प्रदूषण

तीन मिनट, एक मौत: वायु प्रदूषण से राजस्थान में हो रही हैं सबसे ज्यादा बच्चों की मौत

Anil Ashwani Sharma, Vivek Mishra

अनस उस राज्य में रहता है, जहां प्रति लाख आबादी में वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़ों के संक्रमण (एलआरआई) से बच्चों की मौत की दर 126.04 यानी सबसे ज्यादा है, जबकि जयपुर देश के 122 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सरकारी सूची में भी शामिल है अनस का घर जयपुर के शास्त्री नगर की एक सघन बस्ती मे हैं। मुख्य सड़क से कुछ दूर यहां गली में कुछ मोटरसाइकिल आती-जाती हैं। हालांकि, मुख्य सड़क पर मोटर वाहनों का आना-जाना बना हुआ है। अनस का परिवार बाहरी वातावरण में वाहनों के प्रदूषण की बात को नहीं जानता है। हालांकि, अनस के घर के इर्द-गिर्द के वातावरण में प्रदूषण कणों को मापने वाला राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (आरपीसीबी) का स्टेशन आंखों से न दिखाई देने वाला एक खतरनाक सच आंकड़ों में उजागर करता है। 

आरपीसीबी के वायु प्रदूषण मापने वाले स्टेशन के मुताबिक जयपुर के शास्त्री नगर इलाके में वायु गुणवत्ता 365 दिन सामान्य नहीं रहती। मदीना मस्जिद से सबसे नजदीकी प्रदूषण मापने वाला स्टेशन पुलिस कमिश्नरी पर स्थित है। इस स्टेशन के आंकड़े बताते हैं कि 2018 में खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर 24 घंटों के आधार पर 63 फीसदी दिन अपने सामान्य स्तर (60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से अधिक रहा है। वहीं, 2019 में अभी तक 32 फीसदी दिन पीएम 2.5 का स्तर अपने सामान्य स्तर से अधिक रिकॉर्ड किया गया है। यह आंकड़ा अभी इसलिए कम है क्योंकि ठंड में हवा की गुणवत्ता और खराब होगी तो ज्यादातर खराब वायु गुणवत्ता वाले दिन अगले दो  महीनों में जुड़ेंगे। पीएम 2.5 का लंबे समय तक अपने सामान्य मानकों से ज्यादा बने रहना यह दर्शाता है कि खासतौर से सबसे जोखिम आयु वर्ग वाले समूह जैसे पांच वर्ष से कम उम्र और 70 वर्ष से अधिक उम्र वालों में श्वसन रोग की समस्या प्रबल हो सकती है। 

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) यह बात खुद बताता है कि लंबे समय तक वायु प्रदूषण के प्रभाव में रहने से बच्चों को श्वसन संबंधी बीमारियों का शिकार होना पड़ सकता है। राजस्थान में वायु प्रदूषण जनित निचले फेफड़े के संक्रमण के कारण बच्चों की मृत्यु दर क्यों सबसे अधिक है? इस सवाल पर जयपुर में स्थित जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक व मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष अशोक गुप्ता डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि जेके लोन देश के सबसे बड़े बच्चों के अस्पताल में शामिल है। बच्चों के लिए करीब 800 बेड हैं। इनमें नवजात बच्चों के लिए 150 से ज्यादा एनआईसीयू बेड हैं। इसके अतिरिक्त 25 सामान्य आईसीयू बेड हैं। बावजूद इसके बच्चों के लिए बेड की कमी बनी रहती है।

अशोक गुप्ता कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं का डिलीवर न हो पाना और स्वास्थ्य के लिए बुनियादी संरचना का अभाव बच्चों की मृत्यु दर को बढ़ाने वाला प्रमुख कारक है। वहीं, बच्चों में कुपोषण और प्रदूषण जैसे विषय पर शोध, फंड और ट्रेनिंग की कमी जैसी समस्याओं को दूर करके इसका इलाज किया जा सकता है।

