आपदा

पानीदार भारत और सूखे का बढ़ता संकट

मॉनसून की शुरुआत के बाद सूखे की चर्चा अटपटा जरूर है, पर जलवायु परिवर्तन के दौर में बिगड़ता मॉनसून का स्वरूप सूखे के दायरे और तीव्रता को और बढ़ा रहा है

Kushagra Rajendra, Vineeta Parmar

भू-संसाधन जैसे उपजाऊ मिट्टी, पानी, जंगल, पेड़-पौधे और जीव-जंतु हमारी सभ्यता, संस्कृति और अर्थव्यवस्था के संबल हैं। ये सम्पूर्ण मानवता के लिए ना सिर्फ मूलभूत जरूरतें जैसे भोजन, पानी, मकान की उपलब्धतता सुनिश्चित करते हैं, बल्कि ईंधन और अन्य कच्चे माल के स्रोत हैं। जो हमारी आवश्यकताओं, जीवन शैली तथा जीवन-यापन के स्वरूप को आकार देते हैं। परंतु भूमि सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, उनके खराब प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन के कारण, मनुष्य सहित कई प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है। 

मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैवीय गुणों के संतुलन बिगड़ने से, भू-संसाधन की संजीवनी सूख रही है, विषाक्त हो रही है। हरियाली वाले क्षेत्र सूखे की चपेट में आ रहे हैं और मरुस्थल का दायरा बढ़ता जा रहा है। सबसे ज्यादा असर शुष्क जलवायु प्रदेश में है। सभी शुष्क भूमि क्षेत्रों जैसे शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में होने वाले व्यापक स्तर पर भूमि क्षरण, जिससे उसकी जैविक उत्पादकता कम हो जाती है, जिसे 'मरुस्थलीकरण' कहा जाता है। मरुस्थलीकरण और मौजूदा रेगिस्तान का विस्तार अलग अलग स्थितियां  हैं।

भूमि क्षरण के मुख्य कारणों में भूमि उपयोग में बदलाव और चरम मौसम की स्थिति (अत्यधिक गर्मी और कम बारिश), विशेष रूप से सूखा के अलावा रसायन और सिंचाई आधारित आधुनिक कृषि भी शामिल है जिससे भूमि प्रदूषण के साथ-साथ धीरे-धीरे भूमि की उर्वरता कम होती जाती है।

अकेले कृषि के लिए तीन-चौथाई ज्यादा जंगल कटे हैं, वहीं  दो-तिहाई से ज्यादा मीठा पानी कृषि कार्य में खप रहा है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के लिए कृषि भूमि, खनन, अधिवास, यातायात और अन्य जरुरतो के लिए ढांचा विकास के कारण जंगल, घास के मैदानों यहाँ तक की वेटलैंड सहित अन्य प्राकृतिक भूमि के उपयोग में बदलाव ने भू-क्षरण की प्रक्रिया में तेजी आयी है।

पृथ्वी पर मानव की सभी गतिविधियों को दीर्घकाल तक सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ग्रहीय सीमा की  अवधारणा को वैश्विक मान्यता मिली है।  जिसके अन्दर ही पृथ्वी की जीवन रक्षा प्रणाली सुरक्षित रूप से काम कर पायेगी। ग्रहीय सीमा के नौ प्रमुख घटक हैं और पृथ्वी पर सभी मानवीय  गतिविधियों को इन्हीं  नौ ग्रहीय सीमाओं के अन्दर ही सुनिश्चित करना है। 

इसमें जैव-विविधता क्षय,  भू-उपयोग परिवर्तन, जलवायु-परिवर्तन, भू-रासायनिक चक्र में बदलाव, जल-संसाधन उपलब्धता, ओजोन क्षय, समुद्री अम्लीकरण, वायुमंडलीय प्रदूषण सहित रासायनिक प्रदूषण शामिल हैं। उल्लंघन होने की स्थिति में अचानक, व्यापक, अपरिवर्तनीय और चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों की सम्भावना बढ़ेगी।

इन नौ ग्रहीय सीमाओं में से वैश्विक स्तर पर पहले चार जैव-विविधता क्षय,  भू-उपयोग परिवर्तन,  जलवायु परिवर्तन और भू-रासायनिक चक्र में बदलाव को पहले ही पार कर चुके हैं। गौर से देखे तो ये चारो उल्लंघन मूल रूप से मानव-जनित मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के फैलते दायरे से सीधे जुड़े हुए हैं।

