आपदा

ब्लॉग: हिमाचल के युवा संभल गए, उत्तराखंड के कब संभलेंगे

आपदाओं के बाद हिमाचल के युवा अपने इलाकों में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का विरोध कर रहे हैं, लेकिन...

Raju Sajwan

एक बार फिर से उत्तराखंड में तबाही मची। तीन दिन में कितने लोग मारे गए, ठीक-ठीक आंकड़े आने बाकी हैं। अब तक के आंकड़ों के मुताबिक इन तीन दिन में 54 लोग मारे गए हैं। कुल नुकसान कितना हुआ, इसका आकलन जारी है। एक-दो दिन में सरकार आंकड़े जारी कर भी देगी। लेकिन क्या नुकसान को आंकड़ों में गिना जा सकता? शायद नहीं, क्योंकि जिस परिवार का सदस्य चला गया, पशु मर गए, खेत-घर बर्बाद हो गए, उनके लिए ये आंकड़े उनकी जिंदगी भर के दुख के आगे कुछ भी नहीं हैं।

तबाही के क्या कारण हैं, इसको लेकर भी कुछ दिन तक बहस चलेगी। लेकिन सरकार का पक्ष साफ है, यह प्राकृतिक आपदा है। पश्चिमी विक्षोभ बना और भारी बारिश के कारण नुकसान हुआ। बदले में कुछ मुआवजा दे दिया जाएगा। जाहिर है, यह पैसा जनता का ही है।

इन सब पर तो बातें होती रहेंगी, लेकिन मैं यहां जिस बारे में बात कर रहा हूं, वो उत्तराखंड की नहीं, बल्कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश की है। जिस दिन उत्तराखंड में तबाही हुई, उससे ठीक अगले दिन यानी 20 अक्टूबर 2021 को हिमाचल के जिले किन्नौर के युवाओं ने घोषणा की कि वे अपने इलाके में बनने वाले जंगी ठोपन हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के खिलाफ आगामी लोकसभा उपचुनाव में नोटा का बटन दबाएंगे। उपचुनाव 30 अक्टूबर को है।

ये वही युवा हैं, जिन्होंने 7 फरवरी को उत्तराखंड के चमोली आपदा के बाद अब अपने इलाके में "नो मीन्स नो" आंदोलन की शुरुआत की। "नो मीन्स नो" का मतलब है कि बस अब नहीं। यानी उनके इलाके में जितनी हाइड्रो प्रोजेक्ट (जल विद्युत परियोजनाएं) बन चुकी हैं, उसके बाद अब नए प्रोजेक्ट नहीं बनने देंगे। मानसून शुरू होने के बाद जब पूरे हिमाचल में भूस्खलन और दुर्घटनाएं होने लगी तो उनके आंदोलन ने और जोर पकड़ा।

हिमाचल में हो रही दुर्घटनाओं का कारण जानने और इस आंदोलन को कवर करने के लिए डाउन टू अर्थ की ओर से सितंबर 2021 के पहले सप्ताह में मैं हिमाचल प्रदेश गया। जहां इन युवाओं से मुलाकात हुई। उनका उत्साह देखते ही बनता था। ये युवा अच्छे पढ़े लिखे हैं। बल्कि इनमें से ज्यादातर युवाओं ने दूसरे प्रदेशों में जाकर उच्च शिक्षा हासिल की और अपने गांव आकर या खेती कर रहे हैं या व्यवसाय। कुछ नौकरियां भी कर रहे हैं। साथ ही, अपने गांव-क्षेत्र को बचाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। वे कहते हैं कि यह लड़ाई उनके अस्तित्व की लड़ाई है।

उनके आंदोलन का असर यह हुआ कि अब वहां घर-घर के बाहर नो मीन्स नो के पोस्टर लगे हैं। हमने आम महिलाओं से बात की तो उन्होंने भी कहा कि जिन इलाकों में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगे हुए हैं, उनके आसपास के गांवों में हालात ठीक नहीं हैं, इसलिए वे अपने गांव के आसपास हाइड्रो प्रोजेक्ट नहीं बनने देंगे।

बेशक कुछ लोग इस तरह के विरोधों को 'विकास विरोधी' बता कर विकास के वर्तमान मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन ऐसा कहने से पहले एक बार इस इलाके में जरूर हो आइए। जब भी आप हिमाचल जाते हैं तो आप उसकी खूबसूरती से मोहित हो उठते हैं, लेकिन वहां रह रहे लोगों के मन में नहीं झांकते।

यहां मैं एक और गांव में गया, जिसे उरनी कहा जाता है। इस गांव के नीचे से चार टनल गुजर रही हैं। यह गांव सतलुज के दाहिने किनारे पर खड़ी चट्टान के ऊपर बसा है और साल 2009 में सतलुज पर बने हाइड्रो प्रोजेक्ट की ये टनल हैं। यह गांव बर्बादी के कगार पर खड़ा है, जब आप हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को देश की जरूरत बताते हैं तो आपको इस गांव की तरफ भी झांकना चाहिए। मेरी ये विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट्स आप डाउन टू अर्थ की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं।

मैं अब फिर से उत्तराखंड पर आता हूं। तो सोचिए, जिस चमोली आपदा को देखते हुए हिमाचल के युवा आंदोलित हो उठे, क्या उस आपदा ने उत्तराखंड के युवा को आंदोलित किया। जबकि इस आपदा के कुछ समय बाद केंद्र सरकार के तीन मंत्रालयों ने सात हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का काम शुरू करने के निर्देश दे दिए, जिनका काम रुका हुआ था। इनमें 520 मेगावाट क्षमता वाला वह तपोवन प्रोजेक्ट भी शामिल है, जो चमोली हादसे में ढह गया था।

आने वाले दिनों में हो सकता है कि चार धाम मार्ग पर जब आपकी गाड़ी 80 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ेगी तो आप धन्य हो जाएंगे, लेकिन इस मार्ग की वजह से उत्तराखंड का कितना नुकसान हुआ, हो रहा है या आने वाले दिनों में होगा। इसका अंदाजा भी लगाना देशद्रोही या विकास विरोधी माना जा सकता है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि 17 से 20 अक्टूबर 2021 की बारिश से हुए नुकसान की वजह चार धाम मार्ग या हाइड्रो प्रोजेक्ट्स हैं, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि दुनिया के सबसे युवा पहाड़ हिमालय में किसी भी तरह का अवैज्ञानिक निर्माण इसे कमजोर कर रहा है और बारिश या भूकंप की वजह से यहां नुकसान ज्यादा हो रहा है। ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि क्या वाकई इन परियोजनाओं का विरोध करना 'विकास विरोधी' या 'देशद्रोही' कहलाया जाना चाहिए? 

यहां एक बात और है, जो दोनों राज्यों की सरकारों में समान है। वो है जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन हो रहा है, यह सच भी है। लेकिन हर घटना-दुर्घटना का कारण जलवायु परिवर्तन बता कर सरकारें अपना पीछा नहीं छुड़ा सकती। क्योंकि सरकारें जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए भी कुछ नहीं कर रही हैं, इसलिए अब लोगों को ही कुछ करना होगा।