आपदा

महाराष्ट्र सूखा योजना: दस साल, 9,630 करोड़ खर्च, फिर भी महज 487 लोगों के लिए पानी

विशेषज्ञों का कहना है कि मराठवाड़ा में सूखा स्पष्ट रूप से मानव निर्मित आपदा है, जिसके लिए जल संसाधनों का कुप्रबंधन जिम्मेवार है

Himanshu Nitnaware, Lalit Maurya

सरकार ने महराष्ट्र को सूखे से बचाने के लिए जो योजना पेश की थी, वो एक दशक के प्रयास और करीब 10,000 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद विफल रही है। गौरतलब है कि इससे सरकार को बहुत ज्यादा उम्मीदें थी, लेकिन यह योजना पूरी तरह नाकाम रही है।

जलयुक्त शिवार अभियान (जेएसए) 34 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के साथ केवल 24 हजार क्यूबिक मीटर (टीसीएम) जल भंडारण क्षमता तैयार करने में कामयाब रहा है।

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक सुष्मिता सेनगुप्ता के मुताबिक, पानी की यह मात्रा महज 487 लोगों को एक साल तक पानी की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त होगी। यह गणना 135 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के मानक पर आधारित है। यह मानक 2001 की  जनगणना के अनुसार, एक लाख या उससे अधिक की आबादी वाले टियर I शहरों को ध्यान में रखकर तय किया गया है।

गौरतलब है कि इस योजना का लक्ष्य मिट्टी और जल संरक्षण उपायों को लागू करके 2019 तक महाराष्ट्र को सूखा प्रतिरोधी बनाना था। इसके तहत सीमेंट बैराज के निर्माण के साथ-साथ जल निकायों को गहरा और चौड़ा करना, उसमें से गाद निकालना जैसी गतिविधियों की मदद से जल निकायों में सुधार करना शामिल था।

वहीं भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा 2020 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य सरकार ने जलयुक्त शिवार अभियान के तहत 22,586 गांवों में 630,000 जल संरक्षण परियोजनाएं चलाईं थी, जिससे सरकारी खजाने पर 9,630 करोड़ रुपए का खर्च आया था।

सिर्फ जेएसए ही नहीं, 2016-17 के एक अन्य नीतिगत कदम में, राज्य सरकार ने जल संरक्षण और संचयन के लिए खेत तालाब बनाने के लिए किसानों को सब्सिडी देने की एक योजना शुरू की थी। इसके पहले ही वर्ष में, 35 लाख आवेदन प्राप्त हुए।

इसके अलावा, 2018 में, राज्य ने जलवायु का सामना करने योग्य खेती-किसानी (पीओसीआरए) पर एक परियोजना शुरू की थी, जिसे नानाजी देशमुख कृषि संजीवनी प्रकल्प के नाम से जाना जाता है। इसका लक्ष्य मराठवाड़ा में 15 जिलों के 5,142 गांवों में हाशिये पर जी रहे किसानों की अनुकूलन क्षमताओं को बढ़ाना था।

इस परियोजना की कुल लागत 4,000 करोड़ रुपए आंकी गई। इसमें से 30 फीसदी राज्य सरकार द्वारा खर्च किया जाना था, जबकि शेष के लिए विश्व बैंक ने वित्त प्रदान किया था।

2012 में महाराष्ट्र जल नीति के अस्तित्व में आने के बाद से राज्य सरकार ने एकीकृत वाटरशेड विकास कार्यक्रम, मराठवाड़ा जल ग्रिड परियोजना, गालमुक्त धरन और गालयुक्त शिवार जैसी विभिन्न योजनाएं और पहल लागू की हैं। हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद सरकार महाराष्ट्र के किसानों और ग्रामीणों को राहत देने में नाकाम रही है।

नहीं बची एक भी बूंद

अप्रैल में जैसे-जैसे गर्मी अपने चरम पर पहुंच रही है, मराठवाड़ा क्षेत्र गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। इसके आठ में से पांच जिलों में 953 सरकारी और निजी टैंकरों की मदद से पीने के पानी की आपूर्ति की जा रही है। पानी के टैंकरों की सबसे अधिक संख्या छत्रपति संभाजीनगर (पूर्व में औरंगाबाद) जिले में है, जहां 443 टैंकर हैं, इसके बाद जालना में 321 और बीड में 117 टैंकर हैं।

छत्रपति संभाजीनगर जिले की पैठन तालुका के कडेथन गांव के एक किसान भागवत खड़ग का कहना है कि करीब 5,000 लोगों की आबादी वाला यह गांव पिछले एक महीने से सरकारी टैंकरों के भरोसे है। उन्होंने बताया, "हमारे जल स्रोत जैसे कुएं और भूजल सूख गए हैं। गांव में रोजाना दो पानी के टैंकर आते हैं, जिनमें से प्रत्येक में 20,000 लीटर पानी होता है।"

