केदारनाथ आपदा के वक्त जून 2013 में तबाही का मंजर झेल चुके सेमी गांव (उखीमठ ब्लॉक) में लगभग 12 साल बाद भी वीरानी पसरी है। मंदाकिनी नदी के तट पर बसे सेमी गांव केदारनाथ मार्ग से लगा है। मार्ग के ठीक नीचे बने एक घर में बैठी विमला देवी एक और विस्थापन की चिंता से डरी हुई हैं। 2013 की आपदा में उनका घर टूट गया था।
प्रशासन ने पूरी तरह क्षतिग्रस्त न मानते हुए उनके पति मनोहर लाल को चार लाख रुपए का मुआवजा दिया और घर छोड़ कर कहीं और रहने का फरमान सुनाया। कई साल तक वे अपने परिवार के साथ टिन शेड में रहते रहे, लेकिन खेती की जमीन गांव में होने के कारण वे अपने परिवार के साथ लौट आए और अपनी बची जमीन पर दो साल पहले दो कमरे बना दिए, लेकिन इस साल हुई बारिश के बाद उनके नए घर में भी दरारें आने लगी हैं। हालात यह बन गए हैं कि रात को जब भी थोड़ी भी तेज बारिश होते ही उन्हें केदारनाथ तबाही याद आ जाती है और वह अपने पूरे परिवार के साथ घर छोड़ देते हैं।
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के इस गांव के नीचे से बह रही मंदाकिनी नदी के किनारों से कटाव हो रहा है। इस कटाव को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई सिंगोली भटवाड़ी जल विद्युत परियोजना के बांध ने, जो गांव के ठीक नीचे बना है।
लोगों का कहना है कि गांव के नीचे सुरक्षा दीवार सिर्फ एक छोटे से हिस्से में बनाई गई। कुछ जगहों पर दीवार बनाने की जगह वहां से पत्थर हटा दिये गये, जिससे कटाव और ज्यादा बढ़ गया और केदारनाथ मार्ग के लगभग एक किलोमीटर लंबे हिस्से को धंसाव क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। इसी मार्ग के नीचे विमला देवी का मकान है। यहां लगभग एक दर्जन नए मकानों में दरारें देखी जा रही हैं।
ऐसी ही एक और विमला देवी (पत्नी महिपाल लाल) के कारण अपना आशियाना गंवा चुकी हैं। 17-18 सितंबर की रात चमोली जिले के नंदानगर इलाके के तीन गांवों में खूब तबाही हुई। विमला देवी के गांव का नाम फाली लगा साउनटनोला है। इसके अलावा कुंतरी लगा फाली और कुंतरी लगा सैंती में हुई तबाही में सात लोग मारे गए। इनमें मां की गोद से चिपटे दो जुड़वा बच्चे भी शामिल हैं।
लगभग एक किलोमीटर के दायरे में बसे इन तीन गांवों के ऊपर पहाड़ी से छह जगह मलबा आया था। इनमें से दो तो बड़े नाले थे, लेकिन यहां पानी कम रहता था, बाकी चार जगह पिछले कई दशक से लोगों ने बरसाती पानी या मलबा आते नहीं देखा था।
सैंती लगा कुंतरी निवासी 72 वर्षीय चंद्रमणि सती कहते हैं, “आज तक ऐसी बारिश नहीं देखी।” खास बात यह है कि इन तीनों गांव के लोग पहले अपने प्राचीन गांव फाली व सैंती में रहते थे, लेकिन 29 मार्च 1999 को उत्तराखंड के चमोली जिले में आए 6.8 तीव्रता के भूकंप के कारण इन गांवों में भूधंसाव शुरू हुआ तो ये परिवार सुरक्षित जगह की तलाश में चुफला गाड़ के दूसरी ओर बस गए, लेकिन आपदा ने इस साल उन्हें यह से विस्थापित कर दिया।
अब दो दर्जन से अधिक परिवार एक आश्रम में रह रहे हैं, जहां लगभग दो सप्ताह तक प्रशासन की ओर से भोजन मुहैया कराया गया, लेकिन अब ये परिवार अपने हाल में रह रहे हैं। विमला देवी के देवर व ग्राम प्रधान रह चुके राजू लाल बताते हैं कि प्रशासन अनुसूचित जाति के परिवारों को मुआवाजा तक नहीं दे रहा है, क्योंकि भूकंप के वक्त जब उनके परिवार यहां आए थे तो ग्राम पंचायत ने उन्हें यह बसने को कहा था और लिखित में भी दिया था, लेकिन प्रशासन का जवाब है कि जिस जमीन पर वे बसे थे, वो उनकी जमीन नहीं है।
