2024 के पहले नौ महीनों में भारत को 93 फीसदी दिनों यानी 274 में से 255 दिनों में गर्मी और ठंडी हवाओं, चक्रवात, बिजली, भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन का सामना करना पड़ा। इन घटनाओं ने 3,238 लोगों की जान ले ली, इनसे 32 लाख हेक्टेयर फसलें प्रभावित हुईं, 2,35,862 घर और इमारतें नष्ट हो गईं और करीब 9,457 पशु मारे गए।
8 नवंबर 2024 को जारी, ‘स्टेट ऑफ एक्सट्रीम वेदर रिपोर्ट इन इंडिया’ के मुताबिक चरम मौसमी घटनाओं ने 2022 और 2023 की तुलना में 2024 में ज्यादा गंभीर असर डाला है। यह रिपोर्ट हर साल सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट यानी सीएसई और डाउन टू अर्थ द्वारा जारी की जाती है। सीएसई के सहयोग से ही पाक्षिक पत्रिका डाउन टू अर्थ प्रकाशित की जाती है।
इसकी तुलना में, 2023 के पहले नौ महीनों में 273 दिनों में से 235 दिनों में चरम मौसम की घटनाएं दर्ज की गई थीं जिसमें 2,923 मौतें हुईं, 18.4 लाख हेक्टेयर फसलें प्रभावित हुई थीं, 80,293 घर क्षतिग्रस्त हुए थे और 92,519 जानवरों की मौत हुई। रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में जहां जानवरों की मौतें अधिक हुईं थी, वहीं इस साल फसल क्षेत्र की हानि, मानव-मृत्यु और क्षतिग्रस्त घरों सहित अन्य प्रभाव ज्यादा गंभीर थे।
इस रिपोर्ट को संकलित करने वाले डाउन टू अर्थ के डाटा विश्लेषक कहते हैं - ‘यह बहुत संभव है कि घटनाओं से जुड़े नुकसानों खासकर जन-संपत्ति और फसलों के नुकसान आदि में अधूरे आंकड़ों की वजह से उनका आकलन कम किया गया हो।’
ऐसा साल जिसने जलवायु -रिकॉर्ड बनाये
साल 2024 ने कई जलवायु रिकॉर्ड भी बनाए। 1901 के बाद से जनवरी, भारत का नौवां सबसे सूखा महीना था। फरवरी में, देश ने 123 सालों में अपना दूसरा सबसे अधिक न्यूनतम तापमान दर्ज किया। मई में चौथा उच्चतम औसत तापमान रिकॉर्ड किया गया और जुलाई, अगस्त और सितंबर सभी ने 1901 के बाद से अपना उच्चतम न्यूनतम तापमान दर्ज किया।
उत्तर-पश्चिम में, जनवरी दूसरी सबसे शुष्क थी और जुलाई में इस क्षेत्र का दूसरा सबसे अधिक न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया। दक्षिणी प्रायद्वीप में अब तक का सबसे गर्म फरवरी देखा गया, उसके बाद मार्च और अप्रैल असाधारण रूप से गर्म और शुष्क रहे। जबकि जुलाई में 36.5 फीसदी ज्यादा बारिश हुई और अगस्त में दूसरा सबसे अधिक न्यूनतम तापमान रहा।
रिपोर्ट जारी करने के मौके पर बोलते हुए, सीएसई की महानिदेशक और डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण ने कहा, - “ये रिकॉर्ड-तोड़ आंकड़े जलवायु परिवर्तन के असर को दर्शाते हैं, पहले जो घटनाएं सदी में एक बार होती थीं, वे अब हर पांच साल या उससे भी कम समय में हो रही हैं। उनकी यह पुनरावृत्ति सबसे कमजोर आबादी पर भारी पड़ रही है, जिनके पास अपने नुकसान और क्षति के इस कठोर चक्र के अनुकूल बनाने के लिए संसाधनों की कमी है।’
किस तरह की चरम मौसमी घटनाओं ने भारत को प्रभावित किया है?
घटना के प्रकार की बात करें तो पिछले नौ महीनों में बिजली गिरने और तूफान से लेकर 32 राज्यों तक हर तरह की घटनाएं देखी गई हैं और इसके परिणामस्वरूप लगातार हुई मानसूनी बारिश जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ आई - 1,021 लोगों की मौत हुई। केवल असम में 122 दिनों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन दर्ज किया गया, जिससे राज्य के बड़े हिस्से जलमग्न हो गए और समुदाय तबाह हो गए। पूरे देश में बाढ़ के कारण 1,376 लोगों की जान चली गई।
डाउन टू अर्थ के एसोसिएट संपादक और इस रिपोर्ट के लेखकों में से एक रजित सेनगुप्ता कहते हैं,- “ वैसे तो लू (हीटवेव) ने उत्तर भारत में 210 लोगों की जान ली, फिर भी ये आंकड़ा यह नहीं दिखाता कि किसानों और मजदूरों सहित आम लोगों के स्वास्थ्य पर यह तेज तापमान कितना गंभीर असर डालता है। इसी तरह, फसल के नुकसान पर गंभीर शीतलहर और पाले का असर दर्ज नहीं किया गया है, जो मौसम से होने वाले नुकसान के लिए मुआवजे के मजबूत तंत्र की जरूरत पर प्रकाश डालता है। इस तंत्र के बिना, किसान कर्ज में डूब जाते हैं, इससे वे हाशिए पर पहुंच जाते हैं और उनकी गरीबी बढ़ जाती है।’
राज्य और क्षेत्रवार तबाही
रिपोर्ट में कहा गया है कि मध्य प्रदेश में हर दूसरे दिन चरम मौसम का अनुभव किया गया, जो देश में सबसे अधिक है। केरल में सबसे अधिक 550 मौतें दर्ज की गईं, इसके बाद मध्य प्रदेश (353) और असम (256) का स्थान रहा। आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक घर बर्बाद हुए (85,806), जबकि महाराष्ट्र, जहां 142 दिनों में चरम मौसमी घटनाएं देखी गईं, वहां देश भर में प्रभावित फसल क्षेत्र का 60 प्रतिशत से अधिक क्षतिग्रस्त हुआ, इसके बाद मध्य प्रदेश (25,170 हेक्टेयर) का स्थान रहा।
क्षेत्रीय स्तर पर, मध्य भारत को 218 दिनों के साथ चरम मौसमी घटनाओं की उच्चतम पुनरावृत्ति का सामना करना पड़ा, इसके बाद उत्तर पश्चिम में यह समय 213 दिनों का रहा। जान गंवाने के मामले में, मध्य क्षेत्र में सबसे अधिक मौतें (1,001) हुईं, इसके बाद दक्षिणी प्रायद्वीप में 762 मौतें, पूर्व और पूर्वोत्तर में 741 मौतें और उत्तर-पश्चिम में 734 मौतें हुईं।
सीएसई की पर्यावरण संसाधन टीम की कार्यक्रम निदेशक और रिपोर्ट के लेखकों में से एक किरण पांडे कहती हैं, - “2024 में 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चरम मौसम के दिनों में वृद्धि देखी गई, जबकि कर्नाटक, केरल और उत्तर प्रदेश में से हर एक में चरम मौसम की 40 या उससे ज्यादा अतिरिक्त घटनाएं देखी गईं।’
रिपोर्ट को पढ़ना जरूरी
डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्रा के मुताबिक, -“इस चरम मौसम रिपोर्ट कार्ड को पढ़ना जरूरी है क्योंकि यह न केवल ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति बल्कि उनके कारण होने वाले कुल और दूरगामी नुकसान का भी खुलासा करता है। यह उन तंत्रों की तत्काल जरूरत को रेखांकित करता है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को मानवीय चेहरा देते हुए उसके नुकसान को सटीकता से दिखाती हैं।’
सीएसई के शोधकर्ताओं का कहना है कि यह रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण बदलाव पर रोशनी डालती है, चरम मौसमी घटनाओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आना जरूरी है। इसमें आपदा पर प्रतिक्रिया से लेकर जोखिम में कमी और लचीलापन- निर्माण जैसी चीजें शामिल हैं। उदाहरण के लिए, बाढ़ प्रबंधन के लिए कागजी योजनाओं से कहीं ज्यादा ड्रेनेज और पानी के रिचार्ज जैसे तंत्रों के रणनीतिक विकास की जरूरत होती है। इसके साथ ही यह रिपोर्ट भविष्य के तूफानों की तैयारी में प्राकृतिक जल भंडार के रूप में कार्य करने के लिए विस्तारित हरित स्थानों और जंगलों के साथ-साथ जल निकासी और पानी को दोबारा भरने वाले तंत्र की जरूरत का आह्वान भी करती है।
रिपोर्ट में अधिक नुकसान के लिए जिम्मेदार उच्च उत्सर्जन वाले देशों से जलवायु क्षतिपूर्ति की जरूरत पर भी जोर दिया गया। जलवायु मॉडल स्पष्ट हैं - चरम मौसम की घटनाएं अब ज्यादा लगातार और गंभीर होने वाली हैं। सुनीता नारायण के मुताबिक, “यह प्रवृत्ति अब काल्पनिक नहीं रही - यह आज हमारे सामने बढ़ते संकटों में दिखाई देती है। यह रिपोर्ट अच्छी खबर नहीं है लेकिन यह एक आवश्यक चेतावनी है, प्रकृति की प्रतिक्रिया को पहचानने का आह्वान है और इसे कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला सार्थक पैमाने पर किए बिना आज की चुनौतियां कल और बदतर हो जाएंगी।’