खनन

परमाणु ऊर्जा की भूख

Jitendra, Kundan Pandey

अप्रैल की गर्म दोपहरी में बैतूल जिले के कोचामऊ गांव में अचानक हलचल बढ़ गई। गांव के आसमान में मंडराते हेलिकॉप्टरों ने गांव के लोगों को घरों से निकलने पर मजबूर कर दिया। हेलिकॉप्टरों से जाल में बंधी मशीनें लटक रही थीं। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। दो-तीन हफ्तों तक लोगों के घरों के ऊपर हेलिकॉप्टर इसी तरह मंडराते रहे। ग्रामीणों को क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिक आदिवासी संगठन (एसएएस) से पता चला कि सरकार यहां यूरेनियम की तलाश में है। इलेक्ट्रो मैग्नेटिक तरंगों की मदद से से ये मशीनें यूरेनियम खोज रही हैं।

सरकार की यह कार्रवाई इतनी गोपनीय रखी गई कि क्षेत्र में नोटिस तक नहीं चिपकाए गए। डाउन टू अर्थ ने जब जंगल से घिरे कोचामऊ का दौरा किया तो दो विशालकाय मशीनें और कुछ टेंट मिले। गार्ड ने इस मामले में कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया। मशीनों और इलाके की तस्वीरें भी नहीं लेने दी गईं।

यूरेनियम के प्रति भारत की भूख लगातार बढ़ती जा रही है। भारत के 22 परमाणु ऊर्जा संयंत्र तीन प्रतिशत ऊर्जा ही उत्पन्न करते हैं। सरकार 2050 तक इस क्षमता को 25 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहती है। इसी सिलसिले में 17 मई को केंद्र सरकार ने 10 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को मंजूरी दी (देखें “क्या घाटे का सौदा है परमाणु ऊर्जा”)।  बैतूल में परमाणु ऊर्जा के लिए यूरेनियम की खोज सरकार की परमाणु ऊर्जा के प्रति भूख का नतीजा है।

बैतूल जिले में यूरेनियम की इस खोज ने खापा, कोच्छर और झापरी पंचायत के अधीन आने वाले 13 गांवों के 4000 लोगों की जनजीवन को प्रभावित किया है। इनमें अधिकांश लोग कोरकू और गोंड जनजाति के हैं। समस्या तब शुरू हुई जब एटॉमिक मिनरल्स डायरेक्टोरेट फॉर एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च (एएमडीईआर) के सर्वेक्षण करने वालों ने ग्रामीणों को ईंधन के लिए लकड़ियां लेने के लिए जंगल में जाने से रोक दिया।

कोचामऊ गांव के कल्ला कोरकू का कहना है कि उन्होंने अपने खेत में खुदाई करने से सर्वे करने वालों को रोक दिया था। इसी गांव के चुन्नालाल का कहना है  “उन्होंने मेरे दो एकड़ खेत में मेरी इजाजत के बिना खुदाई चालू कर दी। जब विरोध किया तो बदतमीजी की और कहा कि हम सरकारी काम कर रहे हैं।” ग्रामीणों की शिकायत है कि सर्वेक्षण करने वालों ने बरसाती नदी का रास्ता रोक दिया है जिससे पानी की किल्लत हो गई। बाद में उन्हें रास्ता बनाना पड़ा। कोचामऊ की मालती कोरकू ने बताया कि जंगल से जरूरतों का सामान लाने पर प्रताड़ित किया जा रहा है।

कानून का उल्लंघन

बैतूल के अधिवक्ता और वन अधिकार आंदोलन से जुड़े अनिल गर्ग बताते हैं “ये गांव पांचवी अधिसूची की श्रेणी में आते हैं। यहां शासन के लिए विशेष तंत्र का प्रावधान है। ग्राम सभा की इजाजत के बिना खुदाई गैरकानूनी है।” 14 अप्रैल 2016 को खापा पंचायत के सरपंच और सचिव के हस्ताक्षरयुक्त जारी पत्र में एएमडीईआर को 200 मीटर तक खुदाई की इजाजत दी गई थी। इसमें तमाम नियमों की अवहेलना की गई। पत्र में कोच्छर और झापरी में भी खुदाई की अनुमति दी गई थी। श्रमिक आदिवासी संगठन से जुड़े आलोक सागर के मुताबिक, इस पत्र में महज 10 स्थानीय ग्रामीणों के नाम थे जबकि ऐसी अनुमति देने के लिए दो तिहाई ग्रामीणों की सहमति जरूरी है। इस मामले में जब खापा सरपंच और सचिव से बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। 20 अप्रैल को खापा पंचायत के निवासियों ने बैतूल के जिला कलेक्टर शशांक मिश्रा को लिखित शिकायत देकर खुदाई रुकवाने की मांग की गई लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। जब मिश्रा से संपर्क किया गया तो ऐसी किसी भी शिकायत की जानकारी से इनकार किया है। उन्होंने कहा “मैं दफ्तर में इस बारे में पता करूंगा। खुदाई की कोई आधिकारिक सूचना मेरे पास नहीं है। मीडिया से ही इस संबंध में जानकारी मिली है।”  

भोपाल स्थित डायरेक्टोरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइनिंग के निदेशक भी खुदाई से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने बताया कि ऐसी खुदाई के लिए केंद्र को राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन से मंजूरी लेना जरूरी नहीं है। एएमडीईआर के मध्य क्षेत्र के निदेशक ओपी यादव मानते हैं कि खुदाई एक साल से चल रही है।

