आपदा

48 साल बाद पर्यावरण और अपना अस्तित्व बचाने के लिए रैणी गांव ने फिर कसी कमर

हाई कोर्ट में याचिका रद्द होने के बाद रैणी गांव के लोग अब सीमित संसाधनों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहे हैं

Trilochan Bhatt

चिपको आंदोलन के गांव रैणी के लोगों ने एक बार फिर पर्यावरण बचाने के लिए कमर कस ली है। उत्तराखंड हाई कोर्ट में बेशक उन्हें सफलता न मिल पाई हो, लेकिन लोगों के हौसले पस्त नहीं हुए हैं। मामूली खेती-बाड़ी और पशुपालन करके थोड़ी-बहुत कमाई कर लेने वाले जनजातीय रैणी गांव के लोग अपनी मेहनत की कमाई में बचाई गई छोटी-छोटी रकम जमा करके उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के मन बना चुके हैं। इसके लिए दो दिन पहले रैणी में हुई पंचायत में सर्वसम्मति से सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लिया गया। 

48 वर्ष पहले की तरह ही इस बार भी रैणी गांव की लड़ाई पर्यावरण और अपना अस्तित्व बचाने को लेकर है। 1973 में गौरा देवी, बाटी देवी, चंद्री देवी, ऊमा देवी, रुप्सा देवी, डुका देवी, चिलाड़ी देवी और मूसी देवी जैसी महिलाओं द्वारा स्थापित की गई परंपरा को अब उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी ने आगे बढ़ाने के लिए कमर कस ली है। इस बार मुद्दा उच्च हिमालयी क्षेत्र में तबाही का कारण बन रही जल विद्युत परियोजनाओं की मंजूरी को निरस्त करना और 7 फरवरी की तबाही के बाद खतरे की जद में आ चुके अपने गांव रैणी को किसी सुरक्षित जगह पर विस्थापित करना है।

इस मामले को लेकर पिछले दिनों रैणी गांव और जोशीमठ के पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उत्तराखंड हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। लेकिन, हाई कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने इस याचिका को खारिज कर दिया और याचिका दायर करने वाले पांचों लोगों पर जुर्माना भी लगा दिया।

चिपको महिलाओं का जनजातीय रैणी गांव ऋषिगंगा के किनारे बसा हुआ है और गांव से कुछ ही दूरी पर धौली गंगा भी है। रैणी गांव का कुछ हिस्सा ऋषिगंगा के इस तरफ और कुछ भाग दूसरी तरफ है। गांव के साथ ही ऋषिगंगा पर एनटीपीसी की 13 मेगावाट की ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना थी। इस वर्ष 7 फरवरी को ऋषिगंगा में हुई जलप्रलय में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से ध्वस्त हो गया और गांव का निचला हिस्सा बह जाने के कारण गांव पूरी तरह असुरक्षित हो गया। इस घटना में आधिकारिक रूप से 206 लोग लापता हुए थे। 88 लोगों के शव बरामद हुए थे।

इसके बाद रैणी गांव के लोगों ने विस्थापन की मांग शुरू कर दी थी, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। 17-18 जून को इस गांव को एक बार फिर से आपदा का सामना करना पड़ा। इस बार गांव का निचला हिस्सा टूटकर ऋषिगंगा में बह गया। इसमें जोशीमठ-मलारी राजमार्ग का कई मीटर लंबा हिस्सा भी शामिल था। यह सड़क सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। सड़क बनाने के लिए गांव की तरफ पहाड़ी खोदी गई। ठीक इसी जगह गौरा देवी की प्रतिमा लगी थी और साथ में एक छोटा गेस्ट हाउस व प्राइमरी स्कूल भी था। सड़क बनाने के लिए  प्रतिमा, गेस्ट हाउस और प्राइमरी स्कूल को हटाना पड़ा। गौरा देवी के प्रतिमा अब जोशीमठ तहसील में रखी गई है।

