आपदा

उत्तराखंड: रायपुर जैसी अपदाओं को रोकने के लिए पूर्वानुमान प्रणाली को मजबूत करना जरूरी

2013 में केदारनाथ की आपदा के बाद उत्तराखंड की पूर्व-चेतावनी प्रणाली में सकारात्मक और नकारात्मक बदलाव आए हैं, जिनमें नकारात्मक बदलावों को कम करना महत्वपूर्ण है

Anand Sharma

केदारनाथ में बादल फटने की दिल दहलाने वाली उस घटना को लगभग एक दशक पूरा होने वाला है, जिसमें कई लोगों की जान गई थी। इसके बावजूद, आज भी बादल फटने और आकस्मिक बाढ़ की घटनाएं जारी हैं। बादल फटने की ताजा घटना, पिछले सप्ताहांत में देहरादून के रायपुर ब्लॉक में हुई। इसमें कम से कम सात लोगों की मौत हो चुकी है और कुछ अन्य लापता हैं।

मौसम की जो परिघटना केदारनाथ में बादल फटने के लिए जिम्मेदार थी, वह रायपुर की ताजा परिघटना के मुकाबले शक्तिशाली थी। उसने बड़े परिक्षेत्र पर असर डाला था। जिस परिघटना के चलते रायपुर में बादल फटा, वह काफी हद तक उत्तराखंड में ही केंद्रित थी, खासकर टिहरी और देहरादून जिलों में।

मैंने एक शोध-पत्र का अध्ययन किया था। मैं नई दिल्ली में बाढ़ मौसम कार्यालय का प्रभारी भी था। मैं जानता था कि दिल्ली में बाढ़, पश्चिमी हवाओं और पूर्वी हवाओं के बीच पारस्परिक क्रिया के चलते आई थी। मैं उस प्रणाली की खोज कर रहा था और इसलिए मैं भविष्यवाणी करने मे सक्षम था। मैं पूर्वानुमान की जानकारी को लगातार अपग्रेड भी कर रहा था।

इससे पता चलता है कि सिस्टम की जानकारी होना एक चीज है, परंतु जल्द चेतावनी जारी करने में बहुत कुछ लगातार निगरानी रखने और पूर्वानुमान करने वाले व्यक्ति की अंतःप्रेरणा पर भी निर्भर करता है।

मैंने बहुत सरल भाषा में पूर्वानुमान का फॉर्मूला बनाया था। वह था - ‘अगर कोई व्यक्ति पहाड़ों में है, तो उसे मैदानी इलाकों में जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति मैदानों में है, तो उसे पहाड़ों की ओर नहीं जाना चाहिए। चार-धाम तीर्थ स्थलों के लिए अपनी यात्रा में देरी करें और अपनी यात्रा का पुनर्निर्धारण करें। क्योंकि बहुत भारी बारिश होगी तो भूस्खलन होगा ही।' 

रायपुर में बादल फटने की घटना में नई जानकारी यह है कि उत्तराखंड का मौसम विभाग, उस आपदा की भविष्यवाणी करने में सक्षम ही नहीं था। इसलिए पहली बात तो यह है कि इस तरह की कोई चेतावनी ही जारी नहीं हुई थी।

दूसरा, लोग इन दिनों पहाड़ियों में प्राकृतिक जलकुंडों और ढलानों पर निर्माण-कार्य करा रहे हैं। प्रशासन इन्हें रोकने के लिए कुछ खास प्रयास नहीं कर रहा है। पहाड़ों में अब बाढ़ की बजाय आकस्मिक बाढ़ आ रही हैं। ऐसे में अब, अगर 5-6 सेंटीमीटर बारिश भी होती है, तो उसका पानी चट्टान, तलछट और मिट्टी के साथ मिल जाता है और ढलानों से नीचे गिर जाता है।

