सेवा ग्राम आश्रम, यह वह आश्रम है जब महात्मा गांधी ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस आश्रम में बिताया। जब मैं केवल सोलह साल का ही था तब मेरे गुरु और रविशंकर विश्व विद्यालय में मानव विज्ञान के हैड सुरेंद्र परिवार ने मुझसे पूछा था कि आप गांधी जी को जानते हो? इस पर मैंने कहा था कि हां, जरूर जानता हूं मैं ही क्यों देश का हर बच्चा जानता है।
इस पर उन्होंने पूछा कि उनके किसी आश्रम को आपने देखा है? मैंने कहा, नहीं। बस फिर क्या था, वे मुझे लेकर सेवा ग्राम आश्रम आए। यह महाराष्ट्र के वर्धा जिले में स्थित है। रेलवे स्टेशन से सेग्राम यानी सेवाग्राम आश्रम मात्र 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हम जब वहां पहुंचे तो पता चला कि यहां रहने की भी जगह है, केवल देखकर लौटना नहीं है।
यहां उस समय उसका किराया केवल छह रुपए है और इसी में रहने और खाने का है। अभी भी आश्रम के कार्यक्रम गांधी जी के समय के अनुसार ही संचालित किए जाते थे। अच्छी बात ये थी कि यहां खाना भी सामुहिक जिम्मेदारी के साथ ही बनाया जाता था यानी सभी मिलजुल कर और खाना बनाते थे और फिर एक-दूसरे को पंगत में बैठा कर खिलाते थे।
खाने के बाद सभी को स्वयं ही थाली भी साफ करनी पड़ती थी। और बारी-बारी से रसोई साफ करनी होती थी। यही नहीं इस आश्रम में सुबह चार बजे ही उठकर प्रार्थना करना और फिर आसपास के गांव में सैर करने जाना अनिवार्य था। इसके बाद सभी आश्रमवासी या तो चरखा चलाते और जो नए थे वे इसे चलाना सीखते थे।
मेरे जैसे लोग जिनकी उम्र कम थी उन्हें पहले पोनी बनाना सिखाया जाता था। यह प्रक्रिया दोपहर तक चलती थी। इसके बाद आश्रमवासी पास के गांव में जाकर जो भी गांव वालों का काम होता था, उसमें हाथ बटाना होता था। इसके बाद शाम पांच बजे प्रार्थना और फिर खाना खाने के बाद अध्ययन करना। कुल मिलाकर हम बचपन से ही अपने बड़ों से सुनते आए हैं थे कि “सादा खाना उच्च विचार” यह वाक्य यहां पहली बार क्रियान्वित होता नजर आया।
यहां चेन्नई से आए एक गांधीवादी व्योवृद्ध एसपीएस राघवन से यह जानकर खुशी हुई कि वे गांधी के इतने बड़े अनुयाई थे कि आज तलक उन्होंने अपना जीवन लगभग गांधी जी के बताए रास्ते पर चला और अब जीवन की संध्या में यहां आकर अपनी आंखों से गांधी की कर्मभूमि को देखना चाहते थे इसलिए यहां आए हुए हैं। उन्होंने बताया था कि गांधी के मार्ग पर चल कर मुझे अब तलक किसी प्रकार पछतावा नहीं है क्योंकि मैंने आज तक किसी से भी ऊंची आवाज में बात नहीं की है और न किसी के साथ दुर्व्यवहार।
राघवन जैसे यहां लगभग दो दर्जन से अधिक बुजुर्ग देश के कई हिस्सों से आए हुए थे। इस आश्रम की यह व्यवस्था है कि आप इस आश्रम में अधिक दिनों तक नहीं रह सकते है। क्योंकि यदि ऐसा होगा तो दूसरों को यहां रहने का मौका नहीं मिल पाएगा। ऐसा नहीं कि यहां केवल बुजुर्ग ही आते हैं मैंने यहां देखा कि कई युवा और युवतियां भी आई हुई थीं।
मदुरई से आई सी चेन्नम्मा ने बताया कि मैंने यहां आकर एक ही बात सीखी की हर आदमी का खून लाल ही होता है, वह ऊंची जाति का हो या दलित हो। चूंकि उनका कहना था कि हमें बचपन से यह सिखाया गया था कि दलितों के सामने नहीं आओ और उनके साथ खाना या पानी पीना सब कुछ वर्जित कर रखा था। ऐसी परिस्थतियों में हम बड़े हुए लेकिन यहां आकर पता चला कि सबसे बड़ी चीज होती है इंसानियत औ इससे बढ़कर कुछ नहीं।
जब मैं इस आश्रम से लौटकर आया अपने घर रायपुर (छत्तीसगढ़) आया तो मैंन इस आश्रम के बारे में जिंदगी में पहली बार एक आलेख लिखा और उसे दिल्ली के अखबार जनसत्ता में प्रकाशित होने के लिए भेज दिया। यह सोच कर कि वहां तो छपने से रहा। वहां तो देशभर के बड़े से बड़े गांधीवादियों ने आलेख भेजा होगा। लेकिन एक दिन जब मैं दो अक्टूबर को रायपुर बस स्टैंड के अखबार की दुकान पर उस दिन का जनसत्ता देखा तो पाया कि मेरा लेख प्रकाशित हुआ था।
इस बात ने मेरा यह विश्वास बहुत पक्का कर दिया है कि कोई भी व्यक्ति यदि पूरी शिद्दत से अपना काम करता है तो उसमें उसे उसमें सफलता अवश्य मिलती है। बहुत सालों बाद जब गांधीवादी और जनसत्ता अखबार के संस्थापक स्वर्गीय प्रभाष जोशी से मुलाकात करने का अवसर मिला तो उन्होंने गांधी जी के हिंदी प्रेम के बारे में बताया कि कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर जब एक विदेशी एजेंसी के संवाददाता ने गांधी जी से देश की स्वतंत्र होने के पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो गांधी जी ने अपनी प्रतिक्रिया हिंदी में दी। इस पर उस संवाददाता ने अर्ज किया कि कृप्या, आप इसी प्रतिक्रिया को अंग्रेजी में भी बोल दीजिए। इस पर गांधी जी ने उससे कहा था, “दुनिया को बता दो गांधी अब अंग्रेजी भूल चुका है।”
लेखक डाउन टू अर्थ से जुड़े हैं