अरब सागर के गर्म होने से बादलों के बनने में इजाफा हो रहा है, जिससे केरल में कम समय में भयंकर बारिश हो रही है और इसके कारण भूस्खलन की आशंका बढ़ गई है। फोटो: पीआरओ डिफेंस कोच्चि @डिफेंसपीआरओकोच्चि / एक्स
आपदा

क्यों होता है भूस्खलन और क्या समय रहते चल सकता है पता ?

Vivek Mishra

केरल के वायनाड में लैंडस्लाइड से अब तक 360 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और 200 से अधिक घायल हैं। अब भी रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है और क्षत-विक्षत शव मिल रहे हैं। ऐसे जानलेवा लैंडस्लाइड हिमालय से लेकर केरल तक लगातार हो रहे हैं। इनकी वजह क्या है और लैंडस्लाइड क्या होते हैं? एक्सपर्ट से की गई बातचीत ...

क्यों होता है लैंडस्लाइड

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी से अवकाश प्राप्त और वर्तमान में सिक्किम यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर विक्रम गुप्ता लैंडस्लाइड एक्सपर्ट हैं, वह बताते हैं कि लैंडस्लाइड बहुत ही प्राकृतिक प्रक्रिया है। कोई भी लैंडस्केप या पर्वत जब विकसित होता है तो लैंडमास मूव करता है, पर्वत भी ऐसे ही बना और पृथ्वी भी। कोई भी स्टेट ऑफ मैटर हाई एनर्जी पर होता है तो लो एनर्जी पर आने की कोशिश करता है, जिसके कारण लैंडस्लाइड होता है। अभी तक हमारे स्लोप्स लगभग स्टेबल थे, लेकिन पिछले 10 सालों से एक्सट्रीम वेदर इवेंट बहुत ज्यादा हो रहे हैं। इस वजह से स्लोप्स अपनी स्टेबिलिटी पाने के लिए मूव हो रहे हैं। हिमालय हो या किसी भी रीजन में यह एक जैसा व्यवहार कर रहे हैं। 

उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित जीबी पंत इंस्टीट्यूट में सेंटर फॉर इनवायरमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज सेंटर के अध्यक्ष जेसी कुनियाल डाउन टू अर्थ से कहते हैं " तीव्र ढलान से कोई लैंडमास जब ऊपर से नीचे की ओर खिसक जाता है तो इसे लैंडस्लिप कहते हैं, यह सूक्ष्म स्तर पर होता लेकिन जब यह वृहत्तर रूप पर होता है तो लैंडस्लाइड कहलाता है। मिसाल के तौर पर कम से कम 10 स्क्वायर मीटर लैंड प्रभावित हो जाए तो यह लैंडस्लाइड की श्रेणी में आ जाता है। 

वह बताते हैं "ऐसा क्षेत्र जहां नीचे सॉलिड रॉक कम होती है और उस पर ढीली मिट्टी होती है साथ ही उस पर वनस्पति (पेड़ या घास) कम होती है वहां पर जब पानी तीव्रता के साथ आता है तो वह ग्राउंड में रिसने के बजाए धरातल पर ही बहने लगता है। ऐसे में एक फोर्स बनता है और वहां की लैंड अपस्लोप से डाउनस्लोप की तरफ स्लिप होती है। यही लैंडस्लाइड का रूप लेता है।"

जियोलॉजी है कांस्टेंट लेकिन जलवायु परिवर्तन में तेजी

डॉ विक्रम गुप्ता बताते हैं लैंडस्लाइड के दो ही ट्रिगर हैं, पहला भूकंप और दूसरी वर्षा। इसके अलावा जियोलॉजी कांस्टेंट है। इसमें चेंज नहीं हो रहा है। मिट्टी का प्रकार भी नहीं बदल रहा है। जो बदलाव हो रहा है वह है जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप में। यह दोनों चीजें आज बहुत ज्यादा है इसीलिए उत्तराखंड, हिमाचल हो सिक्किम हों या फिर केरल हो सभी जगह लैंडस्लाइड हो रहा है। इन सभी जगहों पर लैंडस्लाइड चरम वर्षा तो कारण है ही इसके अलावा चारधाम परियोजना जैसी योजनाएं भी सड़क आपदाएं पैदा कर रही हैं। यदि केरल की बात करें तो वहां  चरम वर्षा प्रमुख कारण हैं। वहीं, हिमालयी क्षेत्र में भूकंप भी कारण है लेकिन बीते वर्षों में ज्यादा कारण चरम वर्षा ही रही है। 

