तीन मिनट, एक मौत से आशय है कि देश में वायु प्रदूषण की वजह से भारत में औसतन तीन मिनट में एक बच्चे की मौत हो जाती है। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है। इसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक आप पढ़ चुके हैं कि वायु प्रदूषण से बच्चों की मौत के मामले सबसे अधिक राजस्थान में हुए हैं। इसके बाद जहरीली हवा की वजह से बच्चों की सांस लेना हुआ मुश्किल में हमने बताया कि अनस जैसे कई बच्चे लगभग हर माह अस्पताल में भर्ती होना पड़ रहा है। तीसरी कड़ी में बताया गया कि तीन दशक के आंकड़ों के मुताबिक बच्चों की मौत की दूसरी बड़ी वजह निचले फेफडे़ के संक्रमण होना रहा है। चौथी कड़ी में बताया गया कि वायु प्रदूषण के कारण बच्चे अस्थमा का शिकार हो रहे हैं। पांचवी कड़ी में अपना पढ़ा कि बच्चे कैसे घर के भीतर हो रहे प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं। छठी कड़ी में आपने पढ़ा, वायु प्रदूषण से फेफड़े ही नहीं, दूसरे अंगों पर भी हो रहा असर । इससे आगे पढ़ें -
हालांकि, सभी राज्यों में इनका प्रभाव अलग –अलग है। वायु प्रदूषण के कारण एलआरआई से नवजात बच्चों की मौत सबसे ज्यादा राजस्थान में होती है। वहीं, यहां बाहरी प्रदूषण के मुकाबले घर के भीतर ठोस ईंधन से होने वाला प्रदूषण ज्यादा प्रभावी है। राजस्थान में एक लाख की आबादी में कुल 126.04 बच्चे दम तोड़ते हैं। इसमें यदि अकेले घर के भीतर ठोस ईंधन से होने वाले प्रदूषण की हिस्सेदारी देखें तो प्रति लाख आबादी पर 67.47 नवजात बच्चों की मृत्यु धुएं के प्रदूषण से जनित निचले फेफड़ों के संक्रमण से हो रही है।
वायु प्रदूषण से होने वाले एलआरआई के कारण नवजात बच्चों की मृत्यु के मामले में उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। यहां घर के भीतर और बाहर मौजूद वायु प्रदूषण के मामले में तस्वीर राजस्थान से उलट है। उत्तर प्रदेश में बाहरी यानी परिवेश का प्रदूषण ज्यादा खतरनाक है।
घर के भीतर ठोस ईंधन के धुएं से एक लाख आबादी में 39.22 नवजात बच्चों की मृत्यु होती है जबकि बाहरी परिवेश में एक लाख की आबादी में नवजात बच्चों की मृत्यु 72.66 है। इसी तरह बिहार में भी बाहरी परिवेश का वायु प्रदूषण ज्यादा घातक है। बिहार में परिवेशी वायु प्रदूषण से जनित एलआरआई के कारण एक लाख की आबादी में 59.32 नवजात बच्चों की मृत्यु होती है जबकि घर के भीतर ठोस ईंधन के धुएं से होने वाले वायु प्रदूषण के कारण प्रति लाख आबादी में 46.63 बच्चों की मृत्यु होती है।
घर के भीतर ठोस ईंधन के कारण धुएं से वायु प्रदूषण और उसके कारण एलआरआई से होने वाली नवजात बच्चों की मौत के मामले में दिल्ली की स्थिति इतनी भयावह नहीं है। मसलन दिल्ली में इनडोर पॉल्यूशन के कारण एक लाख आबादी में 0.19 ही पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे दम तोड़ते हैं। जबकि पंजाब में प्रति लाख आबादी में 9.41 और हरियाणा में एक लाख की आबादी में 16.3 पांच वर्ष के कम उम्र के बच्चों की मौत होती है।
अभी ठंड की सुगबुगाहट हुई है और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तर भारत के राज्यों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश व बिहार के मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों में बच्चों के श्वसन रोग संबंधी बीमारियों का तांता लगना शुरु हो गया है। श्वसन रोग से बच्चों की मौत संबंधी अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय अध्ययन और आंकड़े इस खतरे की घंटी काफी पहले बजा चुके हैं लेकिन शासन और प्रशासन अभी तक सजग नहीं हो पाए हैं।
बिहार की राजधानी पटना में वायु प्रदूषण के कारण बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर पांच वर्ष पूर्व पीएमसीएच मेडिकल कॉलेज और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अध्ययन किया था। इस अध्ययन में बच्चों के श्वसन रोग के चिकित्सक निगम प्रकाश ने बताया कि इस अध्ययन में स्पष्ट तौर पर यह पता चला कि सघन आबादी और वाहनों की जबरदस्त संख्या से उत्सर्जित कणों के कारण जहां -जहां वायु प्रदूषण अधिक रहा वहां-वहां के 0 से 5 वर्ष के बच्चों के फेफड़ों में परेशानी अधिक रही।
बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक बार फिर से एम्स पटना के साथ मिलकर वायु प्रदूषण और उसके प्रभाव को लेकर अध्ययन की शुरुआत की है। इस अध्ययन में शामिल डॉक्टर नीरज अग्रवाल ने बताया कि यह केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से अध्ययन कराया जा रहा है। इसमें तीन वर्ष लगेंगे।
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