जब चक्रवात फानी, यास, अम्फान और फनी ने ओडिशा के तटों पर कहर बरसाया, गांव दर गांव उजड़ गए। घर छोड़कर भागते लोगों की भीड़ में कुछ चेहरे पीछे छूट गए, जिनकी आवाजें आंधी में दब गईं। ये वे लोग हैं जो देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, चल नहीं सकते, या मानसिक रूप से सहारा चाहते हैं। उनके लिए जलवायु संकट एक अदृश्य त्रासदी बनकर आता है, जिसके सामने उनकी लड़ाई बेहद असमान है।
दिव्यांग व्यक्तियों के लिए, जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक मानवीय संकट है। और ओडिशा इसका जीवित उदाहरण है।
चुपचाप आती आपदा: संकट का अदृश्यता
भारत में 2014-2024 के बीच प्राकृतिक आपदाओं से 3.23 करोड़ लोग विस्थापित हुए और अकेले 2024 में 54 लाख लोग जलवायु आपदाओं के कारण अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुए। ओडिशा में प्रतिवर्ष 12 लाख लोग बाढ़ और चक्रवात से प्रभावित होते हैं, पर इनमें दिव्यांग लोग आंकड़ों से भी अदृश्य हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स (एनआईयूए) की 2024 में प्रकाशित एक ब्लॉग के मुताबिक चक्रवात प्रभावित इलाकों में दिव्यांग व्यक्ति डिजास्टर प्लानिंग (आपदा प्रबंधन) में शामिल नहीं होते, और राहत-पुनर्वास व्यवस्था उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर देती है। उनके लिए चेतावनी तंत्र, राहत सामग्री, और सुरक्षित निकासी व्यवस्था मौजूद ही नहीं होती, जिससे वे आपदा के दौरान सबसे कमजोर बन जाते हैं।
फ्रंटियर्स इन पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित शोध में साफ़ कहा गया है कि जलवायु आपदाएं दिव्यांग समुदाय पर असमान प्रभाव डालती हैं, लेकिन डिजास्टर रिस्क रिडक्शन योजनाओं में उनका समावेश महज ‘कागज़ी औपचारिकता’ तक सिमट कर रह गया है।
विस्थापन से नई बेड़ियां
ग्राउंड पर हकीकत यह है कि जलवायु आपदाओं के दौरान विस्थापन दिव्यांग समुदाय के लिए नई बेड़ियाँ बनकर सामने आता है। वी4यू ने ओडिशा के केंद्रपाड़ा, पुरी, गंजाम और खोरधा में 550 से अधिक दिव्यांग व्यक्तियों के अनुभव दर्ज किए, जिनसे यह स्पष्ट हुआ कि चक्रवात के समय व्हीलचेयर और क्रच का उपयोग करने वाले लोग राहत शिविर तक पहुंच ही नहीं पाते, जबकि दृष्टिहीन और बधिर व्यक्तियों को समय पर चेतावनी नहीं मिल पाती। राहत शिविरों में न तो रैंप होते हैं और न ही सुलभ शौचालय की सुविधा, जिससे उन्हें और कठिनाई होती है।
इसके अलावा आपदा के दौरान उनके सहायक उपकरण और दवाएँ खो जाती हैं, और पुनर्वास स्थल पर आजीविका के अवसरों का अभाव उन्हें गरीबी और परनिर्भरता की ओर धकेल देता है। इन अनुभवों ने हमें यह सीख दी कि जलवायु आपदा के बाद दिव्यांगता उनके लिए दोगुनी चुनौती बन जाती है।
क्यों नीतियां विफल हो रही हैं?
एनआईयूए और फ्रंटियर्स जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशक यह रेखांकित करते हैं कि डिजास्टर रिस्क रिडक्शन योजनाओं में दिव्यांग व्यक्तियों को शामिल न करना एक गंभीर चूक है। पूर्व चेतावनी प्रणाली में समावेशन की कमी, राहत शिविरों में सुलभता और सुरक्षित स्थानों का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं और सहायक उपकरण को प्राथमिकता न देना, और पुनर्वास तथा आजीविका में दिव्यांग लोगों की आवाज का न होना, ये सभी कमियाँ आपदा प्रबंधन की योजनाओं को दिव्यांग समुदाय के लिए अप्रभावी बना देती हैं। परिणामस्वरूप, जलवायु आपदाएं दिव्यांग समुदाय को और अधिक सामाजिक और आर्थिक हाशिए पर धकेल देती हैं, जिससे उनकी असुरक्षा और निर्भरता की स्थिति लगातार गहराती जाती है।
बदलाव की ओर
हम यह मानते हैं कि जलवायु न्याय, दिव्यांग न्याय के बिना अधूरा है। इसलिए हमें राहत शिविरों में सुलभ रैंप, संकेत भाषा सुविधा और सुलभ शौचालय को अनिवार्य करना होगा। साथ ही, चेतावनी और निकासी तंत्र में दिव्यांग व्यक्तियों की जरूरतों के अनुसार विशेष उपाय लागू करने होंगे ताकि आपदा के समय वे सुरक्षित रह सकें।
पुनर्वास प्रक्रिया में दिव्यांग अनुकूल आजीविका और स्किल ट्रेनिंग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। इसके अलावा, डिजास्टर प्लानिंग और नीति निर्माण की प्रत्येक प्रक्रिया में दिव्यांग समुदाय की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना भी अनिवार्य होगा, ताकि योजनाएँ वास्तव में सभी के लिए न्यायसंगत और समावेशी बन सकें।
निष्कर्ष: अब सुनिए, और देखिए
जलवायु परिवर्तन की आंधी में सबसे कमजोर लोगों की आवाज़ें दब रही हैं। ओडिशा में, दिव्यांग व्यक्ति जलवायु न्याय की लड़ाई में सबसे आगे खड़े हैं—पर अदृश्य बने हुए हैं। अगर हम जलवायु संकट से लड़ने में ईमानदार हैं, तो हमें सबसे पहले उनकी ओर देखना होगा जो इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा असहाय हैं।