खड़ग का कहना है कि ग्रामीण पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए निजी टैंकरों पर भी निर्भर हैं। 5,000 लीटर के निजी टैंकर के लिए उन्हें 800 रुपए तक चुकाने पड़ रहे हैं। उनका आगे कहना है कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी, पानी की जरूरत बढ़ने के साथ-साथ इसकी कीमतों में भी वृद्धि होगी। उनके मुताबिक इस टैंकर की लागत 1,500 रुपए तक पहुंच सकती है।

वहीं पड़ोसी जिले बीड के अंबेसावली गांव के किसान धनंजय गुंडेकर का कहना है कि उनका गांव को भी कडेथान जैसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि, “हम पानी के टैंकरों पर हर महीने करीब 40,000 तक खर्च कर रहे हैं।“

हालांकि, गुंडेकर का कहना है कि अंबेसावली कुछ हद तक बेहतर स्थिति में है। उनके मुताबिक अंबेजोगाई तालुका, जहां यह स्थित है, अक्टूबर में 30 मिलीमीटर बारिश हुई थी, जिससे लोगों को थोड़ी राहत मिली। उन्होंने यह भी बताया कि चुनौतियों के बावजूद गांव में विभिन्न योजनाओं के तहत जल संरक्षण कार्य जारी हैं।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की प्रबंधन सूचना प्रणाली के अनुसार, 2021 और 2023 के बीच, छत्रपति संभाजीनगर ने जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन, पारंपरिक जल निकायों और टैंकों का नवीनीकरण, संरचनाओं का पुन: उपयोग और पुनर्भरण, वाटरशेड विकास और वनीकरण से संबंधित 1,891 कार्य पूरे किए थे।

छत्रपति संभाजीनगर के अलावा, मराठवाड़ा क्षेत्र के अन्य जिलों ने भी इसी तरह के कार्य पूरे किए थे। इनमें धाराशिव (पूर्व में उस्मानाबाद) में 1,471, हिंगोली में 575, जालना में 8,352, लातूर में 1,862 और नांदेड़ में 1,294 कार्यों को अंजाम दिया गया।

हमेशा से ऐसा नहीं था मराठवाड़ा

इस बारे में पैठन तालुका के 60 वर्षीय किसान कैलाश तवर ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) को बताया कि 2020, 2021 और 2022 ही ऐसे वर्ष थे जब उन्हें पानी के लिए टैंकरों की जरूरत नहीं पड़ी। इन वर्षों में हमारे यहां पर्याप्त बारिश हुई, जो हमारी जल संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी थी। हालांकि, 1972 में भीषण सूखा पड़ने के बाद से, क्षेत्र के किसानों को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।"

दुर्भाग्य से स्थिति बिगड़ती जा रही है। भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी (जीएसडीए) के अनुसार, 2014 और 2019 के बीच महाराष्ट्र की 353 में से 245 तालुकाओं के गांवों में भूजल का स्तर एक से तीन मीटर तक गिर गया है। गुंडेकर ने याद करते हुए बताया कि 1984 में उनके बचपन के दौरान भूजल 200 फीट पर मौजूद था।

उनका आगे कहना है कि, “लेकिन 2018 के बाद से भूजल के स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। 2016 के बाद से जल स्तर 500 फीट से गिरकर 1,000 फीट पर पहुंच गया है।“आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र के 8,993 गांवों और बस्तियों में पानी के टैंकरों की संख्या मई 2015 के पहले सप्ताह में 1,814 से बढ़कर 2019 में इसी अवधि के दौरान बढ़कर 5,174 पर पहुंच गई है।

गुंडेकर ने डीटीई को समझाया कि, "पहले, सरकार पानी की आपूर्ति के लिए एक किलोमीटर के दायरे में मौजूद नजदीकी जल स्रोतों का उपयोग करती थी। लेकिन अब, हम ग्रामीणों के लिए पानी जुटाने के लिए उन्हीं टैंकरों को मध्यम जल भंडारण बांध तक पहुंचने के लिए 18 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है।"

जलवायु परिवर्तन राज्य को कहीं अधिक संवेदनशील बना रहा है। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) द्वारा 2022 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 50 वर्षों में महाराष्ट्र में सूखे की घटनाओं में सात गुणा वहीं बाढ़ की घटनाओं में छह गुणा की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

विशेषज्ञ मराठवाड़ा के साथ-साथ महाराष्ट्र में इस गंभीर स्थिति के लिए कई कारकों को जिम्मेवार मानते हैं। छत्रपति संभाजीनगर के एक अनुभवी अर्थशास्त्री एच एम देसरडा का कहना है कि जलयुक्त शिवार अभियान और जल बैराजों से गाद निकलना जैसी सरकारी पहल ‘अवैज्ञानिक’ थी।

देसरडा ने योजना के वैज्ञानिक तरीके से कार्यान्वयन पर सवाल उठाते हुए एक जनहित याचिका भी दायर की है। इसमें उन्होंने कहा है कि, "कोई भी योजना रिज-टू-वैली दृष्टिकोण का पालन नहीं करती है, जो जलग्रहण क्षेत्रों से पानी को रोकने और जलभृतों को रिचार्ज करने की ओर मोड़ने में सक्षम बनाती है।"

पूर्व उद्धव ठाकरे सरकार ने योजना की जांच शुरू की और इसके कार्यान्वयन में अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए बाद में इसे रोक दिया।

