”पानी (बाढ़) आना हमारे गांव में आम बात है। लेकिन इतना पानी, वो भी अक्टूबर में। कुछ समझ नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है जैसे पानी गांव में नहीं जिंदगी में आया है।”
केशव कुमार का घर सुपौल जिला और मधुबनी जिला के सीमा पर स्थित है। नवंबर महीने में केशव की बहन की शादी होने वाली थी। केशव समझ नहीं पा रहे हैं कि आगे क्या होगा?
वहीं आशा देवी के पति दिल्ली में नौकरी करते हैं। वह अपने दो बच्चों के साथ बाढ़ग्रस्त गांव में हैं। घर में मवेशी भी हैं। सबके लिए कुछ न कुछ का इंतजाम आशा देवी के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा है।
पलायन का दंश झेल रहे बिहार के बाढ़ ग्रस्त इलाकों में रह रही आशा देवी जैसी हजारों महिलाओं के लिए ये दिन बड़ी मुसीबत भरे हैं। क्योंकि राहत सामग्री की गाड़ी से सामान लेने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। मतलब जो जितना ताकतवर वो उतना राहत की सामान ले लेता है।
सुपौल शहर से 15 से 20 की मिनट की दूरी पर स्थित बैरिया बांध के रास्ते में मुख्य सड़क बाढ़ पीड़ितों का पनाहगार बना हुआ है। कई लोग सरकार के बने राहत शिविर में भी रुके हुए हैं तो कई लोग पन्नी टांग कर खुले आसमान के नीचे रहने को भी मजबूर हैं।
राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक बिहार में कुल 38 जिले में 16 जिलों के लोग बाढ़ से जंग लड़ रहे हैं। कई जगहों पर नदियों के तटबंध टूट गए हैं। नेपाल में भारी बारिश के बीच 29 सितंबर को कोसी बैराज पर 6,61,295 क्यूसेक और वाल्मीकि नगर गंडक बैराज पर 5,62,500 क्यूसेक पानी छोड़ा गया था। जल संसाधन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक ये अक्टूबर 1968 के बाद कोसी बैराज पर हुआ सबसे ज्यादा डिस्चार्ज है।
दरअसल, बिहार के लिए बाढ़ हर साल की दास्तान है, लेकिन बाढ़ प्रबंधन को लेकर सरकारें फेल रही हैं। 1953-54 में बाढ़ को रोकने के लिए कोसी परियोजना शुरू की गई थी,तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि अगले 15 सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर काबू पा लिया जाएगा।
लेकिन इतने सालों बाद भी बिहार लगभग हर साल बाढ़ की विभीषिका झेल रहा है। हर साल बाढ को झेलने वाले लोग खुल कर कहते हैं कि बिहार में बाढ़ एक घोटाला है, जिसमें नेता और अधिकारी का खजाना मजबूत होता है। इसबार भी बाढ़ के बाद भी केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को राहत और बचाव के लिए 655 करोड़ रुपये की राशि जारी की गई है।
कोसी परियोजना में काम कर चुके इंजीनियर अमोद कुमार झा बताते हैं कि, “गाद या सिल्ट की सफाई से भी बाढ़ को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। गाद या सिल्ट की समस्या हिमालय नेपाल से आने वाली नदियों के साथ है। पहले सिल्ट का प्रयोग स्थानीय लोग घर बनाने में करते थे। सरकार उस सिल्ट को भी बेचने लगी, ऐसे में उसका निकलना भी कम हुआ इसके साथ सरकार भी नदी की सफाई नहीं कराती है।"
झा बताते हैं कि भारत नेपाल का संबंध भी कई वजह से रोड़ा बनता है। अनियोजित और अनियंत्रित विकास के चलते हमने पानी की निकासी के अधिकांश रास्ते बंद कर दिए हैं। ऐसे में बारिश कम हो या ज्यादा, पानी आखिर जाएगा कहां? 2002 में नदियों को जोड़ने की बात कही गई, दावा किया गया कि इससे बाढ़ के प्रभाव को रोकने में मदद मिलेगी, लेकिन 18 साल बाद भी अभी तक एक भी नदी को नहीं जोड़ा गया।” हालांकि नदी जोड़ परियोजना को कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रकृति से खिलवाड़ बताया हैं।
बिहार में बाढ़ और नदियों पर लंबे समय से काम कर रहे प्रोफेसर दिनेश कुमार मिश्रा बताते हैं कि, “नदी को बांध कर नहीं रख सकते,तटबंध, बांध, बैराज बनाकर नदियों के दायरे को सीमित कर दिया गया है। जिससे फायदे के बजाए केवल नुकसान हुआ। बाढ़ से पहले उतना नुकसान नहीं होता था, जितना आज होता है। इसके लिए सरकार का कुप्रबंधन और गलत नीतियां जिम्मेदार हैं।”
क्यों नहीं बनती देश में चर्चा का विषय
सुपौल जिला के लक्ष्मीनिया पंचायत की रहने वाली रितिका बेंगलुरु की एक आईटी सेक्टर कंपनी में नौकरी करती है। वह बताती हैं कि,” कंपनी में हमारी टीम में लगभग सभी राज्य के लोग नौकरी करते हैं। इस वजह से राजनीति पर भी काफी बात होती है। आपको ताज्जुब होगा कि बिहार में इतनी बड़ी बाढ़ की खबर इनके लिए मात्र सूचना भर है। अधिकांश लोगों ने सुनकर यही कहा कि, बिहार में होता रहता है।”
भागलपुर जिला स्थित भ्रमरपुर के रहने वाले आदर्श मिश्रा हैदराबाद में नौकरी करते है। आदर्श फोन पर बताते हैं कि, “अन्य राज्य में आए आपदा का जिक्र जितना होता है उतना बिहार का नहीं होता है।”
बिहार के बाढ़ पीड़ितों को बाहर से समर्थन व सहयोग भी नहीं मिल पा रहा है। मिथिला स्टूडेंट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष आदित्य मोहन बताते हैं कि कई लोग हमारी मदद कर रहे है। जिसमें सभी बिहार के ही हैं। बाहर से कोई मदद नहीं मिल पा रही है। सहरसा में बाढ़ पीड़ित के लिए काम कर रही एक संस्था के साथ जुड़े गौरव कुमार भी हैं कि हमारी टीम ने फेसबुक और सोशल मीडिया के अन्य साइट पर मदद की गुहार लगाई थी। बहुत कम लोगों ने मदद की।
बिहार के प्रसिद्ध ब्लॉगर और प्रोफेसर की नौकरी कर चुकी रंजन ऋतुराज बताते हैं कि बिहार की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्ति चंद लोगों के हाथ सिमट के रह गई है। जनता बाढ़ से पीड़ित हैं और नेता व अफसर करोड़ों रुपए की जमीन जायदाद खरीद रहे हैं।
अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली से कोसी रिवर फ्लड पॉलिसी पर शोध कर चुके राहुल यादुका कोसी नवनिर्माण मंच से जुड़े हैं। वह बताते हैं कि आदतन, राजनेता और पदाधिकारी बाढ़ आने के बाद ये राग अलापने लगे कि ये प्राकृतिक आपदा है। इतनी बारिश के लिए कोई तैयार नहीं था। ये सरकार का परंपरागत रवैया है जिसके माध्यम से ये अपने विकास के मॉडल से उपजी आपदाओं को प्रकृति पर मढ़ने की कोशिश करते हैं।