उत्तर प्रदेश का सिंगरौली (Photo: Meeta Ahlawat) 
खनन

विस्थापन की त्रासदी : सिंगरौली की 90 फीसदी आबादी कम से कम एक बार हुई विस्थापित

इस विशाल क्षेत्र के नीचे कोयला भंडार भरा हुआ है। यह दक्षिण एशिया का इसे सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र कहा जाता है

Anil Ashwani Sharma

मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले का नाम जेहन में आते ही बिजली और विस्थापन की बात एक साथ आती है। बिजली तो विकास की सूचक हो गई और विस्थापन इस विकास के असर को कहेंगे। सिंगरौली में विस्थापन का दंश यहां की पिछली पांच पीढ़ी झेलते आ रही हैं और भविष्य में भी यह दंश जारी रहने की सौ फीसदी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। विस्थापन की इसी कड़ी में अब वहां का मूल शहर यानी मोरबा के भी जमींदोज होने का वक्त आन पड़ा है। डाउन टू अर्थ सिंगरौली में हुए अब तक के विस्थापन पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। इस रपट की पहली कड़ी यहां प्रस्तुत है...

“सत्तर साल से अधिक हो गए हैं लेकिन अब तक मेरी जिंदगी में ठहराव नहीं आ पाया है, हर दिन और हर रात में बस यही चिंता खाए जा रही होती है कि कब सरकारी मुलाजिम दरवाजे पर दस्तक देगा और दरवाजा खोलते ही हाथ में थमा देगा एक नोटिस।”

यह आपबीती सिंगरौली के 82 वर्षीय भगवान प्रसाद की है। इनकी जैसी आपबीती यहां रहने वाले लाखों लोगों की है और यह सिलसिला अनवरत रूप से जारी है। भगवान प्रसाद डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि मेरी जिंदगी तो अब चलो आखिरी पायदान पर आ पहुंची है लेकिन इस बात की चिंता चौबिसों घंटे बनी रहती है कि क्या मेरी आने वाली पीढ़ी भी मेरी तरह ही पांच-पांच बार अपनी जमीन से बेदखल होती रहेगी। द सेंटर फॉर एडवांस स्टडीज साउथ ईस्ट यूरोप की शोधकर्ता लीना डोकुजोविक कहती हैं कि सिंगरौली की कुल आबादी के 90 फीसदी लोग अब तक एक बार अवश्य विस्थापित हो चुके हैं। यह सिंगरौली का भयावह काला सच है, जिससे शासन-प्रशासन हर कोई अब तक मुंह मोड़ता आया है।    

ध्यान रहे कि सिंगरौली जिला उत्तर-मध्य भारत के एक सुदूर भाग में स्थित है और उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश राज्यों की सीमा के दोनों ओर फैला हुआ है। सिंगरौली को बतौर जिला 2008 में घोषित किया गया। पहले यह सीधी जिले की एक तहसील के रूप में जाना जाता था। इस जिले में लगभग 400 गांव हैं और जिला लगभग 1,800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस विशाल क्षेत्र के नीचे कोयला भंडार भरा हुआ है। दक्षिण एशिया का इसे सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र कहा जाता है।

यहां नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एटीपीसी), नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल), कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) जैसे सरकारी उपक्रम हैं तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र से जेपी पावर वेंचर्स लिमिटेड, सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट, रिलायंस पावर लिमिटेड, हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड, महान एल्युमीनियम लिमिटेड और लैंको पावर लिमिटेड जैसी विशाल बिजली परियोजनाएं हैं। लेकिन इन परियोजनाओं ने यहां की भूमि, वन्यजीवों और स्थानीय आबादी के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।

इन “विकास” परियोजनाओं के लिए आसान रास्ता बनाने के लिए दशकों से आमजन के प्रतिरोध की आवाज हो दबाने और मुआवजे को न्यूनतम करने के क्रूर उपायों के साथ बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है। इसी विस्थापन में भगवान प्रसाद जैसे लोग लगभग तीन लाख लोगों को बार-बार आपना घर-द्वार-जमीन छोड़ने पर मजबूर हुए हैं और हर विस्थापन होने के बाद उन्हें इंतजार रहता है कि अब कितने बरस बाद हमें हटाया जाएगा।   