अगर इसके रास्ते में निर्माण-कार्यो के ढांचों और बिल्डिंगों के रूप में रुकावटें आती हैं तो फिर इसक मलबा कहां जाएगा ? उत्तराखंड के बनने के बाद ही पिछले दो दशकों से यहां इस तरह के निर्माण-कार्य हुए हैं और इनमें से ज्यादातर अनियोजित निर्माण-कार्य हैं।

केदारनाथ आपदा के एक दशक बाद

केदारनाथ में 2013 की आपदा के एक दशक बाद, दो-तीन बदलाव आए हैं। इनमें से पहला यह है कि निर्माण के ढांचे उसी जगह पर बनाए जा रहे हैं, जहां पहले ऐसी चरम मौसम की घटनाएं हो चुकी हैं।

उदाहरण के लिए, लोगों ने मुझे बताया कि केदारनाथ की घाटी और उसके आसपास के इलाकों में, जहां 2013 में तबाही आई थी, फिर से कई ढांचों की साइटें बन गई हैं। इसका मतलब तो यही है कि लोगों ने उस हादसे से कोई सबक नहीं लिया।

दूसरा, 2013 के बाद तकनीक तो पहले से बेहतर हो गई है लेकिन रडार, वास्तविक रूप से बादल फटने या आकस्मिक बाढ़ से केवल दो घंटे पहले ही चेतावनी देता है।

उदाहरण के लिए, केदारनाथ प्रणाली की भविष्यवाणी की जा सकती थी और कम से कम चार दिन पहले चेतावनी दी जा सकती थी। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि शुरू में कोई सिस्टम मजबूत न हो।

हालांकि तब तूफानी बादल बनते हैं और दो घंटे के अंदर बादल फट जाते हैं। यह भी रडार की पकड़ में आ सकता है, लकिन मान लीजिए कि ऐसा रात में होता है, तो उस वक्त इसकी निगरानी कौन कर रहा होगा ? हमें अमेरिका की तरह चौबीसों घंटे निगरानी करने की जरूरत है।

पूर्व चेतावनी प्रणाली के चार घटक होते हैं। इसमें पहला, जोखिम और भेद्यता विश्लेषण है। हमें पता होना चाहिए कि कौन से क्षेत्र, विशेष रूप से आकस्मिक बाढ़ और मलबे के प्रति संवेदनशील हैं।

दूसरा घटक, मौसम की निगरानी और भविष्यवाणी है। तीसरा यह है कि आपने इसकी  भविष्यवाणी  तो कर दी कि बादल फटने या आकस्मिक बाढ़ की घटना हो सकती है लेकिन इतना काफी नहीं है। आपको इसके साथ ही प्रशासन और आमजन को समय से इसकी जानकारी भी साझा करनी होगी।

चौथा घटक, सरकार की प्रतिक्रिया है। अगर आपने संवेदनशील क्षेत्रों में बेतरतीब निर्माण की अनुमति दे रखी है तो लोगों को जल्दी से बाहर निकालें।

ये चारों घटक मिलकर एक श्रंखला के अंदर एक दूसरे से लिंक बनाते हैं। इसमें यदि एक भी कड़ी कमजोर है, तो आपकी पूर्व चेतावनी प्रणाली नाकाम हो जाएगी।

केदारनाथ में यही हुआ था। वहां पर आपदा की भविष्यवाणी की गई थी, निगरानी भी की जा रही थी और अलग- अलग घटकों के बीच संवाद भी था, लेकिन जोखिम और संवेदनशीलता वाले क्षेत्रों का कोई विश्लेषण नहीं था। इसके अलावा सरकारी प्रतिक्रिया भी दयनीय रही थी।

रायपुर के मामले में कोई पूर्व चेतावनी नहीं थी। बेतरतीब निर्माण इस बार भी पहले की तरह था। इस बार आपदा का समय रात के दो बजे था। उत्तराखंड के लिए यही सबक है कि उसे पूर्व चेतावनी प्रणाली में सुधार लाना ही होगा।

(आनंद शर्मा आईएमडी के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक हैं और फिलहाल वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून में अतिथि संकाय हैं। व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं और यह जरूरी नहीं कि वे  डाउन टू अर्थ के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों)