आपदा

क्या है बिहार की सालाना बाढ़ का समाधान?

1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो

Pushya Mitra

बिहार राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा 23 जुलाई को जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल 18 जून से अब तक 16.61 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हो चुके हैं। 11 जिलों के 388 पंचायतों में बाढ़ की स्थिति है। 1.10 लाख लोगों को सुरक्षित निकाला जा चुका है, यानी ये बेघर हो चुके हैं। अगर इन आंकड़ों के हिसाब से सोचें तो बिहार में बाढ़ की स्थिति काफी गंभीर है, मगर विभाग ऐसा नहीं मानता। क्योंकि बिहार में अमूमन हर साल इससे अधिक बुरी स्थिति रहती है। अगर आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों पर ही गौर किया जाये तो हर साल बिहार में बाढ़ की वजह से 75 लाख लोग प्रभावित होते हैं। औसतन 18-19 जिलों में बाढ़ की स्थिति बनती है।

देश के कुल बाढ़ प्रभावित इलाकों में से 16.5 प्रतिशत क्षेत्रफल बिहार का है और कुल बाढ़ पीड़ित आबादी में 22.1 फीसदी बिहार में रहती है। राज्य के 38 में से 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं। 1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो। इस बाढ़ की वजह से बिहार में हर साल औसतन 200 इंसानों और 662 पशुओं की मौत होती है और तीन अरब सालाना का नुकसान होता है। राज्य सरकार बाढ़ सुरक्षा के नाम पर हर साल औसतन 600 करोड़ रुपये खर्च करती है और बाढ़ आने के बाद राहत अभियान में अमूमन दो हजार रुपये से अधिक की राशि खर्च होती है।

आखिर इसका समाधान क्या है, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उन पांच जानकारों से बातचीत की जो इस संकट को समझते हैं। 

आजादी के बाद से बिहार की बाढ़ और सूखे का सालाना विस्तृत इतिहास लिख रहे उत्तर बिहार की नदियों के विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, समाधान ढूंढना सरकार का काम है, जिनके पास सैकड़ों इंजीनियरों की टोली है। हमलोग सिर्फ यही कह सकते हैं कि आजादी के बाद से बाढ़ का समाधान निकालने के लिए जो नीति अपनाई गयी वह गलत साबित हो रही है। अभी सरकार नदियों के किनारे तटबंध बनाकर इसका समाधान करने की कोशिश करती है। मगर आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद से जैसे-जैसे तटंध बढ़े बिहार के बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का दायरा भी बढ़ता चला गया। आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किमी थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीड़ित था। अब जब तटबंधों की लंबाई 3731 किमी हो गया है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी इलाज गलत है।

उत्तर बिहार की बाढ़ पर लगातार नजर रखने और बागमती नदी पर बन रहे तटबंध के विरोध में आंदोलन की अगुआई करने वाले अनिल प्रकाश कहते हैं, यह हमारा इलाका तो फ्लड प्लेन है ही। पंजाब से लेकर बंगाल तक हिमालय की तराई में बसा इलाका बाढ़ के साथ लाई मिट्टी से ही बना है, इसलिए सबसे पहले हमें इसे आपदा मानना बंद कर देना चाहिए। अगर ये आपदा होती तो इस पूरे इलाके में इतनी घनी आबादी नहीं होती। सीतामढ़ी जिले का उदाहरण लें, जहां हर साल बाढ़ आती है, मगर वहां आबादी का घनत्व 1500 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। जबकि देश की आबादी का धनत्व औसतन 462 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अगर हमें अब भी इस संकट से बचना है तो बाढ़ के साथ जीने की कला को फिर से अपनाना पड़ेगा। सारे निर्माण इस तरह हों कि नदियों को बाढ़ के दिनों में बहने का सहज रास्ता मिल जाये। जहां बाढ़ का पानी सड़क को तोड़े, वहां पुल बने और हर गांव में ऐसी ऊंची जगह बने, जहां लोग बाढ़ के दिनों में रह सकें।

नदियों के मुक्त प्रवाह के लिए संघर्ष कर रहे रणजीव भी कहते हैं, अगर सचमुच हम बाढ़ की आपदा से मुक्ति चाहते हैं तो हमें प्राकृतिक नदी तंत्र को फिर से जिंदा करना होगा। तथाकथित विकास के हस्तक्षेप ने नदी को रिसोर्स मान लिया है और उसे गटर में बदल दिया है। वे कहते हैं कि हिमालय से उतरने वाली नदी को समुद्र तक पहुंचाने के लिए गंगा नदी का विकास हुआ था। आज भी उसे 37 नदियां मिलती हैं। मगर हमने तटबंधन, सड़क, पुल-पुलिये और रेलवे का गलत तरीके से निर्माण कर उसके रास्ते को बाधित किया है। इसके अलावा नदियों के पेट में अवैध निर्माण हो रहा है। सीतामढ़ी में तो कलेक्टरियेट भी लखनदेई नदी के पेट में बना दिया गया है। यह अवैज्ञानिक विकास ही बाढ़ के आफत में बदलने की वजह है।

