हिमालय के ऊपरी हिस्से में आई अचानक बाढ़ (फ्लैश फ्लड), जिसने कई जानें लेने के अलावा गंगा नदी पर बने दो जलविद्युत संयंत्रों को भी नष्ट कर दिया, दरअसल हमारी उन गलतियों का परिणाम है, जिन्हें हम आज भी दोहरा रहे हैं। यह तबाही क्यों हुई, इसका पता लगाने के लिए किसी रॉकेट साइंस की आवश्यकता नहीं है।
हिमालय विश्व की सबसे नई बनी पर्वत श्रृंखलाओं में से है, जिसके कारण क्षरण एवं भूस्खलन के अलावा उच्च भूकंपीय गतिविधि और अस्थिरता का खतरा भी बना रहता है। इस खतरे को हमारे विकास की पागल दौड़ ने और भी अधिक जटिल कर दिया है। मैं आगे बताऊंगी कि ऐसा क्यों कह रही हूं।
हमने एक के बाद एक जलविद्युत परियोजनाएं बना रखी हैं। इसके साथ-साथ जलवायु परिवर्तन और उसके परिणामस्वरूप हिमनदों (ग्लेशियरों) के गर्म होने और बेमौसम सर्दी एवं गर्मी ने पहले से ही नाजुक परिस्थितिकी तंत्र पर गहरा आघात पहुंचाया है।
रैणी गांव, जहां महिलाओं ने सबसे पहले पेड़ों की कटाई रोकी थी। इसे भारत की पर्यावरणीय चेतना का जन्मस्थान भी माना जाता है। यहां के ग्रामीणों ने 7 फरवरी, 2021 को एक जोरदार धमाका सुना। इसके कुछ मिनटों के भीतर ही कीचड़ और मलबे का यह अंबार 13.2 मेगावाट की ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को अपनी चपेट में ले चुका था।
उसके बाद बारी थी, 520 मेगावाट क्षमता वाली निर्माणाधीन तपोवन-विष्णुगाढ़ परियोजना की। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस तबाही के पीछे का कारण क्या था। क्या ग्लेशियर पिघला था? या फिर बेमौसम बर्फबारी जिम्मेदार थी? या फिर दोनों साथ-साथ? जो हम जानते हैं, वह यह है कि एक भूस्खलन अथवा हिमस्खलन हुआ, जिसने नदी के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया और जब पानी के बल के कारण यह प्राकृतिक बांध टूटा तो बर्फ, पत्थरों और गाद से भरा हुआ यह हजारों किलोलीटर पानी तबाही का कारण बना। यह ध्यान रखने योग्य बात है कि यह फ्लैश फ्लड सर्दियों के मौसम में आया है, जब नदी में पानी कम होता है, इसलिए तबाही भी तुलनात्मक रूप से कम हुई है।
यह भविष्य में होनेवाली किसी भयावह दुर्घटना की चेतावनी हो सकती है। यह साफ है कि जब तक हम पर्यावरण के प्रति अपने व्यवहार को नहीं बदलते, तब तक इस तरह की घटनाओं की संख्या में कमी तो नहीं आएगी, बल्कि इजाफा ही होगा। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये दुर्घटनाएं तभी रुकेंगी, जब हम इन परियोजनाओं पर पूरे ध्यान से विचार करें और इनके प्रभावों की भी सतत समीक्षा हो।
यहीं आकर हम गलती कर जाते हैं। इन विकास परियोजनाओं के प्रभावों का आकलन करने एवं उसके अनुसार निर्णय लेने की हमारी प्रणाली पहले से ही काफी कमजोर थी, जो अब लगभग अस्तित्वहीन हो चुकी है। निर्णय लेने की ये प्रक्रियाएं पूरी तरह से अनाम समितियों द्वारा पूरी की जाती हैं, जहां वांछित परिणामों के लिए कागजात में फेरबदल तक किया जाता है।
यहां हमें हिमालय की गाथा को समझना होगा। मैंने इसे पास से तब देखा था, जब मैं 2013 में गंगा से संबंधित मुद्दों पर बने एक अंतर-मंत्रालयीय समूह की सदस्य थी। इस दौरान मुझे जो जानकारी मिली, वह निराशाजनक होने के साथ-साथ भयावह भी थी। जल एवं विद्युत इंजीनियरों द्वारा की गई गणना के अनुसार गंगा की जल-विद्युत क्षमता 9,000 मेगावाट तय की गई, जिसे 70 छोटी एवं बड़ी परियोजनाओं के माध्यम से पूरा किया जाना था।
