आपदा

अंग्रेजों के लिए लंदन था आज का तैरता-डूबता पटना, 100 साल से पहले का जलभराव

आज जहां नालंदा पटना मेडिकल मौजूद है उसी दक्षिण-पूर्वी किनारे पर कभी एक छोटा सा जंगल और छोटी पहाड़ी भी थी, आज की ही तरह यह इलाका 1901 में भी बरखा होते ही जलमग्न हो जाता था।

Vivek Mishra

यूं तो पीछे लौटना अंतहीन है, क्यों ना सौ-डेढ़ सौ साल पहले के ही पटना का भूगोल टटोल लिया जाए। शायद बिहार के पटना की जलभराव समस्या का पुछल्ला भी पकड़ में आ जाए। आज डूबते और तैरते हुए पटना को जब अंग्रेजों ने करीब 150 बरस पहले गौर से देखा तो पाया कि इस शहर का भूगोल तो यूरोप के लंदन जैसा है।

क्या सचमुच लंदन और पटना का भूगोल एक जैसा है? आइए पहले लंदन फिर पटना शहर की लंबाई मापते हैं। पश्चिम स्थित हैमरस्मिथ ब्रिज से पूरब स्थित लंदन टॉवर के बीच की दूरी कोई 7.5 से 8 मील है। इतना ही लंबा लंदन है। दक्षिणी दिशा में किनारे पर थेम्स नदी बहती है। अब शहर की चौड़ाई भी देखिए उत्तर दिशा में स्थित मार्बल ऑर्क से दक्षिण दिशा में स्थित चेल्सिया ब्रिज की दूरी कोई 2.9 मील है। अंग्रेजों ने पाया यही लंबाई-चौड़ाई कमोबेश पटना की भी है। पटना शहर भी लंबा ज्यादा चौड़ा कम है। 

अब जरा पटना का भी भूगोल देखिए। पटना शहर के पश्चिमी छोर से पूर्वी छोर तक की दूरी कोई 10 मील है। शहर के उत्तर से होते हुए दक्षिणी किनारे तक किनारे-किनारे गंगा बहती हैं। फर्क यही है कि हिमालय से उतरने वाली गंगा को मां का दर्जा है और झरने से फूटने वाले थेम्स को पिता का दर्जा मिला है। वहीं पटना शहर की चौड़ाई भी लंदन जितनी करीब 2 मील है। शहर के पश्चिमी छोर पर सोन नदी का सहारा गंगा को मिलता है।

अब सवाल है कि बरसात होते ही नदियों से घिरे इस 10 मील लंबे और दो मील चौड़े पटना शहर में हर साल जलभराव क्यों होता है? 1907 में प्रकाशित ओ मेली के पटना डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स से पता चलता है कि पटना में पहले दक्षिणी-पूर्वी कोना जहां अभी पुराना शहर पटना सिटी है। यह निचला इलाका बारिश के दौरान डूब जाया करता था। कभी इसी तरफ एक पहाड़ी थी, कुछ जंगल भी था। उत्तर से पूरे शहर का चक्कर लगाकर दक्षिण तक पहुंचने वाली गंगा यहीं से शहर को छोड़ती हैं। अब उत्तर से लेकर पूर्व और दक्षिण कोने पर बसे शहर की बड़ी मार्मिक तस्वीर सामने आती है। यहां नालंदा मेडिकल कॉलेज बना हुआ है। मरीजों के बेड डूब जाते हैं। मेडिकल कॉलेज में मछलियां तैरती हैं। मरीज तड़पता रहता है। यह हर साल का दृश्य है। 

निश्चित ही सरकार और उनके मातहतो के हितों की रक्षा स्थानीय निकायों का परम धरम है। इसीलिए पटना नगर निगम का मास्टर प्लान कहीं चोक हो गए किसी कैनाल या ड्रेनेज में फंसा होगा। एक सदी पहले दक्षिण - पूर्वी कोने वाला निचला इलाका ही डूबता था लेकिन अब समस्या यह है कि उत्तर- पूर्व और मध्य पटना शहर भी डूब रहा है। पटना शहर फैल नहीं पाया, लिहाजा छोटी सी परिधि में आबादी और सरंचनाओ का विसफोट हो गया। 

पटना शहर का बीचो-बीच वाला हिस्सा यानी बोरिंग रोड, बोरिंग कैनाल रोड पटना हाई कोर्ट, डाक बंगला चौराहा, विधानसभा रोड, पाटलिपुत्रा, गांधी मैदान, अशोक पथ आदि-आदि सब डूबने लगा है। ऐसा लगता है कि मकान खरीदने-बेचने और बनाने वालों का मास्टर प्लान देखकर नगर निगम अपना मास्टर प्लान बनाती है। मास्टर प्लान के मास्टरों ने तय किया है कि वह रेंट, लीज, प्रॉपर्टी जैसी चीजों की सुगमता की प्रणाली बनाएंगे लेकिन पानी बहकर नदी, तालाब, जमीन के भीतर पहुंच जाए ऐसी प्रणाली के बारे में बिल्कुल नहीं सोचेंगे। नहीं सोचने का विकल्प बड़ा खतरनाक है। 

प्रणाली शब्द पर ही जल-थल-मल के लेखक और पर्यावरण के जानकार सोपान जोशी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि नाली शब्द अपभ्रंश है संस्कृत शब्द प्रणाली का, जिसका मतलब है नहर। हमारे उपमहाद्वीप में साल भर का पानी मानसून के कुछ दिनों के कुछ घंटों में ही बरस जाता है। इस पानी को ठीक से सहेजने की प्रणाली पर ही यहां का जीवन टिका है। चतुर्मास की बरसात ही इस उपमहाद्वीप की जीवन प्रणाली है। पानी की आवक-जावक पर ध्यान दिए बिना यहां किसी तरह की बस्ती टिक नहीं सकती।

