छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला में स्थित दिपका कोयला खदान में लीलागर नदी का पानी घुसने से खदान में कोयले का उत्पादन बंद हो गया है। कोल इंडिया की साउथ इस्टर्न कोल फील्ड्स के द्वारा संचालित इस खदान में हुए हादसे का असर न सिर्फ उत्पादन पर हुआ है, बल्कि लीलागर नदी के प्रवाह पर भी इसका विपरीत असर हुआ है। पर्यावरण के लिहाज से यह हादसा काफी नुकसानदायक साबित हो रहा है। उत्पादन जल्दी शुरू करने के लिए खदान प्रशासन ने पंपों के द्वारा गाद और कोयला मिला हुआ पानी वापस छोड़ा है। डाउन टू अर्थ ने इस हादसे की वजहों की पड़ताल की तो एक बड़ी लापरवाही सामने आई है।
डाउन टू अर्थ के हाथ वह पत्र लगा है, जिसमें पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2018 में कोयला उत्पादन की क्षमता बढ़ाई थी, लेकिन साथ ही खदान प्रबंधन को कुछ पर्यावरण संबंधी सावधानियां बरतने को कहा था। कोयला उत्पादन की क्षमता बढ़ाने से पहले वर्ष 2016 में मंत्रालय के नागपुर केंद्र के वैज्ञानिकों ने खदान का दौरा भी किया था, हालांकि देश में कोयले की मांग को पूरा करने और 'जनहित' में बिना इस रिपोर्ट का आंकलन किए वर्ष 2018 में खनन क्षमता को बढ़ाया गया था।
पर्यावरणीय खतरों से समझौता, मंत्रालय ने जताई थी हादसे की आशंका
वर्ष 2015 तक इस खदान की क्षमता 31 मिट्रिक टन थी, जिसे बढ़ाकर 35 मिट्रिक करने के लिए पर्यावरण विभाग के पास लगातार आवेदन आ रहे थे। वर्ष 2016 में पर्यावरण मंत्रालय के नागपुर केंद्र के वैज्ञानिकों ने इस खदान का दौरा कर अपनी रिपोर्ट बनाई। हालांकि, इस रिपोर्ट पर जबतक विचार किया जाता, वर्ष 2017 में सरकार ने बिना किसी जन सुनवाई के के ही आदेश देकर 40 प्रतिशत तक उत्पादन क्षमता बढ़ाने का प्रावधान कर दिया। इस तरह फरवरी, 2018 में पर्यावरण के नुकसान का आशंकाओं को दरकिनार कर खदान की उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 35 मिट्रिक टन प्रतिवर्ष कर दिया गया।
हालांकि पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कोयला उत्पादन की सीमा 35 मिट्रिक टन प्रतिवर्ष करने के साथ ही इस तरह के हादसे की आशंका जताई गई थी। साउथ इस्टर्न कोलफील्ड को पर्यावरण मंत्रालय ने 20 फरवरी 2018 को पत्र लिखकर उत्पादन क्षमता बढ़ाने की इजाजत देने के साथ यह भी कहा गया कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान को 'जनहित' में नजरअंदाज किया जा रहा है। पत्र में कहा गया था कि ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे नदी का पानी कोयला खदान में न आए। पर्यावरण विभाग के वैज्ञानिकों को यह आशंका थी कि उत्पादन बढ़ने के साथ नदी की तरफ भी खुदाई होगी और ऐसा हो सकता है। इस पत्र में कहा गया है कि खुदाई के बाद मिट्टी से गड्ढ़ो को पाट दिया जाए, लेकिन नदी के पास वाले गड्ढ़ों में ऐसा नहीं किया गया।
पर्यावरण कार्यकर्ता बिपाशा पौल बताती हैं कि प्लांट को पर्यावरणीय अनुमति देते समय पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का आंकलन भी किया गया था। उस रिपोर्ट में भी नदी की धारा पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का जिक्र था। बिपाशा कहती हैं कि जब पर्यावरण का ख्याल ही नहीं रखना तो फिर उसके उपर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों की रिपोर्ट क्यों बनाई जाती है?
दिपका प्लांट के एरिया पर्सनल मैनेजर जीएलएन दुर्गा प्रसाद बताते हैं कि खदान में पर्यावरण मंत्रालय के निर्देशों का पालन किया गया था। वो बताते हैं कि पर्यावरण को नुकसान होने की कोई आशंका नहीं है। उन्होंने कहा कि नदी का प्रवाह प्रभावित न हो इसके लिए प्लांट प्रबंधन ने गड्ढों में बजरी और पत्थर भरकर नदी के तट को सुरक्षित रखने की कोशिश की थी। उन्होंने आशंका जताई कि ब्लास्टिंग की धमक से वह तटबंध कमजोर हो गया होगा।
सिर्फ सात वर्ष बची है खदान की आयु
पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक इस खदान में अब सिर्फ 258.84 मिट्रिक टन कोयले का भंडार बचा है और यहां सिर्फ सात साल और खुदाई हो सकती है। जब कोयले का भंडार खत्म हो रहा है तब यहां का उत्पादन बढ़ाया गया। इतना ही नहीं, अब इस खदान से 40 मिट्रिक टन प्रतिवर्ष कोयला निकालने की योजना बनाई गई है जिसकी अनुमति मिलने का इंतजार हो रहा है।
कब-कब बढ़ा उत्पादन
वर्ष- उत्पादन क्षमता (मिट्रिक टन)- खनन क्षेत्र (हेक्टेयर)
2004 - 20 - 1461.51
2009- -25 - 1999.417
2013- - 30 - 1999.293
2015- -31 - 1999.293
2018- -35 - 1999.293