पिछले 5 दिन से उत्तर बिहार में बाढ़ की वजह से अब तक 33 लोगों की मौत हो चुकी है। 12 जिले के 26.79 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हैं। 1.13 लाख लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। जानकार मानते हैं कि बाढ़ के इस खतरे को बढ़ाने में बाढ़ को रोकने के लिए बने उन तटबंधों की बड़ी भूमिका है, जो अब तक एक दर्जन से अधिक स्थल पर टूट चुके हैं।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर बाढ़ नियंत्रण वाले खंड में लिखा है कि इस काम के लिए अब तक वे मुख्यतः नदियों के दोनों किनारे पर तटबंध बनाते हैं और उनका रखरखाव करते हैं। इस राज्य हर साल आने वाली बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए सरकार इसी उपाय को सबसे कारगर मानती है। मगर आंकड़े यह बताते हैं कि राज्य की 13 प्रमुख नदियों पर बने 3745.96 किमी लंबे इन तटबंधों ने बाढ़ की विभीषिका को घटाने के बदले बढ़ाने का ही काम किया है। आजादी के तत्काल बाद 1954 में जब राज्य में सिर्फ 160 किमी लंबे तटबंध थे तब राज्य की 25 लाख हेक्टेयर जमीन ही बाढ़ प्रभावित थी, अब बाढ़ प्रभावित जमीन का क्षेत्रफल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 68.8 लाख हेक्टेयर और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 72.95 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। नदियों के जानकार और विशेषज्ञ तटबंधों के जरिये बाढ़ नियंत्रण की तकनीक को राज्य के पर्यावरण के लिए आत्मघाती और भ्रष्टाचार का गढ़ मानते हैं। मगर राज्य सरकार इन सुझावों की अनदेखी कर लगातार तटबंधों का आकार बढ़ाती जा रही है।
जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त बिहार के 38 में से 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं, इनमें से 21 जिले उत्तर बिहार के हैं। विभाग के आंकड़े यह भी कहते हैं कि राज्य में तकरीबन हर साल बाढ़ आती है, किसी साल इसका प्रभाव कम होता है तो किसी साल अधिक। विभाग यह भी दावा करता है कि इन तटबंधों के जरिये उसने 36.34 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचा लिया है। मगर इस बात का कहीं उल्लेख नहीं करता कि अगर तटबंध बाढ़ को रोकने में इतने कारगर हैं तो तटबंधों के निर्माण के बावजूद राज्य का बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल बढ़ता ही क्यों जा रहा है। क्यों जब राज्य में नहीं के बराबर तटबंध थे, तब राज्य का बाढ़ प्रभावित इलाका सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर था, अब लगभग तिगुना हो गया है और राज्य की तीन चौथाई जमीन बाढ़ प्रभावित है।
इस सवाल का जवाब उत्तर बिहार की नदियों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र देते हैं, वे कहते हैं, 19वीं सदी के आखिर में बंगाल के सिंचाई विभाग में काम करने वाले इंजीनियर एफसी हर्स्ट ने एक बार कहा था कि नदियों पर तटबंध बनाकर उन्हें काबू में लाने की कोशिश करना, एक तरह से उसे बॉक्सिंग के लिए ललकारना है। इसमें जीत हमेशा नदियों की होती है। नदी अपने साथ हुए किसी भी दुर्व्यवहार का बदला लिये बगैर नहीं छोड़ती। अंग्रेजों ने अपने अनुभव से सीखा था कि नदियों पर तटबंध बनाना खतरे से खेलना है, इसलिए उन्होंने अमूमन तटबंध नहीं बनाये। बिहार में नदियों को तटबंधों से घेरने की परंपरा आजादी के बाद शुरू हुई। सरकार ने सोचा कि नदियों को घेर कर हम उन्हें काबू में कर लेंगे, मगर आंकड़े गवाह हैं कि बाढ़ और बेकाबू हुई है और नये इलाकों तक पहुंच गयी है।
वे कहते हैं, यह तो एक नुकसान है। दूसरा नुकसान यह है कि हर साल बाढ़ के साथ आने वाली गाद को तटबंध के कारण फैलने का मौका नहीं मिलता, जिससे नदियां लगातार उथली हो रही हैं, वहीं इस घेराबंदी से बड़ी नदियों का छोटी नदियों और चौरों से संपर्क खत्म हो गया है। नदियों का बेसिन उथला होना और इसे फैलने के लिए जगह न मिलना भी नदियों को आक्रामक बना रहा है। नदियों के उथले होने से यह खतरा भी उत्पन्न हो गया कि कहीं नदियां ओवरफ्लो होकर तटबंध को पार न कर जाये, इसलिए इन दिनों सरकार तटबंधों को ऊंचा करने का काम कर रही है।
वे आगे कहते हैं कि इसके बावजूद तटबंधों का टूटना कम नहीं हुआ है, जल संसाधन विभाग की ही रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीस सालों में तटबंधों के टूटने की 374 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं।
तटबंधों की सुरक्षा भी कोई आसान काम नहीं है। हर साल इन 3731 किमी लंबे तटबंधों की सुरक्षा पर सरकार करोड़ों की राशि खर्च करती है। 2018 के नवंबर महीने में बनी तटबंधों की सुरक्षा की 99 योजनाओं के लिए जल संसाधन विभाग ने 522.54 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी थी। 2016 में इनकी सुरक्षा पर 636 करोड़ रुपये व्यय हुए थे। तटबंधों की ऊंचाई बढ़ाने के काम में अलग से धन राशि व्यय हो रही है।