उन्होंने बताया कि जयपुर से 100 से 150 किलोमीटर की परिधि में बसे हुए आस-पास जिलों से ही मरीज समय से इलाज कराने आते हैं। इनमें दौसा, अलवर, करौली, भरतपुर, सीकर प्रमुख हैं। कई मामले ऐसे होते हैं जब केस पूरी तरह बिगड़ चुका होता है तब ही वे राजधानी पहुंचते हैं। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाना अब भी बड़ी चुनौती है। जेके लोन अस्पताल में हर वर्ष बीमार बच्चों के आने की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। हर एक दशक में करीब दोगुना मरीज बढ़ रहे हैं। तीन दशक के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2000 में कुल ओपीडी मरीज बच्चों की संख्या 105,908 थी, वहीं भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या 19,685 थी।

एक दशक बाद 2010 में ओपीडी की संख्या में करीब दोगुनी 175,758 बढ़ोत्तरी हुई। जबकि भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या भी डेढ़ गुना यानी 32,625 पहुंच गई। 2018 में जेके लोन अस्पताल में बच्चों की ओपीडी़ में 445,398 बच्चे इलाज कराने पहुंचे, जबकि 56,013 बच्चे भर्ती हुए। 2019 में अभी तक 2.5 लाख से ज्यादा बच्चे इलाज के लिए आ चुके हैं।

2018 में 0 से 14 वर्ष उम्र के कुल 4,45,398 बच्चों में श्वसन रोग के मामले की ओपीडी में इलाज कराने वाले बच्चों की संख्या  1,68,687 रही है। यानी कुल बच्चों के मरीजों में 37.87 फीसदी बच्चे श्वसन रोग का इलाज कराने जेके लोन अस्पताल पहुंचते हैं। इसमें निचले फेफड़े का संक्रमण, ऊपरी फेफड़े का संक्रमण, न्यूमोनिया, अस्थमा, व अन्य श्वसन रोग शामिल हैं। इसी तरह से 2018 में भर्ती होने वाले बच्चों की कुल संख्या 56,013 थी। इसमें 20.68 फीसदी बच्चे विभिन्न श्वसन रोग के कारण भर्ती हुए हैं।

यह देश में वायु प्रदूषण से जनित एलआरआई के कारण सबसे ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु वाले राजस्थान का हाल है। वहीं, सरकार का ध्यान अभी सिर्फ जयपुर पर ही जा सका है। अन्य जिलों और ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में राज्य में कोई खाका नहीं तैयार किया जा सका है। जयपुर में बीते दो वर्षों से वायु प्रदूषण पर निजात के लिए ड्राफ्ट प्लान तैयार किया जा रहा था, आईआईटी  कानपुर की ओर से 30 सितंबर को ड्राफ्ट प्लान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सौंप दिया गया है।

इस प्लान में पांच प्रमुख समस्याओं पर काम करने को कहा गया है। सबसे बड़ी समस्या के तौर पर डीजल बसों पर रोक और उनके अवैध स्टैंड को हटाने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा आईआईआटी कानपुर ने सेटेलाइट तस्वीरों से पाया है कि जयपुर में प्राकृतिक धूल काफी ज्यादा है।

वहीं, रिहायशी इलाके में काफी प्रदूषित औद्योगिक ईकाइयां हैं जिन्हें रिहायशी इलाकों से हटाने की बात कही गई है। इनडोर पॉल्यूशन  का बड़ा कारण चूल्हा है। ऐसे में जयपुर में अब भी 20 फीसदी घरों में एलपीजी नहीं पहुंच पाई है। ट्रैफिक नियंत्रण की भी सिफारिश की गई है। 

इन ड्राफ्ट पर कब तक जमीनी काम शुरु होगा? इस सवाल का जवाब राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास अभी नहीं है। राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वरिष्ठ  अधिकारी ने बताया कि ड्राफ्ट पर विभागवार बैठक होगी इसके बाद ही काम शुरु होगा। ईंट भट्ठों को जिग-जैग चिमनी करने के आदेश का भी अभी तक राजस्थान में पालन नहीं हो पाया है। हाल ही में, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सभी समीक्षा अधिकारियों को पत्र लिखकर वस्तु स्थिति बताने को कहा है। प्रदूषण नियंत्रण के ऐसे सभी जरूरी काम बहुत ही समय से टाले जा रहे हैं, जिसकी सजा मासूम बच्चों को भुगतनी पड़ रही है। 

जारी...