वैश्विक स्तर पर शुष्क क्षेत्र का दायरा बढ़कर कुल भू-भाग का लगभग आधा हो चुका है।  जहाँ विश्व की  एक-तिहाई जनसंख्या निवास करती है, जिसमें अधिकांश हाशिये पर छूट गए लोग हैं। भू-क्षरण प्रभावित क्षेत्र 20% तक बढ़ चुकी है, जो आकार में अफ्रीका महादेश के बराबर बैठता है। आज एक बड़ी आबादी सूखे की चपेट में है और नतीजा जीवनयापन की तलाश में व्यापक स्तर पर विस्थापन है। पर्यावरणीय संकट के चलते सालाना हो रहे दो करोड़ से अधिक विस्थापन में भू-क्षरण और सूखा भी बड़ा कारण है। 

2050 ई.  तक ऐसे विस्थापन में कई गुणा वृद्धि की आशंका अपने हालिया रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र कर चुका है। सूखे और मरुस्थलीकरण से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य-पूर्व के देश, भारत और ऑस्ट्रेलिया हैं  और अधिकांश प्रभावित आबादी कम विकसित और विकासशील देशों  में रहती है। 

इसरो के हालिया अध्ययन  के अनुसार पिछले डेढ दशक में भारत में लगभग तीन मिलियन हेक्टेयर की वृद्धि के साथ भूमि-क्षय का दायरा बढ़ कर कुल भूमि का 29.7% तक जा पंहुचा है। वहीं उसी अवधि में मरुस्थलीकरण से प्रभावित दायरा भी दो मिलियन हेक्टयर से ज्यादा फैला है। भारतीय सन्दर्भ में भूमि-क्षय और मरुस्थलीकरण के मुख्य कारणों में जल-अपरदन, भूमि पर से हरित आवरण का ह्रास और वायु अपरदन शामिल है।

एक आध राज्यों को छोड़कर लगभग सारा भारतीय भू-भाग भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण से प्रभावित है, खासकर पश्चिमी राज्य और सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, लद्दाख, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना शामिल हैं। भारत एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और विश्व में सबसे ज्यादा कृषि भू-भाग होने के कारण भूमि संसाधनों के उत्पादकता पर विशेष रूप से निर्भर है। वैश्विक औसत 11% के मुकाबले भारतीय क्षेत्र का लगभग 51% भू-भाग पर खेती की जाती है जिस पर 1.4 अरब जनसंख्या के अलावा 53.6 करोड़ पशु भी निर्भर हैं।

मिट्टी, स्थलीय आर्गेनिक कार्बन का सबसे बड़ा दीर्घकालीन भंडार है।  जो वायुमंडलीय कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का के स्रोत के साथ सबसे बड़ा सिंक भी है और वैश्विक कार्बन चक्र को नियंत्रित भी करता है। भूमि में मौजूद कार्बन की मात्रा वायुमंडल में मौजूद कार्बन का दोगुना और पेड़-पौधों में मौजूद सम्पूर्ण कार्बन का तीन गुणा है।

बड़े स्तर पर भूमि क्षरण और सुखाड़ के उपरोक्त सीधे नाकारात्मक प्रभाव के अलावा मिटटी के दीर्घकाल के लिए संग्रहित आर्गेनिक कार्बन का ह्रास, जो कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के रूप में वायुमंडल में होता है;जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को और भी तेज कर रहा है। तभी संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे वर्तमान और भविष्य का सबसे जोखिम भरा वैश्विक पर्यावरणीय चुनौती माना है।

ऐसे में सतत विकास की अवधारणा बिना भू-क्षरण, सुखाड़ और मरुस्थलीकरण को रोके संभव नहीं है।  तभी तो इसे सतत विकास के लक्ष्यों में प्रमुखता दी गई जो सीधे -सीधे कई लक्ष्यों को प्रभावित करती है। दूसरी तरफ भू-संरक्षण जलवायु परिवर्तन के रोकथाम के लिए एक बहुत प्रभावी कदम साबित हो सकता है, जिस दिशा में भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी लक्ष्य निर्धारित किये गए है।