इस बार अनियमित और बेकाबू बरसात के दौरान पटना शहर यह बताता है कि उसका जख्म नासूर बन चुका है। बोरिंग कैनाल रोड से राजापुर रोड तक यही प्रणाली काम नहीं कर रही है। वहीं शहर के उत्तर पूर्व राजेन्द्र नगर, नाला रोड, दिनकर गोलम्बर व पुनाईचक हो या करबिगहिया सब डूब रहे। 

पटना में ड्रेनेज के समाधान की समस्या एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है हालांकि अब जलभराव में जो पानी की ऊंचाई का स्तर है वह सड़क पर खड़े आदमी के नाक से ऊपर पहुंच गया है। इसलिए शोर स्वाभाविक है। पटना नगर निगम की वेबसाइट पर इंजीनियरिंग के कोने में हांफ रहे ड्रेनेज के पन्ने पर क्लिक करिए तो बताता है कि साइट अंडर कंस्ट्रक्शन है। यानी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। शहर के लोगों को भी ड्रेनेज की जानकारी तब तक नहीं चाहिए जबतक उनके घरों में पानी न चला जाए।

पटना नगर निगम अपने पैदा होने का इतिहास 15 अगस्त, 1952 से बताता है। वहीं, ओ मेली का गजेटियर बताता है कि 1864 में म्यूनिसपल बोर्ड के अधीन पटना नगर पालिका बनी। तब भी जलभराव था और उसका कहना था कि मेरे पास ड्रेनेज दुरुस्त करने के लिए पैसा नहीं है। यह समस्या आज भी अधिकारी दबी जुबान रटा करते हैं। 

पैसे से समस्या हल नहीं होनी है। इसीलिए न तब हल हुई और न अब होगी।  अंग्रेज हमारा भूगोल निहारते थे क्योंकि उन्हें हमारे कीमती संसाधनो से मतलब था। उनकी प्राथमिकता में हमारा दमन प्रमुख था। लेेकिन सरकार की प्राथमिकता में क्या है यह समझना भी उतना जटिल नहीं है। 

1864 के म्यूनिसपल बोर्ड की परम चिंता क्या थी? चिंताओं की सूची में ड्रेनेज सबसे ऊपर है। ओ मेली के गजेटियर के मुताबिक 1900 के आस-पास यह चिंता हुई कि पटना को सबसे बड़ी और तात्कालिक जरूरत एक अच्छे ड्रेनेज सिस्टम की है। जिसमें निकासी के पर्याप्त प्रावधान किए जाएं। नगर पालिका ने हाथ खड़े कर दिए। यह हाथ आज तक खड़े ही हैं। उस वक्त सिर्फ चकाचौंध वाले शहर नहीं थे। खेती भी थी तो सिंचाई के साधन भी थे। जल संचय के संसाधन भी थे। कूप, तालाब, नहरे भी थीं। शहर के पांव पड़े और जलसंचय के निशान मिट गए।

इस वक़्त का पूरा शोर पानी को निकाल देने पर है। सिर्फ निकासी और निकासी। यह बला टल जाए बस। फिर सूखा जब होगा तब देखा जायेगा। तीन दिन की बारिश में पटना में करीब 30 छोटी झील के बराबर पानी गिरा है।  29 अरब लीटर पानी पटना में बरसा है। इस पानी का छोटा सा हिस्सा भी कहीं सुरक्षित हो जाता तो थोड़ी मुश्किल शायद कम हो जाती। पहले संचय फिर निकासी के बारे में सोचना शायद उचित होगा। 

क्या चाहकर भी अब ड्रेनेज व्यवस्था बेहतर हो सकती है? पटना में जिस तरह से आबादी की सघनता बढ़ी है पुराने नालों की सफाई और नए नालों के लिए जगह निकालना एक बड़ी चुनौती है। ऐसा होगा 150 वर्षों का इतिहास देखकर नहीं लगता।

पटना की प्राकृतिक नाली भी तो रही होगी। गजेटियर के मुताबिक दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर एक प्राकृतिक नाली थी। वहीं, दक्षिणी छोर पर गया से पटना आने वाली फल्गु नदी का भी अस्तित्व था। आज न फल्गु नदी है न ही यह प्राकृतिक नाली। सब घरों-भवनों के कंकरीट समंदर में समा गए। नदियों के प्राकृतिक मार्गों को भी नुकसान पहुंचाया गया। उत्तरी सिरे पर गंगा किनारे शहर के निर्माण का जबरदस्त दबाव है। हाजीपुर पुल पर खड़े होकर यह दबाव साफ दिखाई देता है। गर्मियों में पानी के लिए तरस जाने वाला पटना, गंदे पानी में डूब रहा है। 

पटना का एक अर्थ पार ऑफ एक्सीलेंस भी है। अब यह स्मार्ट भी बनने जा रहा है। पटना नगर निगम को जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र, प्रॉपर्टी, रेंट, लीज, रेड़ी - पठरी वालों से कर वसूलने के अलावा अपने खड़े हाथों को जमीन की तरफ लाना चाहिए। अन्यथा घरों से नेताओं को भी झोला बिस्तर लेकर सड़क पर आना होगा।  बारिश थमते ही निगम को किसी चोक ड्रेनेज में फंसे हुए अपने मास्टर प्लान को भी निकाल लेना चाहिए। धूप में सुखाकर उस मास्टर प्लान पर प्रणाली की रेखाएं खींचनी होंगी नहीं तो माथे पर चिंता की रेखाएं अनगिनत हो जाएंगी।