प्रदूषण

कठघरे में सांसें: भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक

भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने की जद्दोजेहद से जूझ रहे एडवोकेट विभूति झा की लिखी इस किताब का संपादन राजेश बादल और वन्या झा ने किया है

Rakesh Kumar Malviya

भोपाल गैस कांड पर पिछले चालीस सालों में काफी कुछ लिखा गया है। अलग-अलग शैलियों में रचा गया है। पिछले साल हमने ‘द रेलवेमैन’ सीरिज के जरिए एक अलग एंगल से इसको दोबारा देखा। तमाम रचनाकार यहां आए, देखा—समझा और जैसा दर्द को महसूस किया, वह हम सभी के सामने आता ही रहा है।

पर पिछले दिनों जब एक "किताब कठघरे में" सांसे का विमोचन कार्यक्रम हुआ और जिस तरह से हुआ कि लोगों को बैठने की जगह नहीं मिली और कुछ लोगों ने तो पूरे कार्यक्रम को खड़े होकर ही सुना, उससे इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि जो किताब है और उसको लिखने वाला है, उसका योगदान भोपाल गैस कांड के पूरे फलसफे में कुछ जुदा है, कुछ अलग है।

मैं बात कर रहा हूं वकील विभूति झा की। वह वकील जिसकी पीड़ितों के प्रति संवेदना, खूनी कारखाने के प्रति रंज, सरकार से सवाल, शहर और शहरवासियों से प्रेम और अपने प्रोफेशन के प्रति समर्पण ने ऐसा अद्भुत साम्य स्थापित किया, जिससे 17 दिसम्बर 1987 को भोपाल जिला न्यायालय के सामने लोगों ने सम्मानवश विभूति झा जिंदाबाद के नारे लगाने को उत्साहित कर दिया।

यह वह पहली बड़ी जीत थी, जिसके लिए भोपाल के गैस पीड़ित संघर्ष कर रहे थे। उनके हिस्से में 350 करोड़ रुपए की मुआवजा राशि का आदेश दिया गया था, हालांकि इसे बाद में हाईकोर्ट ने 250 करोड़ रुपए कर दिया, फिर भी यह पहली बड़ी जीत थी। इस जीत ने विभूति झा को भोपाल गैस त्रासदी के एक नायक के रूप में स्थापित कर दिया ( हालाँकि वो इस तरह के महिमा मंडन के खिलाफ दिखते हैं)।

मामला केवल अदालत भर का नहीं है एक संवेदी नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी को मानते हुए तमाम खतरों को उठाकर उन्होंने गैस रिसने के के कुछ घंटों बाद ही अपने कदम उन बस्तियों की ओर बढ़ा दिए थे। किताब में उन दिनों का लेखा जोखा मिलता है। २००७ में उन्होंने वकालत छोड़कर अपने कदम सुदूर अंचलों में बढ़ाए और फिर जब एक बार फिर लौटे तो सवाल वाही मौजूं थे।

चालीस साल बाद भी जब भोपाल गैस कांड का कचरा अपनी किसी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंच पाया है और पीथमपुर में पड़ा—पड़ा खुद को जलने की राह देख रहा है, तब इस किताब का आना जैसे एक ऐसे दस्तावेज का पहुंचना है जो सबसे ज्यादा भरोसेमंद और सच के करीब है, क्योंकि उसे लेखक ने खुद जिया है, बल्कि यहां भुगता है भी लिखा जा सकता है।

एक पीड़ित जब खुद इस तरह के दस्तावेज को तैयार करता है तो वह एकदम कहानी बनकर हमारी आंखों के सामने तैरता है। और जैसा कि इस किताब के विमोचन कार्यक्रम में प्रख्यात आलोचक विजय बहादुर सिंह ने कहा भी कि यह किताब लेखक बनने का जतन नहीं है। इसलिए यह जो लिखा गया है वह बहुत महत्वपूर्ण है।

किताब गैस कांड के वक्त शुरू होती है और उन तमाम पेंचीदगियों, षड्यंत्रों, संघर्षों, बनने और टूटने को परत दर परत बड़ी साफगोई से सामने लाती है। भोपाल शहर को गैसकांड के प्रतिनिधि वकील विभूति झा का एक बार फिर शुक्रिया और जिंदाबाद करना चाहिए जिन्होंने इस किताब को तैयार करके उसके संघर्ष का दस्तावेजीकरण तैयार कर दिया।

हालांकि लेखक सहित तमाम लोगों को आज भी इस बात का रंज है कि इतनी बड़े कांड के अपराधियों को उनके अपराध की सजा हम नहीं दिलवा पाए, ​बल्कि कचरे तक का ठीक—ठाक निपटारा नहीं हो सका है। अब भी जो कचरा ले जाया गया है, वह कुल कचरे का एक प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है, ऐसा तमाम संगठनों का आरोप है। पीड़ितों की चौथी पीढ़ी आज भी इसका दंश भुगत रहीं है, पर भोपाल गैस कांड बस एक घंटे की श्रद्धांजलि और पूरे दिन की छुट्टी का नाम भर है।

किताब अच्छी बन पड़ी है, यह समझना चाहिए कि बहुत जरूरी बातों को ही सामने लाया गया होगा, बहुत सारी बातें, किस्से, कहानी लेखक के मन में जरूर होंगी। और यदि उन्हें कोई ‘द रेलवेमैन’ की तरह ही वेब सीरिज/फिल्म के लिए तैयार कर ले तो वो निराश नहीं होगा।

किताब की प्रिंटिंग अच्छी है, कवर पेज और काम करने की गुंजाइश हो सकती थी, हालाँकि यह प्रकाशक और संपादक का अधिकार है, उसी तरह अन्दर बहुत अच्छे फोटोग्राफ जुटाने पर सफलता प्राप्त कर ली गयी है, पर उनका प्रस्तुतीकरण और बेहतर किया जा सकता था।   

पेज: 193

प्रकाशक: प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग इंडिया