जोड़ दें, तो हर पैड में चार प्लास्टिक बैग (2 ग्राम वजन का प्राकृतिक तरीके से नष्ट नहीं होने वाला प्लास्टिक) के बराबर प्लास्टिक होता है।

अनुमान है कि सैनिटरी नैपकिन और डायपर को नष्ट या खराब होने में 500-800 साल लगता है। एक महिला प्रजनन की उम्र तक औसतन 10,000 सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती है।

अनुमानतः हर महीने भारत में 1 करोड़ सैनिटरी पैड (डिस्पोजेबल) फेंका जाता है। एसडब्ल्यूएम रूल्स, 2016 में एक खामी ये भी है कि सैनिटरी कूड़े को बायोमेडिकल कूड़े की जगह घरेलू खतरनाक कूड़े की श्रेणी में रखा गया है। इसका मतलब है कि ऐसी चीजों को घरों के कूड़े के साथ फेंका जा सकता है।

सैनिटरी कचरा मसलन पैड व डायपर में मानव रक्त और शरीर के तरल पदार्थ होते हैं। इसके चलते कूड़ा बीनने वाले कई तरह की संक्रामक बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। एसडब्ल्यूएम रूल्स, 2016 में ये भी नहीं कहा गया है कि नियमों की अनदेखी करने वाले नगर निगमों पर किस तरह की कार्रवाई हो सकती है।

इसके परिणामस्वरूप ब्रांड के मालिकान इस मुद्दे की अनदेखी करते हैं। ईपीआर ड्राफ्ट डॉक्यूमेंट भी इस खतरनाक म्युनिसिपल ठोस कूड़ा, जिसमें खतरनाक बायोमेडिकल कचरे की मात्रा बढ़ रही है, के प्रभाव की अनदेखी करता है।

कचरा प्रबंधन का पूरा दारोमदार नगर निकायों के कंधे पर डालने का सकारात्मक परिणाम नहीं मिला है, क्योंकि वे अपने मौजूदा संसाधनों व कर्मचारियों के बूते भारी मात्रा में निकलने वाले कचरे का प्रबंधन करने की स्थिति में नहीं हैं। विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा कई तरह के दिशानिर्देश और दस्तावेज जारी किए गए, लेकिन जमीनी स्तर पर नहीं के बराबर बदलाव हुआ है।

हमारे पैदल सिपाही (कूड़ा योद्धा) अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हों, हमारी नीतियों में ये सुनिश्चित करने की जरूरत है ताकि अहम पद पर बैठे शक्तिशाली लोगों द्वारा तैयार की गई योजनाओं को लागू कर सकें। इसके लिए बहुत बुनियादी काम करने की जरूरत है।

कचरा प्रबंधन से जुड़े वर्करों के लिए एक तयशुदा आय जो उनके जीवन निर्वाह व मेडिकल बीमा और स्वास्थ्य खर्च में मदद कर सके। वायरस के संक्रमण से सुरक्षा के लिए पीपीई, काम करने के लिए साफ-सुथरा माहौल, साफ-सफाई और साफ पेयजल की उपलब्धता और रिकवर होने वाले कूड़े के एवज में एक सम्मानजक और सुनिश्चित भुगतान। ये बहुत न्यूनतम है, जो किया जाना चाहिए, अगर हम चाहते हैं कि एक अर्थव्यवस्था अनियोजित दबाव में भी बची रहे न कि उस दबाव में क्षतिग्रस्त हो जाये।

(लेखक सेंटर ऑफ पॉलिसी स्टडीज, आईआईटी बॉम्बे से जुड़े हुए हैं)