2016 में, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि योजनाओं के कार्यान्वयन ने स्थानीय हाइड्रोज्योलॉजी पर नकारात्मक प्रभाव डाला है और जल आवंटन और निष्पक्षता को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं।

मार्च 2022 में प्रकाशित एक शोध पत्र चैलेंजिंग टुडेज वॉटर थ्रेट्स फॉर ए टेनेबल टुमॉरो: ए रिव्यू ऑफ पॉलिसीज एंड प्रोग्राम्स इन द वॉटर सेक्टर ऑफ महाराष्ट्र ने महाराष्ट्र में जल संकट के लिए योजनाओं के खराब कार्यान्वयन, शासन और योजनाओं के प्रति अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को दोषी ठहराया था।

रिसर्च पेपर के मुख्य लेखक ईश्वर काले का कहना है कि, “खेत तालाबों ने भूजल के व्यापक दोहन और भंडारण को बढ़ावा दिया है।“ उनके मुताबिक समृद्ध किसानों ने जल संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करने के लिए योजना का फायदा उठाया है। योजना का प्रारंभिक लक्ष्य वर्षा जल को एकत्र करना था, लेकिन इनके कार्यान्वयन में कमी रही है।

2020 की सीएजी ऑडिट रिपोर्ट से पता चला कि 'जल तटस्थ' घोषित किए गए 80 गांवों में से केवल 29 ही सही मायनों में मानदंडों पर खरे उतरे हैं। अन्य गांवों की भंडारण क्षमता उनके दावों से कम थी।

ऑडिट से पता चला कि जलयुक्त शिवार अभियान के कार्यान्वयन के बावजूद, छह चयनित जिलों में पानी के टैंकरों की मांग 2017 में 3,368 से बढ़कर 2019 में 67,948 पर पहुंच गई।

अतीत में छिपा है मौजूदा समस्या का हल

इसके अलावा, सीएजी ने पाया कि खोदे गए कुओं और बोरवेलों में वृद्धि के चलते भूजल के दोहन में वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त, कई जल संरचनाओं में संरचनात्मक दोष और अन्य समस्याएं थी। अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि नीतियों के खराब कार्यान्वयन के अलावा भूजल और जलभृतों के दोबारा पुनर्भरण के प्रयासों को मोटे तौर पर नजरअंदाज किया गया।

देसरडा का कहना है कि नीतियों को लागू करने में अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अलावा, जिम्मेदार शासन की कमी थी।

उनका आगे कहना है कि, "जेएसए ने किसानों को खेत के तालाबों का उपयोग करके नकदी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया है, जिससे मूल्यवान संसाधनों का दोहन तेज हो गया। मराठवाड़ा में गन्ने की खेती और चीनी कारखाने काफी हद तक भूजल के दोहन पर निर्भर हैं।"

देसरदा ने जोर देकर कहा कि, "मराठवाड़ा में सूखा स्पष्ट रूप से मानव निर्मित आपदा है, जिसके लिए पानी का कुप्रबंधन जिम्मेवार है।"

प्रोफेसर देसरदा का सुझाव है कि, "नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करके और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर, हम वर्षा छाया क्षेत्र में जल संकट का समाधान कर सकते हैं।" "मराठवाड़ा में हर साल औसतन 771 मिलीमीटर बारिश होती है। ऐसे में यदि हम इस वर्षा जल का प्रभावी ढंग से उपयोग करते हैं, तो इस संकट को कम कर सकते हैं।"

उनका आगे कहना है कि, शायद, इस बारहमासी सूखाग्रस्त क्षेत्र का समाधान अतीत में छिपा है। अहमदनगर सल्तनत के सिद्दी पेशवा (प्रधान मंत्री), मलिक अंबर और मुगल सम्राट औरंगजेब, जो पहले दक्कन के मुगल वाइसराय थे, जैसे शासकों ने निरंतर जल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए वाटरशेड प्रबंधन संरचनाओं को लागू किया।"

"मलिक अंबर ने खड़की शहर भी स्थापित किया था, जिस पर बाद में औरंगजेब ने कब्जा कर लिया और इसका नाम बदलकर 'औरंगाबाद' रख दिया गया।"

लगभग 300 साल पुरानी ये नालियां, प्राचीन रोम के जलसेतुओं की तरह ही गुरुत्वाकर्षण का उपयोग करके लंबी दूरी तक पानी पहुंचाती थी। ऐसी ही एक उल्लेखनीय संरचना, थट्टे नेहर या नेहर-ए-अंबारी है, जो 12 किमी दूर स्थित हरसूल नदी से जलमार्गों के माध्यम से पानी ले जाती है।

यह जल प्रणाली सालाना करीब 10,000 लोगों की पेयजल संबंधी जरूरतों को पूरा करने में मदद करती। देसरडा ने जोर देकर कहा कि, "हमें ऐसे वैज्ञानिक-आधारित हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जहां रिज-टू-वैली दृष्टिकोण का उपयोग करके वाटरशेड कार्यक्रम लागू किए जाएं।"