प्रदूषण

तय मानकों से अधिक पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं 50 फीसदी थर्मल पावर प्लांट: सीएसई

2017 से पहले के थर्मल प्लांट को 3.5 क्यूबिक मीटर प्रति मेगावाट और 2017 के बाद के प्लांट को 3 क्यूबिक मीटर पानी की खपत करने की छूट है

Lalit Maurya

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में थर्मल पॉवर प्लांट पर जारी एक नई सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में मौजूदा 50 फीसदी थर्मल पावर प्लांट, 2015 के जल उपयोग सम्बन्धी मानदंडों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन कर रहे हैं। गौरतलब है कि सीएसई ने देश में कुल 154 गीगावाट उत्पादन क्षमता के थर्मल पॉवर प्लांट का सर्वेक्षण किया था जिनमें से करीब 50 फीसदी जल उपयोग सम्बन्धी नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि इनमें से ज्यादातर पावर प्लांट सरकारी कंपनियों के हैं।

वाटर इनएफ्फिसिएंट पॉवर नामक इस रिपोर्ट से पता चला है कि जल की खपत सम्बन्धी मानदंडों को लागु हुए छह वर्ष हो चुके हैं इसके बावजूद कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी भी जल संबंधी नियमों की अनदेखी कर रहे हैं।

यह इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि यह उद्योग भारत में सबसे ज्यादा साफ पानी की खपत कर रहा है। देश में उद्योगों द्वारा जितने साफ पानी की खपत की जाती है, उसके करीब 70 फीसदी के लिए यह अकेला उद्योग ही जिम्मेवार है। यदि देश में कूलिंग टावर्स वाले बिजली संयंत्रों दो देखें तो वो अन्य देशों की तुलना में करीब दोगुने पानी की खपत करते हैं।

यदि 2015 में जल उपयोग सम्बन्धी मानदंडों (जिन्हें 2018 में फिर से संशोधित किया गया था) को देखें तो उनके अनुसार 1 जनवरी, 2017 से पहले स्थापित संयंत्रों के लिए प्रति मेगावाट 3.5 क्यूबिक मीटर पानी की खपत सीमा को निर्धारित किया गया था। वहीं 1 जनवरी, 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों के लिए यह सीमा 3 क्यूबिक मीटर है। साथ ही उन्हें जीरो लिक्विड डिस्चार्ज (शून्य तरल निर्वहन) नीति को भी अपनाना जरुरी है।

इसके अतिरिक्त साफ पानी का उपयोग करने वाले संयंत्रों को कूलिंग टावर्स स्थापित करने के बाद इस सीमा में प्रति मेगावाट 3.5 क्यूबिक मीटर पानी के उपयोग की छूट दी गई थी। हालांकि समुद्री जल का उपयोग करने वाले थर्मल पावर प्लांटस के लिए इन नियमों को मानना अनिवार्य नहीं था।

इन जल सम्बन्धी मानदंडों को पूरा करने की समय सीमा दिसंबर 2017 थी, जिसे गुजरे हुए लम्बा समय बीत चुका है। कोयला बिजली संयंत्रों के लिए जल सम्बन्धी मानदंड, 2015 में उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों के साथ ही पेश किए गए थे। हालांकि इस क्षेत्र के लिए उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों की समयसीमा को मंत्रालय द्वारा दो बार एक बार 2017 में और हाल ही में 2021 में दोबारा संशोधित किया जा चुका है, जबकि जल सम्बन्धी मानदंडों के अनुपालन और कार्यान्वयन के मुद्दे को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है।

इस बारे में सीएसई के औद्योगिक प्रदूषण इकाई के कार्यक्रम निदेशक निवित कुमार यादव ने बताया कि, "यह तब है जब देश के कई बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, बिजली संयंत्रों के अपशिष्ट निर्वहन के कारण भी भारी मात्रा में जल प्रदूषित होता है।"

पहले ही जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में हैं 48 फीसदी संयंत्र

