पूरे सीजन में बूंद-बूंद बारिश और बर्फबारी के लिए तरसने के बाद फरवरी के अंत में उत्तराखंड में जमकर बारिश और बर्फबारी तो हुई, लेकिन साथ ही एक बुरी खबर भी आई।
28 फरवरी 2025 को चमोली जिले में बदरीनाथ और माणा के बीच एवलांच की चपेट में आने से सीमा सड़क संगठन के 57 मजदूर बर्फ में दब गये। दो दिन तक चले रेस्क्यू ऑपरेशन के बाद 49 मजदूरों को बचा लिया गया, लेकिन आठ मजदूरों की जान चली गई।
चमोली के डीएम ने घटना की पुष्टि की, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि वहां सुचारु रूप से संचार की कोई व्यवस्था नहीं है और लगातार हो रही बर्फबारी के कारण वहां तक हेलीकॉप्टर से जाना भी संभव नहीं है। चमोली पुलिस ने घटनास्थल के कुछ फोटोग्राफ जारी किये हैं, जिनमें मजदूर कुछ लोगों को कंघों पर लादकर ले जाते नजर आ रहे हैं।
खबरों के अनुसार यह घटना दोपहर के आसपास हुई। माणा और माणा बाइपास के बीच घिसतौली में सीमा सड़क संगठन के 57 मजदूर सड़क से बर्फ हटाने का काम कर रहे थे, जब वे एवलांच की चपेट में आ गये। एक अन्य सूचना के अनुसार एवलांच सुबह 5 बजे के करीब आया, जब बर्फ हटाने वाले सीमा सड़क संगठन के मजदूर अपने टीन शेड में सो रहे थे।
बदरीनाथ के कपाट बंद हो जाने के बाद से लेकर यह पूरा इलाका वीरान रहता है, लेकिन सामारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण सीमा सड़क संगठन इस क्षेत्र में हमेशा तैनात रहता है और सड़क से बर्फ हटाने के काम हमेशा चलता रहता है।
उत्तराखंड में पिछले दो दिन से हो रही बारिश और बर्फबारी के कारण ऊंचाई वाले सभी इलाकों में भारी बर्फबारी से सड़कें बंद हो गई थी। जोशीमठ से आगे नीती और माणा घाटी में भी सड़कें जगह-जगह बंद हो गई।
यह पहला मौका नहीं है, जब इस हिमालयी क्षेत्र में एवलांच से इस तरह की घटना हुई है। 2021 के मार्च में धौली गंगा के कैचमैंच क्षेत्र में भी एवलांच के चपेट में आने से 8 से 10 मजदूरों की मौत हो गई थी। इसी साल 7 फरवरी के ऋषिगंगा तबाही को हम भूले नहीं।
यह घटना ऋषिगंगा के कैचमेंट क्षेत्र में हैंगिंग ग्लेशियर के टूटने हुई थी। इस घटना में रैणी में जल विद्युत संयंत्र पूरी तरह से नष्ट हो गया था और तपोवन में निर्माणाधीन परियोजना में सैकड़ों मजदूरों की मौत हो गई थी। वैज्ञानिकों के अनुसार हाल के सालों में बर्फबारी दिसम्बर जनवरी के बजाय फरवरी और मार्च में शिफ्ट हो गई है। इस मौसम में बर्फबारी होने से एवलांच के खतरा ज्यादा बढ़ जाता है।
सूखा गया सर्दी का सीजन
उत्तराखंड सहित पूरे उत्तर भारत में सर्दी का मौसम इस साल लगभग सूखा गया। इस दौरान एक या दो दिन कुछ जगहों पर बहुत बारिश तो हुई, लेकिन यह बारिश सामान्य बारिश का सिर्फ 9 प्रतिशत ही थी। आम तौर पर एक जनवरी से 15 फरवरी तक उत्तराखंड में 75.7 मिमी बारिश होती है, लेकिन इस वर्ष इस अंतराल में सिर्फ 6.9 मिमी बारिश हुई थी।
27 फरवरी को बारिश शुरू हुई तो 24 घंटे के भीतर राज्य में 37.1 मिमी बारिश हो चुकी थी, जो 24 घंटे के दौरान सामान्य से 1339 प्रतिशत ज्यादा थी। 24 घंटे के दौरान हुई इस बारिश के कारण पूरे सीजन में बारिश का अंतर 91 प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत रह गया। इसके बाद भी 28 फरवरी को पूरे दिन बारिश जारी रही। यानी कि पूरे सीजन में जितनी बारिश होनी चाहिए थी, उतनी सिर्फ दो दिन में हो गई।
देर से बारिश एवलांच का खतरा
उत्तराखंड वानिकी और उद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के हेड एसपी सती कहते हैं कि कल जब बारिश शुरू हुई थी तो उन्होंने एवलांच की आशंका जाहिर की थी।
वे कहते हैं कि पहले उच्च और मध्य हिमालयी क्षेत्र में दिसम्बर और जनवरी के महीने में बर्फबारी होती थी। उस समय जमीन काफी ठंडी रहती है, जिससे ताजी बर्फ की पकड़ जमीन पर मजबूत हो जाती है, लेकिन अब बर्फबारी दिसम्बर जनवरी के बजाय फरवरी और मार्च में हो रही है।
सती के मुताबिक इस मौसम में जमीन दिसम्बर-जनवरी के मुकाबले गर्म हो जाती है और ताजा पड़ने वाली बर्फ का घनत्व कम होता है। यह ताजी बर्फ जमीन पर पकड़ नहीं बना पाती। ऐसे में जब ज्यादा बर्फबारी होती है कि नीचे की जमीन पर कमजोर पकड़ वाली बर्फ खिसक जाती है और एवलांच की स्थिति बन जाती है।
मार्च 2021 में धौलीगंगा के कैचमेंट एरिया में आया एवलांच भी इसी तरह की घटना थी। उन्होंने बर्फबारी का मौसम शिफ्ट हो जाने के कारण आने वाले सालों में इस तरह की घटनाएं और ज्यादा होने की आशंका जताई है।
सती कहते हैं कि बर्फबारी के सीजन में यह बदलाव ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है और हिमालय ही नहीं पूरे विश्व के ग्लेशियरों के लिए यह एक बड़ा खतरा है। वे कहते हैं कि दिसम्बर-जनवरी में बर्फबारी के बाद जब मौसम खुलता है तो पाला पड़ता है और यह पाला ताजा पड़ी बर्फ को मजबूत कर देता है, जो बाद में ग्लेशियर का हिस्सा बन जाती है।
लेकिन, फरवरी और मार्च में पड़ने वाली बर्फ मौसम खुलने के साथ ही पिघल जाती है और यह बर्फ ग्लेशियर के रूप में परिवर्तित नहीं हो पाती। इसका सीधा अर्थ है कि आने वाले सालों में ग्लेशियर का क्षेत्रफल लगातार कम होते रहने की आशंका है। इसी के साथ फरवरी और मार्च के महीने में होने वाली बर्फबारी से एवलांच की संख्या बढ़ने की भी संभावना है।