प्रदूषण

बच्चों को दिमागी तौर पर कमजोर बना रहा वायु प्रदूषण, ध्यान लगाने की क्षमता में आ रही गिरावट

रिसर्च के मुताबिक खासकर गर्भावस्था और बचपन के शुरूआती वर्षों के दौरान दूषित हवा में सांस लेने से मस्तिष्क के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है

Lalit Maurya

क्या आप जानते है कि वायु प्रदूषण का संपर्क आपके बच्चों को दिमागी तौर पर कमजोर बना रहा है। इससे उनकी बौद्धिक और ध्यान लगाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। इस बारे में की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि जीवन के शुरूआती दो वर्षों में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का संपर्क बच्चों में ध्यान लगाने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

यह अध्ययन बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित हुए हैं। इस रिसर्च के मुताबिक खासकर गर्भावस्था और बचपन के शुरूआती वर्षों के दौरान दूषित हवा में सांस लेने से मस्तिष्क के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

अध्ययन के मुताबिक जो बच्चे जीवन के शुरूआती दो वर्षों के दौरान नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के संपर्क में आते हैं, उनके लिए आगे चलकर चार से आठ वर्ष की आयु में ध्यान देना कठिन हो सकता है। यह प्रभाव विशेष रूप से लड़कों में कहीं ज्यादा स्पष्ट थे।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण घटक है जो परिवहन यानी कारों और ट्रकों से होने वाले प्रदूषण से आता है। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि चार से छह वर्ष की आयु के जो बच्चे कहीं ज्यादा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड प्रदूषण की संपर्क में थे, उन्हें ध्यान देने में परेशानी हुई थी।

इसी तरह यह प्रभाव तब तक देखा गया जबतक कि उनकी आयु छह से आठ वर्ष नहीं हो गई थी। हालांकि जीवन के शुरूआती दो वर्षों में इसका प्रभाव कहीं ज्यादा था।

यह अध्ययन स्पेन के चार क्षेत्रों में 1703 महिलाओं और उनके बच्चों के बारे में प्राप्त जानकारी पर आधारित है। इनके बार में आंकड़े आईएनएमए प्रोजेक्ट के जरिए जुटाए गए थे। गर्भावस्था और जीवन के शुरूआती छह वर्षों के दौरान यह बच्चे कितने नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में थे, अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने इस बारे में जानकारी एकत्र की थी।

इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने कंप्यूटरीकृत परीक्षणों की मदद से चार से छह और छह से आठ आयु वर्ग के बच्चों में ध्यान देने की क्षमता की भी जांच की है। इस जांच में यह देखा गया कि किस पर ध्यान देना है और किस पर नहीं, बच्चों में यह चुनने की क्षमता कितनी परिपक्व थी।

इसी तरह जब बच्चे छह से आठ वर्ष के थे तो शोधकर्ताओं ने उनके ध्यान रखने की क्षमता का परीक्षण किया था, ताकि यह पता चल सके कि वो अस्थाई रूप से जानकारी कितनी देर तक याद रख सकते हैं।

आईएनएमए से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने पिछले अध्ययन में जानकारी दी थी कि गर्भावस्था और जीवन के शुरूआती वर्षों के दौरान नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में आने से चार से पांच वर्ष की आयु में बच्चों का ध्यान प्रभावित हो सकता है।

वहीं नए अध्ययन से पता चला है कि 1.3 से डेढ़ वर्ष की आयु के बीच कहीं ज्यादा नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के संपर्क में आने वाले बच्चों ने चार से छह वर्ष की आयु में ध्यान लगाने को लेकर किए परीक्षणों के दौरान प्रतिक्रिया करने में अधिक समय लिया था।

वहीं 1.5 से 2.2 वर्ष की आयु के बीच कहीं ज्यादा एनओ2 के संपर्क में आने से इन परीक्षणों में अधिक गलतियां या चूक हुईं थी। इसी तरह 0.3 से 2.2 वर्ष की आयु के बीच जो लड़के एनओ2 के संपर्क में आए थे वो छह से आठ वर्ष की आयु में लगातार प्रतिक्रिया करने में धीमे थे।

हालांकि छह से आठ वर्ष के की आयु के वो बच्चों जो नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के गंभीर स्तर में संपर्क आए थे, उनकी कार्यशील स्मृति के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया ।

क्या है इसके पीछे का विज्ञान

अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता ऐनी-क्लेयर बिंटर ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “निष्कर्षों से पता चलता है कि यातायात-संबंधी बढ़ता प्रदूषण बच्चों की ध्यान लगाने की क्षमता में होते विकास को किस कदर धीमा कर सकता है।“

इसमें कोई शक नहीं कि हमारे मस्तिष्क के सभी महत्वपूर्ण कार्यकारी कार्यों को नियंत्रित करने के लिए ध्यान देना बेहद आवश्यक है। इन महत्वपूर्ण कार्यों में किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कार्यों, विचारों और भावनाओं को प्रबंधित और नियंत्रित करना शामिल है।

बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता ऐनी-क्लेयर बिंटर ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स इन्हीं कार्यकारी कार्यों को अंजाम देने वाला मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। जो बहुत धीरे-धीरे विकसित होता है और गर्भावस्था से जीवन के शुरूआती वर्षों के दौरान भी परिपक्व हो रहा होता है। जो इसे वायु प्रदूषण के संपर्क में आने के प्रति संवेदनशील बनाता है। इससे सूजन और ऊर्जा उपयोग करने में परेशानी जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

आखिर दूषित हवा लड़कों में ही लम्बे समय तक ध्यान लगाने की क्षमता क्यों प्रभावित करती है। इस बारे में शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि क्योंकि लड़कों का मस्तिष्क बहुत धीरे-धीरे परिपक्व होता है, जो उन्हें इसके प्रति कहीं ज्यादा असुरक्षित बना सकता है।

हालांकि साथ ही उन्होंने इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए आगे और अध्ययन की आवश्यकता पर जोर दिया है। शोधकर्ताओं ने सिफारिश की है कि भविष्य में किए जाने वाले अध्ययनों में समय-समय पर लोगों पर नजर रखी जानी चाहिए, ताकि यह देखा जा सके की उम्र और लिंग, वायु प्रदूषण एवं ध्यान के बीच के संबंधों को कैसे प्रभावित करते हैं, खासकर जब लोगों की उम्र ढलने लगती है।

यह कोई पहला मौका नहीं है जब बच्चों के स्वास्थ्य पर बढ़ते प्रदूषण को उजागर किया गया है। इससे पहले जर्नल प्लोस वन में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया था कि वाहनों से होने वाला प्रदूषण बच्चों की दिमागी संरचना को बदल रहा है।

इस अध्ययन के मुताबिक कम उम्र में प्रदूषण का संपर्क बच्चों में आगे चलकर 12 साल का होने के बाद असर डालता है। इस रिसर्च के मुताबिक जो बच्चे जन्म के समय अधिक प्रदूषित इलाकों में रहते हैं, उनके दिमाग में ग्रे मैटर और कॉर्टिकल की मोटाई सामान्य बच्चों से कम होती है।

गौरतलब है कि मस्तिष्क की बाहरी परत जिसे 'ग्रे मैटर' कहते हैं, वो याददाश्त, ध्यान लगाने, जागरुकता, विचार, भाषा और चेतना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दूसरी ओर कॉर्टिकल बच्चों की बुद्धिमता से जुड़ा होता है। ऐसे में इसकी मोटाई में कमी आने से बच्चों की सोचने-समझने ओर निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है।

प्रदूषण की गिरफ्त में है भारत की सौ फीसदी आबादी

इसी तरह नानजिंग विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों द्वारा किए ऐसे ही एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि वायु प्रदूषण के कारण ध्यान एकाग्रित करना मुश्किल हो जाता है, जिसकी वजह से वो आसानी से दूसरी ओर भटक सकता है। बता दें कि पढ़ाई-लिखाई से लेकर ड्राइविंग तक ऐसे बहुत से काम हैं, जिनके लिए हमें एकाग्र होने की बेहद आवश्यकता पड़ती है।

पिछले शोधों से भी पता चला है कि प्रदूषित हवा में सांस लेने से सोचने-समझने में दिक्कतें आने लगती हैं। इसके साथ-साथ बढ़ता प्रदूषण हमारे व्यवहार के साथ-साथ काम करने के तौर-तरीकों को भी प्रभावित कर रहा है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो वायु प्रदूषण आज एक बड़ी समस्या बन चुका है। इसकी पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा जारी आंकड़ें भी करते हैं। आज दुनिया की 99 फीसदी आबादी ऐसी हवा में सांस लेने को मजबूर है, जहां वायु प्रदूषण का स्तर डब्लूएचओ द्वारा तय मानकों से कहीं ज्यादा है।

भारत जैसे देशों में तो यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले चुकी है। देश का आज हर इंसान ऐसी हवा में सांस ले रहा है जो उसके स्वास्थ्य के लिहाज से सुरक्षित नहीं कही जा सकती। इसका असर न केवल लोगों के शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। इतना ही नहीं यह प्रदूषण जीवन की गुणवत्ता पर भी असर डाल रह है।

आंकड़ों के मुताबिक आज देश की 67 फीसदी से अधिक आबादी ऐसी हवा में सांस लेने को मजबूर है, जहां प्रदूषण का स्तर भारत के स्वयं के राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से ज्यादा है।

ऐसे में भले ही यह अध्ययन स्पेन में बच्चों पर किया गया है, लेकिन इसके नतीजे दर्शाते हैं कि वायु प्रदूषण भारत जैसे देशों में भी बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रहा है, जो कहीं न कहीं उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बना रहा है। ऐसे में देश में बढ़ते प्रदूषण की समस्या को जल्द से जल्द हल करना न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के नजरिए से भी बेहद महत्वपूर्ण है।

भारत में वायु प्रदूषण से सम्बंधित ताजा जानकारी आप डाउन टू अर्थ के एयर क्वालिटी ट्रैकर से प्राप्त कर सकते हैं।