इसके अलावा इसी इलाके के धूर्मा गांव में भी इसी दिन तबाही हुई थी। यहां भी भूकंप की वजह से 1999 में जिन लोगों के घर टूटे थे। कोई दूसरी जगह न मिलने के कारण उन्होंने वहीं घर बना लिए, लेकिन 18-19 सितंबर 2025 की अतिवृष्टि में फिर से उनके घर टूट गए। यहां दो लोगों की मौत हुई।
उत्तराखंड के इन दो विमला देवी की तरह राज्य में हजारों लोग हैं, जो एक जगह से उजड़ कर दूसरी जगह बसते हैं, लेकिन आपदाएं उन्हें वहां से भी उखाड़ देती हैं। हालात यह हैं कि अब राज्य में कोई ऐसी सुरक्षित जगह नहीं मिल पा रही है, जहां विस्थापितों को बसाया जाए। साल 2025 उत्तराखंड के लिए भारी तबाही लाया है।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग की रिपोर्ट बताती है कि 1 अप्रैल से 13 अक्टूबर 2015 के दौरान आपदाओं में 138 लोगों की मौत हुई, जबकि 156 घायल हुए और 89 लापता हुए हैं। राज्य भर में 685 घर पूरी तरह या गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुए हैं, जबकि 129 गोशालाएं भी ढह गईं। ऐसे में अब बड़ा सवाल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में उजड़ रहे लोग अब कहां बसेंगे, क्योंकि राज्य में सुरक्षित जगह को तालाशना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि राज्य में 465 गांव ऐसे हैं, जिन्हें संवेदनशील माना गया है और इन गांवों को कहीं और बसाया जाना है, परंतु कहां? उत्तराखंड में राज्य में प्राकृतिक आपदा से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास एवं विस्थापन के लिए 2011 में पुनर्वास नीति लागू की गई थी, जिसमें साल 2017 में संशोधन किया गया। इसके बाद 31 दिसंबर 2021 को संशोधन किया गया। इस नीति में कहा गया है कि विस्थापन के लिए जमीन का चयन प्रभावित क्षेत्र के निकट सुरक्षित स्थल एवं उसी जनपद में होना चाहिए।
विस्थापन के लिए निजी भूमि, राजस्व भूमि, पंचायत भूमि, अन्य एवं जहां आवश्यकता हो वहां परिवारों के विस्थापन के लिए वन भूमि की हस्तांतरण की कार्यवाही की जाए एवं विस्थापित परिवारों की संवेदनशील व अनुपयोगी भूमि (असुरक्षित भूमि) वन विभाग को हस्तांतरित की जाए। इस पुनर्वास नीति में स्पष्ट किया गया है कि यदि विस्थापन के लिए प्रभावित परिवारों को निजी भूमि उपलब्ध नहीं हो पाती है तो उपलब्ध राजस्व या पंचायत भूमि के अधिग्रहण व हस्तांतरण की कार्यवाही जिला अधिकारी स्तर पर की जाएगी।
बेशक 2021 में पुनर्वास नीति में संशोधन किया गया हो, लेकिन राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक चार अक्टूबर 2021 तक 83 गांवों और 1,447 परिवारों का पुनर्वास किया गया और प्रभावितों को 61.02 करोड़ रुपए की राशि वितरित की गई है। गांवों के विस्थापन को लेकर धीमी रफ्तार के लिए राज्य में सुरक्षित जगहों का अभाव बताया जाता है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जनवरी 2023 में एक बड़े भूधंसाव का शिकार हुए जोशीमठ के लोगों के लिए ढाई साल से अधिक समय बीतने के बाद भी अब तक कोई सुरक्षित जगह नहीं ढूंढ़ी जा सकी है।