जीबी पंत इंस्टीट्यूट में सेंटर फॉर इनवायरमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज सेंटर के अध्यक्ष जेसी कुनियाल अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि लैंडस्लाइड के घटित होने में इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है हाई एल्टीट्यूड। चाहे हिमालयी क्षेत्र हो या फिर दक्षिण के क्षेत्र। मिसाल के तौर पर वायनाड में भी कम से कम 2000 मीटर तक ऊंचाई वाले क्षेत्र मिल जाएंगे। इतनी ऊंचाई वाले स्थानों पर पर्यटन, मानवीय गतिविधियां, निर्माण लैंडस्लाइड को बढाने का कारक बनते हैं। इसके अलावा चरम मौसमी घटनाएं इसमें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। 

हिमालयी क्षेत्र में परतदार पठार है इसका मतलब है कि यहां मिट्टी लूज है और दक्कन के पठार की मिट्टी लावा और मैग्मा से बनी है, जिसे कॉटन सॉयल कहते हैं, वह भी लूज है। हालांकि, दक्कन पठार की पैरेंट रॉक हिमालय की तुलना में काफी सॉलिड है। यदि ऊंचाई है और वेजिटेशन में कमी है और मिट्टी लूज है तो यह स्थिति दोनों जगह लैंडस्लाइड के लिए बनती है।  

अर्ली वार्निंग सिस्टम की चुनौती

लैंडस्लाइड एक्सपर्ट डॉ विक्रम गुप्ता के मुताबिक हर लैंडस्लाइड का व्यवहार बिल्कुल अलग-अलग होता है, इसका कारण यह है कि हर स्लोप एक दूसरे से बिल्कुल अलग होते हैं। लैंडस्लाइड की फोरकास्टिंग में चुनौती यह है कि उसे हम समय रहते पता कर सकते हैं लेकिन वह साइट स्पेसिफिक हो सकते हैं। क्योंकि लैंडस्लाइड अर्ली वार्निंग सिस्टम जिस साइट पर लगाई जाएगी वह हमें वहीं की जानकारी देगी। यदि कुछ ऐसी जगह हैं जहां आबादी है और लैंडस्लाइड का खतरा है वहां ये अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाए जा सकते हैं लेकिन समस्या यह है कि इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए और काफी पैसा चाहिए। एक अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाने से सारी लैंडस्लाइड की पहचान नहीं की जा सकती है। 

कुछ अर्ली वार्निंग सिस्टम सेंसर बेस्ड होते हैं जो रोजाना लैंडस्लाइड की गति का अंदाजा लगाते हैं और इनकी एक्यूरेसी काफी अच्छी होती है, लेकिन देश में लैंडस्लाइड की पहचान के लिए जो अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाए गए हैं वह पूरी तरह से वर्षा के आधार पर ही लैंडस्लाइड का एक सामान्य अंदाजा देता है। इसमें हम यह नहीं बता सकते हैं कि कौन सा स्लोप पर लैंडस्लाइड होगा। 

कई ऑर्गेनाइजेशन ने देश में सेंसर बेस्ड अर्लीवार्निंग सिस्टम लगाए हैं लेकिन वह जहां लगाए गए हैं वह साइट पहले से ही ज्ञात लैंडस्लाइड वाले स्थान हैं। जोखिम वाले स्थानों पर यदि सेंसर बेस्ड अर्लीवार्निंग सिस्टम लगाए जाएं तो शायद यह बेहतर हों।