रिपोर्ट के अनुसार नियमों की अनदेखी करने वाले सबसे ज्यादा संयंत्र महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में हैं। महाजेनको और यूपीआरवीयूएनएल से संबंधित इनमें से अधिकांश संयंत्र काफी पुराने हैं, जो आज भी पुरानी तकनीकों पर आधारित है जिससे काफी पानी की बर्बादी होती है। सीएसई द्वारा किए सर्वेक्षण में पाया गया है कि यह पुराने सयंत्र आज भी बिना कूलिंग टावरों के काम कर रहे हैं। देश में यह संयंत्र न केवल जल बल्कि उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों का भी उल्लंघन कर रहे हैं।

1999 से पहले देश में निर्मित सभी वन्स-थ्रू आधारित बिजली संयंत्र अब पुराने हो चुके हैं जो प्रदूषण फैला रहे हैं। इनमें से कई संयंत्र को तो रिटायर किया जाना था हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। वे संयंत्र बिना किसी उत्सर्जन नियंत्रण उपकरणों या कूलिंग टावरों को स्थापित या अपग्रेड करने की योजना के बिना भी आज बेरोकटोक चल रहे हैं।

सीएसई में औद्योगिक प्रदूषण इकाई से जुड़ी सुगंधा अरोड़ा के अनुसार इन पुराने संयंत्रों को प्रदूषण फैलाने देना को विकल्प नहीं हो सकता। यदि रिटायर किए जाने वाले इन संयंत्रों के पास उत्सर्जन नियंत्रण प्रौद्योगिकियों को अपनाने और कूलिंग टावरों को लगाने या अपग्रेड करने की कोई योजना नहीं है तो इन्हें तुरंत बंद कर देना चाहिए।

समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, सीएसई द्वारा हाल में जारी अनुमानों के अनुसार भारत में करीब 48 फीसदी थर्मल पावर प्लांट महाराष्ट्र के नागपुर और चंद्रपुर, कर्नाटक में रायचूर, छत्तीसगढ़ में कोरबा, राजस्थान में बाड़मेर और बारां, तेलंगाना में खम्मम और कोठागुडेम; और तमिलनाडु में कुड्डालोर जैसे जिलों में स्थित हैं, जो पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। यही नहीं देश में कई जगह उद्योगों और स्थानीय लोगों के बीच पानी के उपयोग को लेकर टकराव की खबरें भी सामने आई हैं।

आंकड़ों में भी की जाती है हेरा-फेरी

सीएसई सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि अपनी जल खपत सम्बन्धी आंकड़ों को साझा करने के लिए राज्यों में जिन आंकड़ों और उनके प्रारूपों का उपयोग किया जा रहा हैं उनमें कई खामियां हैं। यह भी पता चला है कि कई संयंत्र अपनी पर्यावरण रिपोर्ट में जो जल खपत सम्बन्धी जानकारी अधिकारियों को देते हैं वो या तो कम करके या फिर गलत दी जाती है।

यही नहीं इन संयंत्रों द्वारा जल की खपत सम्बन्धी जो आंकड़ें साझा किए जाते हैं, उनके आधार पर ही हर साल पानी के हिसाब किताब का ऑडिट किया जाता है जबकि उसकी किसी तीसरे पक्ष द्वारा निगरानी और सत्यापन नहीं किया जाता है। ऐसे में यह कितने विश्वसनीय हैं आप इसका अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं।

यादव बताते हैं कि इस क्षेत्र का जल उपयोग बहुत ज्यादा है ऐसे में जल पर इसके बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सभी जरुरी प्रयास किए जाने चाहिए। इस क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को कम करने की काफी गुंजाइश हैं। इसके लिए जरुरी है कि 2015 के मानकों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आंकड़ों की सही जानकारी भी जरुरी है।

साथ ही पुराने और अकुशल वन-थ्रू कूलिंग प्लांट और नए संयंत्रों में जीरो लिक्विड डिस्चार्ज जैसे उपायों पर ध्यान देना भी जरुरी है। इससे   जुड़ी चुनौतियों का समाधान करके क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को सीमित किया जा सकता है। यदि मानकों को सख्ती से लागु किया जाता है तो इससे क्षेत्र की जल सम्बन्धी कुल खपत को काफी कम किया जा सकता है। इससे भारत में मौजूदा थर्मल पॉवर प्लांट, जल उपयोग के मामले में कहीं ज्यादा बेहतर बन जाएंगें।