 वहीं, बिहार के जलसंसाधन विभाग के पूर्व सचिव गजानन मिश्र कहते हैं कि हिमालयी नदियों की मुख्य समस्या यह है कि यह अपने साथ बड़े पैमाने पर सिल्ट लाती है। बारिश के चार महीने में अत्यधिक जल लाती है, जो उसके द्वारा पूरे साल में लाये गये पानी का लगभग 90 फीसदी होता है और इस पानी की गति काफी तेज होती है। इस तेज गति को मिट्टी का तटबंध झेल नहीं सकता और नदियां इतना सिल्ट लाती है कि उसकी पेटी लगातार भरती रहती है। मगर इसके बावजूद महज डेढ़ दो दशक पहले तक नदी की अपनी प्राकृतिक व्यवस्था ऐसी थी कि बाढ़ आपदा की तरह नहीं लगती। 1870-75 के पहले के किसी रिकार्ड में बाढ़ का जिक्र आपदा के रूप में नहीं मिलता। 1890 में पहली दफा बाढ़ की आपदा का जिक्र मिलता है, जब इस इलाके में रेलवे के निर्माण की वजह से इन नदियों की राह में जगह-जगह अवरोध खड़े होने लगते हैं। फिर सड़कें बनती हैं, जो अमूमन उत्तर से दक्षिण की दिशा में बहने वाली धाराओं को जगह-जगह काटती हुई पूरब से पश्चिम की दिशा में बनती हैं। फिर सरकार बाढ़ नियंत्रण के नाम पर तटबंधों की नीति को अपनाती है, जिसका अंजाम हम देख चुके हैं।

अब अगर बाढ़ की आपदा से बचना है और हिमालय से आ रहे पानी और मिट्टी का सदुपयोग करना है तो नदियों को उसकी धाराओं और चौरों से जोड़ना होगा। अब इसमें इंजीनियर चाहें तो किसी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं। यही सटीक समाधान हो सकता है।

 बिहार में बाढ़ की बात जब होती है तो सबसे अधिक कोसी नदी की बात होती है, मगर हाल के वर्षों में गंडक-बूढ़ी गंडक और महानंदा के बेसिन में बाढ़ ने अधिक तबाही मचाई है। उस बेसिन में मसान और पंडई जैसी नदियों में साल में कई-कई बार बाढ़ आ जाती है। इन दिनों चंपारण के इलाके में बाढ़ के संकट को नजदीक से देख रहे मेघ पईन अभियान के संयोजक एकलव्य प्रसाद कहते हैं कि सबसे पहले तो हमें बाढ़ को एक सामान्य नजरिये से देखना बंद करना होगा। कोसी की बाढ़ अलग है और मसान और पंडई की बाढ़ अलग। हर नदी के बेसिन का अलग से अध्ययन करना और उसके लिए वहां के लोगों की राय के हिसाब से समाधान निकालना होगी।

वे कहते हैं कि बाढ़ तो आएगी ही और उसे न रोक सकते हैं, न ही रोकना उचित होगा। मगर हम उसके संकट को घटा सकते हैं और इसके लिए हमें अलग-अलग इलाके के सवाल को वहां जाकर, वहां के लोगों से बातकर समझना होगा, तभी समाधान निकलेगा। वे भी बाढ़ के साथ जीने की कला विकसित करने की बात कहते हैं और मानते हैं कि फ्लड रिजिलियेंस हैबिटाट तैयार करने का उपाय सुझाते हैं।

कुल मिलाकर सभी जानकार मानते हैं कि बाढ़ पहले आपदा नहीं थी। पिछले डेढ़ दशकों में हुए अवैज्ञानिक निर्माण, बाढ़ नियंत्रण के अवैज्ञानिक तरीके और नदियों के रास्ते में उत्पन्न अवरोधों ने इस बाढ़ को भीषण आपदा में बदल दिया है। अगर बिहार को इस आपदा से उबरना है तो नदियों की राह में से अवरोधों को हटाना पड़ेगा, बारिश के दिनों में भी उसे प्राकृतिक रूप से बहने और गंगा से मिलने का रास्ता देना होता। छोटी नदियों और चौरों को नदियों से फिर से जोड़ना होगा और लोगों को बाढ़ के साथ जीने की कला विकसित करना होगा।