भू-क्षरण और मरुस्थलीकरण के विस्तार पर लगाम लगाने की दिशा में पहला कदम भूमि-क्षरण तटस्थता (मिटटी में कार्बन के आगमन और ह्रास को संतुलित करना) के लक्ष्य को हासिल करना है। उसके बाद वनीकरण, प्रकृति आधारित कृषि, समेकित भूमि और जल-प्रबंधन से भूमि की कार्बन संग्रहण क्षमता को बढ़ाना है। भारत ने पेरिस क्लाइमेट चेंज के आलोक में 2030 ई. तक भू-क्षरण तटस्थता का लक्ष्य रखा है। 

जिसके मूल में भू-संपदा का संरक्षण और उसकी उत्पादकता सुनिश्चित करना है। इसके तहत् 26 मिलियन हेक्टेयर  खराब भूमि को पुनः उपजाऊ बनाने के साथ साथ वनीकरण और समेकित भूमि और जल प्रबंधन के प्रयास से अतिरिक्त 2.5-3 बिलियन टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के समकक्ष कार्बन सिंक तैयार करना भी शामिल है। इस दिशा की रुपरेखा के मुताबिक राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, मनरेगा, हरित भारत मिशन, समेकित वाटरशेड कार्यक्रम, मरुस्थल विकास कार्यक्रम आदि परिकल्पों के तहत् प्रयास हो रहे हैं।

भू-संपदा संरक्षण सुखाड़ और मरुस्थलीकरण मानव जनित कारणों के साथ-साथ भारत की प्राकृतिक परिस्थितियों और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के दौर में और भी जटिल होती जा रही है। भारत में समय और स्थान के मामले में पानी की उपलब्धता बहुत ही असमान है। भारत के एक तिहाई भाग में केवल 750 मिलीमीटर से कम बारिश, दूसरे एक-तिहाई भाग में मात्र 750-1125 मिलीमीटर बारिश होती है। वहीं कुल बारिश का तीन-चौथाई मात्र 80 दिन में ही हो जाती है।

पानी की असमान उपलब्धता, चरम मौसमी परिस्थितियाँ और अनियमित मॉनसून के कारण मिट्टी की नमी में लम्बे समय तक कमी खासकर महाराष्ट्र, गुजरात राजस्थान जैसे पश्चिमी राज्यों में सुखाड़ का कारण बन रही है। विदर्भ की पहचान ही अब सूखे और उजाड़ प्रदेश के रूप में ही होने लगी है। दूसरी तरफ खाद्यान सुरक्षा के मद्दे नज़र पिछले पांच दशक में फसलों के प्राकृतिक चक्र में आमूलचूल परिवर्तन आया है, साथ ही साथ अत्यधिक रासायन और सिंचाई आधारित कृषि चलन में है, खासकर पश्चिमोतर भारत में तो भूमिगत जल अब खत्म होने के कगार पर है।

मॉनसून की शुरूआत के बाद सूखे की चर्चा अटपटा जरूर है, परंतु जलवायु परिवर्तन के दौर में बिगड़ता मॉनसून का स्वरुप सूखे के दायरे और तीव्रता को और बढ़ा रहा है। भारत में मॉनसून के कुछ दशक के आकड़ो पर ध्यान दे तो ये स्पष्ट हो जाता है की, पूरे दक्षिण एशिया में इसके विन्यास में व्यापक वदलाव देखा जा रहा है।

हालांकि पूरे भौगोलिक क्षेत्र के स्तर पर कुल बारिश की मात्रा लगभग एक सामान ही है पर बारिश की मात्रा के क्षेत्रीय विन्यास में परिवर्तन हो रहा है। साथ ही साथ जहां औसत बारिश के दिनों की संख्या घट रही है वही बड़े और छोटे स्तर के बदल फटने और अतिवृष्टि सामान्य होती जा रही है जहा पूरे महीने या पूरे मौसम की बरसात कुछ घंटे या कुछ ही दिनों में हो जा रही है।

कुछ दिनों की अतिवृष्टि के बाद, एक लम्बे समय तक बिना बरसात अब मॉनसून की पहचान हो गयी। मॉनसून के विन्यास में आ रहे बदलाव पुष्टि औसत बारिश और मध्य बारिश में बढ़ रहे अंतर से भी समझा जा सकता है जो कुल बारिश के पूरे मॉनसून काल के बहुत ही कम समय में बरस जाने की स्थिति बताता है। 