उन्होंने स्वयं यह माना था कि ये परियोजनाएं उत्तराखंड हिमालय के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में नदी के कुल 80-90 प्रतिशत हिस्से को प्रभावित करती हैं। इनमें से अधिकांश “रन ऑफ द रिवर” परियोजनाएं हैं, जहां पानी को सुरंगों या जलाशयों के माध्यम से नदी से निकाला जाता है और फिर उसे नदी में दोबारा छोड़ दिया जाता है।
इसका मतलब यह हुआ कि नदी अपने प्राकृतिक रास्ते पर न बहकर एक ऐसी धारा के रूप में बहेगी, जिसका 80-90 प्रतिशत तक का हिस्सा कृत्रिम होगा। इन परियोजनाओं को पानी की आखिरी बूंद तक का दोहन करने के लिए डिजाइन किया गया था और डिजाइनरों ने माना कि कम वर्षा वाले मौसम में नदी प्राकृतिक रूप से बहना बंद कर देगी।
अंतर-मंत्रालयीय समूह को इसका आकलन करके आवश्यक पारिस्थितिक प्रवाह के बारे में मार्गदर्शन करना था। इंजीनियरों ने कहा कि 10 प्रतिशत पारिस्थितिक प्रवाह नदी के लिए पर्याप्त होगा, उनका तर्क था कि उन्होंने इसी तरह कई परियोजनाओं को डिजाइन किया था।
जलविद्युत संयंत्रों के निर्माण में हर प्रकार के लोगों ने रुचि दिखाई। ऊर्जा उद्योग और निर्माण से लेकर नेताओं तक ने इन संयंत्रों को अपने क्षेत्र के विकास अवसरों के तौर पर देखा। लेकिन अब जब परियोजनाओं की सूची सबके सामने थी (जिनमें से 6,000 मेगावाट से अधिक का निर्माण बाकी था) तब सवाल यह उठा कि इसे उचित कैसे ठहराया जाए।
मैंने कहा कि परियोजनाओं को दोबारा डिजाइन किए जाने की आवश्यकता थी, ताकि नदी का पारिस्थितिक प्रवाह अधिक पानी वाले मौसम का 30 प्रतिशत और कम पानी वाले मौसम का 50 प्रतिशत हो। मेरा तर्क यह था कि परियोजनाओं को नदी के प्रवाह की नकल करनी चाहिए थी, न कि इसके उलट।
मैंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर की गई व्यापक गणनाओं के आधार पर यह दिखाया कि दोबारा डिजाइन किए जाने पर भी परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन इसका मतलब था कि हमें परियोजनाओं की संख्या में भारी कटौती करने की आवश्यकता होगी। यह स्वीकार्य नहीं था।
मैंने तब लिखा था कि कैसे रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के जलविद्युत शोधकर्ताओं ने 8 महीने के लिए पारिस्थितिक प्रभाव के 25 प्रतिशत और कम प्रवाह वाले मौसम में 30 प्रतिशत तक के बहाव को सही ठहराया था। ये परियोजनाएं मिलकर गंगा को सुखा देंगी और हमारे राष्ट्र की सामूहिक चेतना की प्रतीक यह नदी एक कृत्रिम नाले में तब्दील होकर रह जाएगी। किसी को इससे कोई समस्या नहीं थी।
मेरी असहमति नोट कर ली गई और साथ ही साथ रिपोर्ट को भी मंजूरी मिल गई, जैसा हमेशा होता है। 2013 के बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और अदालतों से लेकर सरकारों तक ने इन परियोजनाओं पर लगाम लगाने की बात की है। लेकिन इन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद जमीनी स्तर पर आज तक कुछ नहीं किया गया है।
वर्तमान में इस नाजुक क्षेत्र में 7,000 मेगावाट की परियोजनाएं या तो संचालित हो रही हैं या निर्माणाधीन हैं। ये नदी के प्राकृतिक प्रवाह को ध्यान में रखे बिना एक के बाद एक लगातार बनाई जा रही हैं। असली मुद्दा जल विद्युत उत्पादन, ऊर्जा अथवा विकास की आवश्यकता नहीं है। असली मुद्दा है, इस नाजुक क्षेत्र की वहन क्षमता जो जलवायु परिवर्तन के कारण और भी अधिक दबाव में है।
इस परिस्थिति का आकलन किए जाने की आवश्यकता है, लेकिन उसके लिए हमें नदी को पहले और अपनी आवश्यकताओं को बाद में रखने की जरूरत है। अगर ऐसा न हुआ तो नदी हमें इसी तरह कड़वे सबक सिखाती रहेगी। हम प्रकृति के प्रतिशोध एवं कोप के भागी बनेंगे और तब मानवता को अपनी तुच्छता का असली अहसास होगा।