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आपदा

वायनाड हादसे के सबक, सीखो और बदलो या फिर तबाही झेलो

हमें यह सीखने की जरूरत है कि लोगों की जमीन का संरक्षण कैसे किया जाए और जिसमें उनकी सहभागिता भी हो

Sunita Narain

वायनाड जिले में हृदयविदारक भूस्खलन के लिए कौन और क्या जिम्मेदार है, जिसने कई लोगों की जानें ले लीं। यह वही सवाल है जो मैंने अपने पिछले कॉलम मेें पूछा था। हालांकि इस हादसे को कई सप्ताह बीत चुके हैं और हमारा ध्यान दूसरी विनाशकारी आपदाओं की ओर चला गया है लेकिन फिर भी यह सवाल महत्वपूर्ण है।

मैंने विस्तार से बताया था कि इस आपदा में जलवायु परिवर्तन की भूमिका किस तरह से थी, लेकिन आंतरिक तौर पर नहीं। पश्चिमी घाटों का ये क्षेत्र इंसानी गतिविधियों के चलते आपदाओं को लेकर पहले से संवेदनशील रहा है।

लेकिन इसके अलावा दूसरा सवाल भी है, जो स्पष्ट तौर पर मुझे परेशान करता है, वह यह कि इन संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोग संरक्षण की कोशिशों का विरोध क्यों करते हैं? वे जानते हैं कि वे उस कहावत की तरह उसी डाल को काट रहे हैं, जिस पर वे बैठे हैं, फिर किया क्या जा सकता है।

पहले वायनाड में चल रही विकास संबंधी गतिविधियों को समझते हैं। मेरे सहयोगियों, रोहिणी कृष्णामूर्ति और पुलाहा रॉय ने इनकी जांच की और पाया कि यह हादसा तो जैसे बस होने का इंतजार कर रहा था।

यह भूस्खलन वेल्लीरिमला गांव के मुंडक्कई वार्ड के पास हुआ। मैं इसकी बात इसलिए कर रही हूं क्योंकि यह गांव 2013 में के. कस्तूरीरंगन की कमेटी द्वारा पारिस्थितिक रूप से संवदेनशील पाया गया था। मैं इस कमेटी की सदस्य थी, जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा स्थापित किया गया था, जिसका मकसद पश्चिमी घाटों के ‘स्थायी और न्यायसंगत विकास के लिए’ सर्वांगीण नजरिया अपनाना था।

कमेटी ने यह सिफारिश की थी कि ऐसे गांव, जिनका बीस फीसदी से ज्यादा क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील है, वहां विकास-संबंधी ऐसी गतिविधियों पर कड़ाई से नियंत्रण करना चाहिए, जो क्षेत्र को और ज्यादा संवेदनशील बनाती हो।

इसी वजह से कमेटी ने इन क्षेत्रों में विनाशकारी गतिविधियों, विशेष रूप से खनन और पत्थर खदानों की अनुमति न देने की सिफारिश की थी।

नवंबर 2013 में मंत्रालय ने कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया और एनवायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट के सेक्शन 5 के अंतर्गत निर्देश जारी कर साठ हजार किलोमीटर के विशाल क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील माना और खनन और पत्थर खदान जैसी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया।

हालांकि केरल सरकार ने इसमें सुधार की अपील की और कहा कि उसने अपनी कमेटी की जांच में पाया है कि इस पूरे गांव को संवेदनशील नहीं माना जा सकता, क्योंकि विकास संबंधी गतिविधियों पर रोक लगने का असर दूसरे कामों पर पड़ेगा, जिन्हें नहीं रोका जाना चाहिए।

अब इस पहलू को देखिए - पुलाहा ने वायनाड के इन 13 गांवों में खदानों वाली साइटों की सैटलाइट से मिलीं तस्वीरों को सुपरइम्पोस किया, यानी परत दर परत करके देखा।

ये वही गांव थे, जिन्हें कस्तूरीरंगन की रिपोर्ट में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील माना गया था। उन्होंने इन 13 गांवों में खदानों की 15 साइटें पाईं। एक गांवा नूलपुजहा जिसमें छह खदान साइटें पाईं गई, उसका सारा क्षेत्र वन के तौर पर निर्धारित किया जा चुका है।

और सबसे खराब यह। रोहिणी ने यह खौफनाक जानकारी निकाली कि केरल सरकार ने 2017 में अपने लघु खनिज रियायत नियमों में संशोधन किया और आवासीय भवन के 50 मीटर से अधिक दूर या वन भूमि या पहाड़ी ढलानों में कहीं भी विस्फोटकों के इस्तेमाल की इजाजत दे दी।

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि किसी क्षेत्र में विस्फोट की इजाजत देना और पहाड़ियों को अस्थिर करना। फिर हम क्यों चकित हैं, जब इलाके में घनघोर बारिश हो, जो अपने पीछे तबाही छोड़ जाए। वायनाड का भूस्खलन, इंसान द्वारा लाई गई आपदा थी।

सवाल यह है कि हम क्या करें। इस इलाके के लोग पहले माधव गाडगिल और बाद में कस्तूरीरंगन कमेटी के सुरक्षा नियमों के खिलाफ हैं। यह मैंने तब देखा, जब इस इलाके का दौरा किया।

लोग संरक्षण को बढ़ावा देने वाली उन नीतियों के खिलाफ गलियों में नारे लगा रहे थे, जो प्राकृतिक संरक्षण को बढ़ावा देंगी। आप कह सकते हैं कि वे अपने निहित स्वार्थ से प्रेरित हैं। लेकिन तथ्य यह है कि वे मानते हैं कि अगर उनके इलाके को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील घोषित कर दिया गया तो सरकार उनकी बस्तियों को कब्जे में ले लेगी और खेती करने के उनके तरीकों पर भी पाबंदी लगा देगी।

कुछ हद तक ऐसा उन तरीकों की वजह से भी है, जिनसे हमने कमेटी बनाकर और आदेशों के जरिए संरक्षण किया। साथ ही इसलिए भी क्योंकि खदान जैसी कुछ गतिविधियों पर प्रतिबंध का मतलब है - लोगों का अपने जीवन-यापन के लिए रोजगार खो देना।

हमें आने वाले समय के लिए नीतियां बनाते समय इस बात को अपने जेहन में रखना चाहिए। जलवायु के खतरों के चलते हमें पर्यावरण-प्रबंधन का अपना तरीका बदलना होगा। अगर हम इसमें कामयाब होना चाहते हैं तो जिस तरह से हम पर्यावरण संरक्षण कर रहे हैं, उसमें भी बदलाव लाना होगा।

फिलहाल, यह उस बारे में है - जो नहीं किया जाना चाहिए। यह इस पर आधारित है कि लोग जैविक दबाव (सीमा में विस्तार करने की प्रवृत्ति ) में हैं और जो पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए।

यह सच हो सकता है लेकिन भारत के लिहाज से यह भी एक तथ्य है कि हमारे जंगल और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इलाके वे हैं, जहां लोगों की रिहाईशें भी हैं, वे केवल उजाड़ जंगल नहीं हैं। इन इलाकों को बचाने के लिए हमें संरक्षण की जरूरत है, लेकिन वह समावेशी स्थानीय समुदायों को इसमें भागीदार बनाने के लिए ठोस प्रोत्साहन देने वाला होना चाहिए।

यही वजह है कि कस्तूरीरंगन रिपोर्ट ने पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील गांवों के लिए हरित विकास पैकेज की सिफारिश की थी - प्रकृति की अदला-बदली के लिए कर्ज से लेकर पारिस्थितिक सेवाओं के भुगतान तक की बात की, जिसमें पेड़ों को नहीं काटा जा सकता था और जिसमें विनाशकारी विकास पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत थी।

लोगों को संरक्षण के लिए भुगतान देना होगा। हालांकि यह भी जरूरी है कि हरित इलाकों में जीवन- यापन करने वालों के लिए हम विकास की अलग रणनीति को विकसित करें, जैसे कि इको-टूरिज्म से लेकर चाय या कॉफी का सतत पौधारोपण।

हमें यह सीखना है कि लोगों की जमीन पर संरक्षण कैसे करें और उनकी सहभागिता इसमें किस तरह से हो। जलवायु परिवर्तन के इस समय में वायनाड के सबक स्पष्ट हैं - सीखो और बदलो या फिर तबाही झेलो।