उन्होंने बताया “ हमने कई स्थानों से सैंपल ले लिए हैं और अब निरीक्षण चल रहा है। एरियल जियोग्राफिकल सर्वे अभी जारी है।” उन्होंने किसी भी तरह के स्थानीय विरोध से इनकार किया है।

बड़ी समस्या

मध्य प्रदेश अकेला राज्य नहीं है जहां यूरेनियम की खोज का विरोध हो रहा है। तेलंगाना में भी मई में ऐसे विरोध हुए हैं। यहां सरकार ने अमराबाद टाइगर रिजर्व में यूरेनियम की खुदाई की इजाजत दी है। चेंचू जनजाति इसके खिलाफ है। यूरेनियम की खुदाई के कई जगह दुष्परिणाम सामने आए हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 1990 में मेघालय में इस तरह की खुदाई से जैव विविधता पर असर पड़ा था।

झारखंड में खदान विरोधी आंदोलन से जुड़े जेवियर डायस का कहना है कि लोगों को उनके संवैधानिक आधिकारों की जानकारी नहीं दी जाती। कई बार उन्हें धमकाया जाता है। मुआवजा भी इतना नहीं दिया जाता जिसके बूते वे जंगल से बाहर गुजर बसर कर सकें। अधिकांश मामलों में उन्हें वह नहीं मिलता जिसका वादा किया जाता है।

क्या घाटे का सौदा है परमाणु ऊर्जा
कुंदन पांडेय





भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की लालसा में तीन केंद्र सरकारों और दो प्रधानमंत्रियों ने अथक प्रयास किए। ऐसे में लोगों को हैरानी तब हुई जब 17 मई को केंद्र सरकार ने 10 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को इजाजत दी। ये संयंत्र न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनपीसीआईएल) को बनाने हैं।
राष्ट्रीय ऊर्जा नीति के तहत भारत 2024 तक 14.5 गीगावाट बिजली का उत्पादन परमाणु ऊर्जा के जरिए करना चाहता है। 2050 तक इसे 25 प्रतिशत करने का लक्ष्य है। इस वक्त भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता 6.78 गीगावाट है। 10 संयंत्रों की बदौलत इसमें 7 गीगावाट का और इजाफा हो जाएगा।  
भारत को खुद परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने जरूरत क्यों पड़ी? जानकारों के अनुसार, इसकी वजह वैश्विक स्तर पर परमाणु ऊर्जा बाजार में अनिश्चितता है। दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े अनिरुद्ध मोहन के अनुसार “इस क्षेत्र में जिन कंपनियों को भारत आना था वे आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं। हो सकता है इसीलिए भारत को परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण पर फैसला लेना पड़ा।”
परमाणु ऊर्जा के संबंध में भारत की तीन कंपनियों से बात चल रही है। इनमें तोशीबा के स्वामित्व वाली वेस्टिंहाउस इलेक्ट्रिक कंपनी, अरीवा और जीई हिताची शामिल हैं। सरकार ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लुभाने के लिए सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 को भी कमजोर कर दिया। 2015 में मोदी सरकार ने कार्यकारी आदेश पारित किया जिसने दुर्घटना की जवाबदेही करदाताओं पर डाल दी। यह आदेश कंपनियों को दुर्घटना पीड़ितों की ओर से किए जा सकने वाले मुकदमों से भी बचाता है। इन सबके बावजूद अभी तक विदेशी परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने में कंपनियों ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई।
भारतीय परमाणु ऊर्जा निगमन बोर्ड के एक पूर्व अध्यक्ष का कहना है कि संयंत्रों के लिए विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भरता मूर्खतापूर्ण निर्णय है। शुरू से ही इसमें दिक्कतें थीं। अमेरिका के दबाव में भारत 10 संयंत्र खरीदने पर राजी तो हो गया लेकिन ये संयंत्र नहीं लगे। उनका कहना है कि नीति निर्माता अब अपना मुंह छिपाते फिर रहे हैं।
जानकारों का यह भी मानना है कि भारत ने धीरे-धीरे महसूस किया कि परमाणु संयंत्रों का आयात आर्थिक रूप से फायदे का सौदा नहीं है क्योंकि ऊर्जा के अन्य स्रोत सस्ते हो रहे हैं।
ऊर्जा विशेषज्ञ सौम्य दत्ता के अनुसार, भारत परमाणु ऊर्जा संयंत्र का आयात करता है तो इसकी लागत करीब 45 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट होगी। अगर यहां खुद स्थापित किया जाएगा तो लागत घटकर 11 से 12 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो आयातित संयंत्र चार गुणा महंगा साबित होगा। दूसरी ओर सौर ऊर्जा का संयंत्र स्थापित करने में 8 से 10 करोड़ रुपए की लागत आएगी। जबकि कोयले पर आधारित संयंत्र लगाने पर 5 से 6 करोड़ रुपए का खर्च बैठेगा।  
जाहिर है परमाणु ऊर्जा की लागत काफी अधिक है। इसका दूसरा मतलब यह भी है इससे पैदा होने वाली बिजली ऊंचे दाम पर बेची जाएगी। मतलब लोगों की जेब पर अधिक भार। अन्य ऊर्जा के स्रोतों के मुकाबले परमाणु ऊर्जा के खतरे भी हैं। शायद इसीलिए अब सरकार भी समझने लगी है कि आयातित संयंत्र के बजाय खुद संयंत्र स्थापित करना ही बेहतर है।