जोशीमठ नगर पालिका क्षेत्र के चार वार्ड (1, 4, 5, 7) को असुरक्षित घोषित किया गया है। जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती कहते हैं कि तकरीबन तीन महीने पहले हमें बताया गया कि विस्थापित परिवारों के लिए जगह तलाश ली गई है, लेकिन उसके बाद कोई सूचना नहीं दी गई। उनके मुताबिक प्रशासन जिस जगह की बात कर रहा है, वह औली के नजदीक सरकारी भूमि है, जो भूगर्भ विशेषज्ञों की जांच के बाद सुरक्षित बताई जा रही है।
चूंकि जोशीमठ का मामला काफी सुर्खियों में रहा और स्थानीय लोग पुनर्वास की मांग को लेकर लगातार आंदोलनरत हैं, इसलिए प्रशासन सक्रिय नजर आता है, परंतु राज्य के दूसरे इलाकों में आपदाओं की वजह से विस्थापित परिवारों को नगद मुआवजा राशि देकर अपनी किसी भूमि पर मकान बनाने की सलाह दी जा रही है।
ऐसे में जिन लोगों के पास अपनी जमीन नहीं बची, उन्हें मुआवजा तक नहीं मिल रहा है। 21 अक्टूबर 2022 को चमोली जिले के थराली ब्लॉक के पेनगढ़ आपदा के शिकार परिवार के पास जमीन न होने के कारण मुआवजा भी नहीं मिला। इस आपदा में गोविंद सती की मां, दो भाई व भाभी की मृत्यु हो गई थी। सती बताते हैं कि उनके गांव के उन लोगों को लगभग 6 लाख रुपए मिले, जिनकी अपनी जमीन थी और उन्होंने वहीं अपने मकान बना लिए।
इसी तरह पुनर्वास नीति में विस्थापित लोगों को दूसरे गांवों में बसने की बात कही गई है, लेकिन जून 2021 में आपदा का शिकार हुए चमोली जिले के गांव रैणी के विस्थापित अभी भी गांव में रह रहे हैं, क्योंकि उनके लिए जिस गांव सुभाई का चयन किया गया था, वहां की ग्राम पंचायत ने इसके लिए इनकार कर दिया था।
यही वजह है कि पुनर्वास का सवाल बड़ा होता जा रहा है। उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग के अधीन कार्यरत संस्थान आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र के निदेशक रह चुके पीयूष रौतेला बताते हैं कि उनके कार्यकाल तक 450 गांवों की सूची तैयार हो चुकी थी, जिन्हें संवेदनशील मानते हुए दूसरी जगह शिफ्ट किया जाना था, लेकिन यह काम बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि हर साल 10 से 20 गांवों के नाम विस्थापन सूची में जुड़ जाते हैं।
इस साल के मानसून ने सबसे ज्यादा जख्म हिमाचल प्रदेश को दिए हैं। यही वजह है कि पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री से मुलाकात कर मांग की कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन कर बेघर हो चुके लोगों को बसाने की इजाजत राज्य सरकार को दी जाए। उत्तराखंड सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की थी कि वन अधिनियम में छूट दी जाए, लेकिन अब तक कोई सकारात्मक उत्तर नहीं आया है। साल 2021 में अपनी पुनर्वास नीति में प्रावधान करके उत्तराखंड सरकार की भी कोशिश है कि वन भूमि में पुनर्वास का प्रयास किया जाए। परंतु 2021 से लेकर अभी तक कोई ठोस पहल नहीं की गई है। रौतेला कहते हैं कि नीति में तो इस तरह का प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन चूंकि ऐसा करना आसान नहीं है, इसलिए राज्य सरकार की ओर से कोई ठोस प्रयास भी नहीं किए गए। रौतेला सवाल करते हैं, “हर साल आपदा प्रभावित संख्या बढ़ रही है, आखिर कितने लोगों को वन भूमि पर बसाया जा सकता है?”
राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “वन भूमि पर पुनर्वास की इजाजत देना व्यवहारिक भी नहीं है और पर्यावरण की दृटि से भी ठीक नहीं है, क्योंकि वन भूमि पर गांव बसने से न केवल हजारों की संख्या में पेड़ कटेंगे, बल्कि आसपास के जंगलों को भी नुकसान पहुंचेंगा। इतना ही नहीं, जंगली जानवरों की वजह से लोग भी वहां बसने में अरुचि दिखा सकते हैं।”
हालांकि पुनर्वास नीति में कहा गया है कि पीड़ितों की आपदाग्रस्त जमीन को वनीकरण के लिए इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन यह अधिकारी कहते हैं कि ऐसा करना आसान नहीं होगा, क्योंकि क्षतिग्रस्त व ऊसर जमीन पर वनीकरण संभव नहीं हो पाता।
एक ओर जहां आपदाओं की वजह से बेघर हो रहे लोगों के लिए वन भूमि को डायवर्ट करने के मुद्दे पर वन विभाग व केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा रहा है, वहीं राज्य में सड़कों, बांधों व पर्यटन के लिए वन भूमि का डायवर्जन लगातार जारी है।
साल 2023 में जारी भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में उत्तराखंड सरकार के वन भूमि के उपयोग में बदलाव मामलों में गंभीर खामियाँ उजागर की गई। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014 से 2022 के बीच राज्य सरकार ने कुल 2,144 मामलों में 15,083.76 हेक्टेयर वन भूमि को गैर-वन प्रयोजनों जैसे सड़क, जलविद्युत परियोजनाएं, पर्यटन और सार्वजनिक निर्माण के लिए केंद्र को प्रस्तावित किया।
गौरतलब है कि वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के दिशा-निर्देशों के अनुसार, किसी भी वन भूमि को गैर-वन प्रयोजन हेतु उपयोग करने से पहले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से अनुमति लेना अनिवार्य है। यह मंजूरी दो चरणों में दी जाती है- पहला, सैद्धांतिक (स्टेज एक) और दूसरा, अंतिम (स्टेज-दो)। पहले चरण में क्षतिपूरक भूमि की उपलब्धता और वनीकरण की शर्तें तय होती हैं, जबकि दूसरे चरण में सभी शर्तों के पालन के बाद अंतिम अनुमति दी जाती है।
कैग रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड में इन प्रस्तावों में से 679 मामलों (3,947 हेक्टेयर) को अंतिम मंजूरी मिली, 782 मामलों (2,025 हेक्टेयर) को केवल प्रारंभिक स्वीकृति दी गई, जबकि 683 मामले (9,110 हेक्टेयर) अब भी प्रक्रिया में हैं। ऑडिट अवधि 2019–2022 के दौरान 1,850 हेक्टेयर वन भूमि गैर-वन कार्यों के लिए डायवर्ट की गई और 3,377 हेक्टेयर भूमि क्षतिपूरक वनीकरण हेतु चिन्हित की गई। लेकिन कई परियोजनाओं में वनीकरण और भूमि हस्तांतरण की शर्तों का पूर्ण अनुपालन नहीं हुआ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि “राज्य सरकार की मशीनरी की कार्यक्षमता कमजोर रही और निगरानी प्रणाली पर्याप्त नहीं थी।” ऑडिट में पाया गया कि उत्तराखंड में 52 मामलों में 188.62 हेक्टेयर वन भूमि पर बिना अनुमति सड़क निर्माण कार्य शुरू कर दिए गए। जबकि दिशा-निर्देशों के अनुसार, सक्षम प्राधिकारी की औपचारिक अनुमति मिलने से पहले वन भूमि पर कोई कार्य नहीं किया जा सकता, परियोजनाओं के लिए भी चरण-1 स्वीकृति के बाद एक वर्ष की अस्थायी अनुमति आवश्यक होती है। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, उत्तराखंड के संयोजक तरुण जोशी कहते हैं कि सरकार का रवैया पक्षपातपूर्ण रहता है।
चार धाम मार्ग सहित कई ऐसी परियोजनाओं के लिए पेड़ काटने या गैर वनीकरण की इजाजत देने में कोई लेट लतीफी नहीं होती, लेकिन पुनर्वास या पुनर्स्थापन के लिए वनीकरण की इजाजत नहीं दी जाती है और मजबूरन लोग ऐसी जगहों पर बस रहे हैं, जहां फिर से आपदा उन्हें विस्थापित कर देती है। खास बात यह है कि कुछ बड़ी परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए परिवारों को दशकों पहले वन भूमि पर तो बसाया गया, लेकिन उन्हें जमीन का मालिकाना हक नहीं मिल पा रहा है।