यहां तक के मॉनसून में भी सूखे दिनों की संख्या धीरे धीरे बढ़ती जा रही है और बरसात वाली दिनों के संख्या सिकुड़ती जा रही है, जिससे ना सिर्फ बाढ़ का दायरा बढ़ रहा है बल्कि भूमिगत जल के पुनर्भरण भी कम हो रहा है। जिसके नतीजे में भरपूर बारिश वाले क्षेत्र भी अब सूखे की शिकार हो रहे है।

इसके अलावा बढ़ते तापमान के कारण सूखे इलाके में वायुमंडल के वाष्प सोखने की क्षमता काफी बढ़ जाती है;  हवा के एक डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ने से वाष्प रखने की क्षमता में सात प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।  यही कारण है की परम्परागत रूप से कम बारिश वाले क्षेत्र गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र के कुछ इलाको में धीरे धीरे वरिश की मात्रा बढती जा रही है। वही दूसरी तरफ अधिक बारिश वाले बिहार, झारखंड, सिक्किम, आसाम, मेघालय सहित पूर्वी राज्यों में मॉनसून में कमी देखि जा रही है। यह कहा जा सकता है की मॉनसून उतरपूर्व से पश्चिम की तरफ धीरे धीरे बढ़ रहा है।

अभी पूरे देश आये मॉनसून के पहले चरण में ही छोटे स्तर के बदल घटने की अनेको घटनाये हुई, जहा पूरे बरसात का आधा तक बारिश कुछ घंटो में हो गयी। पिछले 25-26 जून में ही देश के अनेक जिलों यथा रायपुर (82 मिमी) महासमुंद (90 मिमी), बिजनौर (92 मिमी), कठुआ (107 मिमी), झारसुगुडा (98 मिमी), अनुगुल (101 मिमी), देवघर (107 मिमी) में पूरे मौसम से आधे तक की बारिश हो चुकी है।

इस प्रकार कम वरिश वाले क्षेत्र में बाढ़ और ज्यादा बारिश प्रदेश में बारिश वाले दिनों में गिरावट, सतही और भूमिगत जल संतुलन को बिगड़ रहा है, सदाबहार नदियों के सूखने से मिटटी की आद्रता असमय खत्म हो रही है और उसके अपरदन की गति में तेजी आ रही है। फलस्वरूप हरित प्रदेश भी सूखे की चपेट में आ रहे है।  

प्राकृतिक रूप से भूमिगत जल के लगातार कम पुनर्भरण और बेतहासा दोहन के कारण सतही और भूमिगत जल के बीच आपसी संतुलन प्रभावित हुआ है, जिसका असर बड़े पैमाने पर पिछले एक-दो दशको में ही अधिकांश सदानीरा नदियाँ जलविहीन हो जा रही है।

बारिश के मौसम के बाद से ही धीरे-धीरे सतही जल और मिटटी में नमी के खात्मे का कारण बन रही है। जिसके परिणाम स्वरूप शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों का एक बड़ा भाग सूखे के चपेट में आ रहा है। शहरीकरण, रहवास के बढ़ते दायरे और भूमि के कंक्रीटीकरण से भूमिगत जल के पुनर्भरण में लगातार कमी आ रही है। साथ-साथ सतही जल के स्रोत जैसे पोखर, तालाब और छोटी-छोटी नदियां जो मॉनसून के आगमन तक भूमि में आवयशक नमी बरक़रार रखती थी, अब जाड़े के मौसम के बाद ही सूखने लगी हैं। 

जिसके सामान्य या अधिक वर्षा वाले क्षेत्र तक में  भी सूखे का प्रकोप बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन, मौसमी चरम और अनियमित मॉनसून के कारण देश में बाढ़ और सूखा प्रभावित क्षेत्रों में उतरोतर इजाफा हो रहा है। बड़े पैमाने पर खनन भी भूमि क्षय और मरुस्थलीकरण का सबब बन रही है। थार मरुभूमि को प्राकृतिक रूप से घेरने वाली अरावली पर्वत का बड़े पैमाने पर अवैध खनन से हाल के कुछ वर्षो में थार मरूभूमि का विस्तार हुआ है।

इन सारी विकट परिस्थितियों में भूमि क्षरण तटस्थता और 2.5-3 बिलियन टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के समकक्ष अतिरिक्त कार्बन सिंक तैयार करने का निर्धारित लक्ष्य एक दुरूह परिकल्पना ही नज़र आती है, बशर्ते भूमि संपदा संरक्षण परिकल्प को समेकित समझ के साथ लागू ना किया जाए।