इस नई घटना के बाद रैणी के लोगों ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर बसाने की मांग तेज कर दी। जब इस पर प्रशासन की ओर से गंभीरता नहीं दिखाई गई तो ग्राम प्रधान भवान सिंह ने गांव में पंचायत बुलाई। पंचायत में तय किया गया कि इस मामले को लेकर नैनीताल हाई कोर्ट में दस्तक दी जाए। भवान सिंह बताते हैं कि, सबसे बड़ी समस्या पैसे की थी। इस जनजातीय गांव में लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन है। ज्यादा ठंड के कारण यहां फसलें भी गिनी-चुनी होती हैं। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि गांव वाले हाई कोर्ट जाने के लिए पैसे की व्यवस्था कर पाएंगे, लेकिन इसी पंचायत में लोगों ने मेहनत से जुटाई गई अपनी छोटी-मोटी धनराशि हाई कोर्ट जाने के लिए जमा कर दी।

नैनीताल हाई कोर्ट में पांच लोगों की तरफ से याचिका दायर की गई। इनमें रैणी गांव के ग्राम प्रधान भवान सिंह, इसी गांव के निवासी पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य संग्राम सिंह, गांव के ही निवासी और गौरा देवी के पोते सोहन सिंह, जोशीमठ के कांग्रेस नेता और सामाजिक कार्यकर्ता कमल रतूड़ी और सामाजिक कार्यकर्ता व भाकपा (माले) की राज्य कमेटी के सचिव अतुल सती शामिल हैं। याचिका में चार बिन्दुओं को शामिल किया गया।

1. 7 फरवरी को पूरी तरह नष्ट हो चुकी ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना और उस दौरान निर्माणाधीन तपोवन-विष्णुगाड परियोजना को पूर्व में भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण विभाग की ओर से दी गई मंजूरी रद्द की जाए, क्योंकि 7 फरवरी की तबाही के बाद इस मंजूरी का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
2. इन दोनों परियोजनाओं को भविष्य के लिए पूरी तरह से रद्द किया जाए।
3. 7 फरवरी की आपदा में हुई भारी जनहानि के लिए बिजली कंपनियों की जिम्मेदारी तय की जाए और इसे आपराधिक लापरवाही मानते हुए इन कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
4. पूरी तरह से असुरक्षित हो गये रैणी गांव का सुरक्षित स्थान पर पुनर्वास किया जाए और विस्थापन व पुनर्वास में खर्च होने वाली धनराशि परियोजना निर्माता कंपनियों से वसूली जाए।

कोर्ट में याचिका खारिज
इस याचिका में हालांकि बहुत गंभीर मुद्दे उठाये गये थे, लेकिन याचिका कोर्ट में एक दिन भी नहीं टिक पाई। पहले ही दिन हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राघवेन्द्र सिंह चैहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की दो सदस्यीय पीठ ने न सिर्फ  याचिका को खारिज कर दिया, बल्कि सभी याचिकाकर्ताओं को 10-10 हजार रुपये जुर्माना देने का आदेश भी सुनाया। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को सामाजिक कार्यकर्ता मानने से भी इनकार कर दिया। अदालत ने यह टिप्पणी भी कि याचिकाकर्ताओं के पीछे कोई अदृश्य हाथ है और वे उन्हीं हाथों की कठपुतली हैं।

याचिकाकर्ताओं में से एक अतुल सती कहते हैं कि अदालत के इस फैसले कोे समझ नहीं पा रहे हैं। फिलहाल उनके पास एक ही रास्ता है कि इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें। उनका कहना है कि इस फैसले की गंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि एनटीपीसी के जिन वकील की दलील पर अदालत ने यह फैसला दिया, उन्हें यह तो पता है कि याचिकाकर्ता किसी के हाथ की कठपुतली हैं, लेकिन यह जानकारी नहीं है कि जिस रैणी गांव को लेकर याचिका दायर की गई है, वह उत्तराखंड के किस जिले में है।

अतुल सती ने इस फैसले के बाद एनटीपीसी के वकील ही ओर से जारी एक प्रेस नोट का हवाला देते हुए बताया कि प्रेस नोट में वकील ने अपनी जीत को महिमामंडित करते हुए रैणी गांव को उत्तरकाशी जिले में बताया है। वे कहते हैं कि अदालत ने उन्हें साबित करने के समय दिये बिना ही सामाजिक कार्यकर्ता मानने से इनकार कर दिया। जबकि उनके एक साथी संग्राम सिंह पहले भी ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, तब हाई कोर्ट ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की।