आपदा

एक ही साथ बाढ़ और सूखा दोनों झेलने के लिए क्यों अभिशप्त है उत्तर बिहार

Pushya Mitra

आज जब बिहार विधान मंडल के सेंट्रल हॉल में सभी विधायक राज्य में भीषण सूखा और जलवायु परिवर्तन की स्थिति पर चर्चा कर रहे हैं, उत्तर बिहार के कई जिलों से भीषण बाढ़ की खबरें आ रही हैं। पिछले सात दिन से हिमालय की तराई में हो रही भारी बारिश की वजह से गंडक, बागमती, कमला, कोसी और परमान जैसी उत्तर बिहार की अधिकतर नदियां खतरे के निशान को पार कर गयी हैं। पूर्वी चंपारण, मधुबनी और अररिया-किशनगंज जिले के कई गांवों में बाढ़ का पानी प्रवेश कर गया है। महज दो-तीन हफ्ते पहले तक उत्तर बिहार का यह इलाका खुद भीषण सूखे का सामना कर रहा था। ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि आखिर उत्तर बिहार के इलाके में एक ही साल में सूखा और बाढ़ दोनों स्थितियां कैसे पैदा हो जाती हैं।

जानकार मानते हैं कि इस इलाके में जल संपदा की कोई कमी नहीं है, हर साल मानसून के तीन महीने में इतना पानी बारिश और बाढ़ की वजह से आ जाता है कि अगर इसका प्रबंधन ठीक से किया जाये तो इस इलाके में कभी जल संकट की स्थिति नहीं बनेगी और बाढ़ का खतरा भी कम हो जायेगा।

बिहार के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव गजानन मिश्र कहते हैं, आज भले ही राज्य की बड़ी नदियां लबालब दिख रही हैं, मगर जितनी छोटी नदियां हैं, उनमें बहुत कम पानी है। उत्तर बिहार में अगर दस बड़ी नदियां हैं तो दो सौ से अधिक छोटी जलधाराएं भी हैं। इनमें 80 के करीब तो आज भी जीवंत हैं। मगर इनमें से किसी में आज एक-दो फुट से अधिक पानी नहीं है। इसके अलावा चौर इस क्षेत्र की खास विशेषता हुआ करती थी, आजादी के बाद तक हर गांव का 6 से 10 फीसदी क्षेत्र इन चौरों से ही आच्छादित हुआ करता था। मगर बाढ़ सुरक्षा के नाम पर बने तटबंधों के कारण इन छोटी नदियों और चौरों का बड़ी नदियों से संपर्क कट गया है।

जब ये तटबंध नहीं थे, तब बाढ़ आती थी तो बड़ी नदियों का पानी इन छोटी सहायक नदियों, चौरों और इनसे जुड़ी झीलों में बंट जाता था, जिससे बाढ़ का प्रभाव कम हो जाता था और जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटता तो ये छोटी नदियां और चौर बड़ी नदियों को पानी वापस कर देतीं। इससे बाढ़ का खतरा भी कम हो जाता और सूखे के मौसम में भी नदियों में पानी होता। यह जल संरक्षण की हमारी नैसर्गिक व्यवस्था थी।

अब पानी मुख्य धारा तक ही सीमित है, इसलिए बाढ़ का पानी अक्सर निवास स्थलों तक पहुंचने लगा है और गर्मियों में ये नदियां पूरी तरह सूखने लगी हैं।

उत्तर बिहार की प्रमुख नदियां और उनकी सहायक नदियां

मुख्य नदी                         सहायक नदी

गंडक                              कुसुमा, बरिगड, त्रिसूली, वृद्ध गंडकी, मर्सिल गंडी, दारा-मादी गंडी, सेती गंडकी (कुल-7)

बूढ़ी गंडक                        हरहा, कापन, मसान, रामरेखा, बाणगंगा, पंडई, धोरम, करटहा, उरई, कोनहरा, झरही, तेलाबे, तियर, अनुरवा, धनौती (कुल-15)

बागमती                          लालबकेया, चकनाहा, शाखा नदी, सिपरी धार, छोटी बागमती, कोला, लखनदेई, प्राचीन बागमती यानी चंदना, खिरोही (कुल-9)

करेह                               अवधारा, हरदी, मरने, बघोर, मुरहा, धाउस, बेलौती, जमुने, थोमने (कुल-9)

कमला समूह                      सुगरबे, जीवछ कमला, बलान और कमला की पांच धाराएं (कुल 8)

कोसी                              तिलयुगा, बेती, धेमुरा, तिलावह, सोनेह, परवाने, चिलौनी धार, सुरसर, हइया, इरन, फरैनी, कजला, गेरुआ-कमतहा, गोरोभगड़, चकरदाहा, नागर, हिरण, लिबरी, कारी कोसी,सउरा, मोगलाहा, हरेली (कुल 22)

महानंदा समूह                    पनार, बकरा, नोनसारी, कृष्णई, कनकई, दाउक, नागर, रमजानी, मेची, देवनी (कुल-10)

घाघरा                             बिहार में कोई सहायक नदी नहीं

पिछले तीन दशक से उत्तर बिहार की नदियों के व्यवहार और इस क्षेत्र में बाढ़ और सुखाड़ के संकट का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ दिनेश मिश्र कहते हैं कि यह पहली दफा नहीं हुआ है। इस क्षेत्र में कई ऐसे अवसर आये हैं जब बाढ़ और सूखा एक ही साल में एक साथ पड़ा है। 1954 में जब राज्य में भीषण बाढ़ आयी थी, उस साल हथिया नक्षत्र के समय में पानी नहीं पड़ा और किसानों को सूखे का सामना करना पड़ा। बाद में 1957, 1960, 1966-67, 1970, 1972 में भी यह स्थिति उत्पन्न हुई। 2007 के बाद से तो ऐसा कई बार हुआ। दरअसल पूरे साल चाहे जितनी बारिश हो, अगर रोहिणी, आद्रा और हथिया नक्षत्र में पानी नहीं पड़ा तो सूखे की स्थिति बन ही जाती है।

मगर हम पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीक तालाब और आहर पाइन आदि को अपनाकर पहले इस संकट का मुकाबला करते थे, अब इसकी जगह आधुनिक सिंचाई तकनीकों जैसे नहरों और बोरिंग आदि ने ले ली है। जो जल संसाधन के विकास के बदले जल संकट को और बढ़ा देती है।