लगभग 125 गांव और एक भरेपूरे शहर को डुबोने वाले टिहरी बांध परियोजना के विस्थापितों को बसाया तो गया, लेकिन अभी भी कई परिवारों को उनकी जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला है। दरअसल कई परिवारों को उस समय वन भूमि पर बसाया गया था, लेकिन विस्थापितों को 35 साल बाद पता चला कि उन्हें इस बात का पता चला, इसके बाद से वे जमीन का मालिकाना हक पाने के लिए भटक रहे हैं।
टिहरी बांध के लिए विस्थापितों की पहली सूची में शामिल था डोब गांव। डोब गांव के विस्थापितों को हरिद्वार के पथरी क्षेत्र में बसाया गया। साल 1980 में 440 परिवारों को 200 वर्ग मीटर एवं दो एकड़ खेती की जमीन प्रति परिवार दी गई। इसके अलावा सामुदायिक जगह भी दी गई। लोगों ने इसका नाम टिहरी डोब ग्राम रख दिया। इसके बाद यहां पथरी पार्ट दो, पार्ट तीन व पार्ट चार पर टिहरी से विस्थापित अन्य गांवों के परिवारों को भी बसाया जाने लगा।
इन तीन पार्ट को टिहरी भागीरथी नगर, घोंटी गांव, और छाम ग्राम नाम दिया गया। पहाड़ पर रहने वाले लोगों को सीढ़ीदार खेती की बजाय समतल जमीन पर खेती करना आसान नहीं था। रहन-सहन, खान-पान सब बदल गया। जीवन में कभी गन्ने की खेती नहीं की थी, लेकिन यहां आकर गन्ने की खेती शुरू की गई। शुरुआत में लोगों को दिक्कत हुई, लेकिन कुछ साल बाद गांव के लोगों ने एक दूसरे का सुख-दुख साझा करते हुए रहने लगे। परंतु बाद के दशकों में यहां के लोगों ने अपनी पंचायतों की आवश्यकता महसूस की और सरकारों से राजस्व ग्राम का दर्जा मांगना शुरू किया।
लंबी जद्दोजहद के बाद साल 2015 में पार्ट एक यानी डोब गांव को छोड़ कर शेष तीन गांव को राजस्व ग्राम का दर्जा तो मिल गया, लेकिन कागजी खोजबीन में पता चला कि उनका पूरा इलाका वन भूमि के अधीन है। डोब गांव को राजस्व ग्राम का दर्जा इसलिए नहीं मिला, क्योंकि वह इलाका रिजर्व फॉरेस्ट की श्रेणी में आता है, जबकि शेष इलाका गैर आरक्षित वन भूमि के दायरे में आता है। हालांकि इन सभी परिवारों को अब तक भूमि के मालिकाना हक से संबंधित कागजात नहीं मिल पाए हैं। और लगभग एक दशक से पथरी के चारों पार्ट में रहने वाले लोग जमीन के मालिकाना हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
जिन क्षेत्रों में आपदा आई, वहां की जमीन न केवल उपजाऊ है, बल्कि वहां लोग खेती भी कर रहे थे। सरकार को चहिए कि वह ऐसी जमीन का आंकड़ा भी तैयार करे कि आपदाओं की वजह से कितने क्षेत्रफल में फैली उपजाऊ खेती भी तबाह हो गई। यह इसलिए भी जरूरी है कि राज्य के एक बड़े हिस्से में लोग खेती छोड़ रहे हैं और खेत बंजर हो रहे हैं। 28 अगस्त 2025 की सुबह लगभग 6:00 बजे स्यूड़ गांव से गुजर रहे एक गदेरे में अचानक मलवा आना शुरू हुआ और यह मलवा गदरे के दोनों और स्थित खेतों में फैलता चला गया।
गदेरे के किनारे स्थित एक मकान जो गुमान सिंह का था, वह पूरी तरह ध्वस्त हो गया। गांव निवासी मदनलाल बताते हैं कि उनके व उनके परिवार के 21 खेत पूरी तरह से बर्बाद हो गए हैं। अभी तक प्रशासन ने उनके खेतों की एवज में कुछ भी मुआवजा नहीं दिया है।
आपदा से पहले उनके खेतों में धान लहलहा रही थी, जिसे कुछ दिन बाद ही काटना था, लेकिन उससे पहले ही अचानक आई बाढ़ ने सब तबाह कर दिया। हालात ऐसे हैं कि खेतों में अब कुछ भी लगाने की हालत नहीं दिखती। खेतों में बड़े-बड़े पत्थर व मलबा जमा है। मदनलाल कहते हैं, “गांव में आमदनी का कोई जरिया नहीं है। अपने खेतों में इतना अनाज हो जाता था कि साल भर खाने की चिंता नहीं रहती थी, लेकिन अब पता नहीं दोबारा खेत बुआई लायक हो पाएंगे या नहीं।”
मदन लाल सवाल पूछते हैं- “हम लोग एक जगह से उजड़ रहे हैं दूसरी जगह बस रहे हैं, लेकिन आपदा वहां भी पीछा नहीं छोड़ रही, तब फिर हम आखिर कहां जाएं?”