सिंगरौली में पिछले चार दशक से सामाजिक कार्य में लगे हुए संदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि भारत में “विकास” को परिभाषित करने के लिए तीन प्रमुख राजनीतिक व ऐतिहासिक युगों का उपयोग किया जा सकता है, जिनके स्वरूप दुनिया के कई हिस्सों में समान रूप से ही देखने को मिलते हैं। ये हैं- उपनिवेशवाद, स्वतंत्रता, राष्ट्रीयकरण और वैश्वीकरण। हालांकि सिंगरौली के संबंध में अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के बाद “विकास” के तीन प्रमुख चरण पहचाने जा सकते हैं। ये हैं पहले बड़े बाांध, बिजली के लिए मेगा-प्रोजेक्ट्स का उपयोग और निजीकरण। वह कहते हैं कि आज सिंगरौली को प्रभावित करने वाली कई नीतियां उपनिवेशवाद के दौरान लागू की गई नीतियों का ही एक प्रकार से विस्तार हैं।

उदाहरण के लिए यह भारतीय वन अधिनियम ही था जिसने राज्य और वनों के संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन किया। स्थानीय दस्तावेज सिंगरौली की “विकास” प्रक्रिया को आधार प्रदान करने में इसकी भूमिका की पुष्टि करते हैं। चूंकि उस अधिनियम को भारत के वनों पर राज्य के एकाधिकार की कथित आवश्यकता को पूरा करने के लिए लागू किया गया था इसलिए यह प्रक्रिया संभवतः पहले शुरू हुई होगी।

भगवान प्रसाद 1950 के दशक में इस इलाके में  खाने-कमाने के लिए यहां आए क्येांकि उनको पता चला था कि यहां एक बहुत बड़ा औद्योगिक केंद्र बनने जा रहा है। वह बताते हैं कि तब यहां का पानी भी पीने लायक नहीं था लेकिन जैसे-तैसे छोटे मोटे काम मिलते रहे और हमने अपना घर बसा ही लिया। लेकिन जिस जगह बसाया था 1960 में कोयले खदान निकली और हमें औने पौने देकर प्रशासन ने मार भगाया। इसके बाद तो जैसे यह सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक जारी है। वह कहते हैं कि वह तो अब वह समय भी भूल चुके हैं कि कौन-कौन से समय में उन्हें विकास के नाम पर उनके घर-जमीनें छिनी गईं।

वह कहते हैं कि कभी इतना मुआवजा नहीं मिला कि हम अपना कम से कम ठोर-ठिकाना बना पाते। हर बार कहा जाता था कि इस बार पहले के मुकाबले अधिक मिलेगा लेकिन अब तक तो मेरे भाग में नहीं हुआ है। वह कहते हैं कि अब एक बार फिर से पिछले दस साल से सुनते आ रहा हूं कि मोरबा शहर को भी खत्म किया जा रहा है और इस बार बहुत अच्छा विस्थापितों को पुनर्वास किया जाएगा, लेकिन मुझे लगता नहीं है कि किसी को ठीक से घर फिर बस सकेगा। वह सवाल उठाते हुए कहते हैं कि आखिर सरकार यह झूठ क्यों बोलती है कि वह हमारा पुनर्वास (रीसेटल्मंट) कर रही है वह तो हमारा पिछलें साल सालों से बार-बार केवल पुर्नवासन (रीहैबिलटैशन) करते आ रही है। क्येांकि किसी भी विस्थपित को पुनर्वास करना तो असंभव है। ध्यान रहे कि विश्व बैंक की मोर्स कमेटी ने विस्थापित लोगों का सर्वें करने के बाद 1994 में कहा था कि किसी भी विस्थापित व्यक्ति का पुनर्वास असंभव है, हां उसका पुनर्वासन किया जा सकता है। क्योंकि आप किसी को उसके घर से उजाड़ कर उसे उसी प्रकार की परिस्थितियां दूसरे स्थान पर मुहैय्या नहीं करा सकते।