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जीवन शैली

मनोरंजन के तकनीकी दौर में मदारीवाला: एक सामाजिक विमर्श

अब बच्चों की प्राथमिकताएं मोबाइल गेम्स, यूट्यूब वीडियो और सोशल-मीडिया की ओर स्थानांतरित हो चुकी हैं

Arun Kumar Gond

मदारीवाला शब्द अब एक अपरिचित सा शब्द है। नयी पीढ़ी जो सोशल-मीडिया और आधुनिक तकनीक के दलदल में फंस चुका हो उसके लिए मनोरंजन का मतलब केवल और केवल मनोरंजन ही है; वह मनोरंजन के बहुआयामी पक्ष से वंचित है। जबकि मदारीवाला मनोरंजन का वो पारंपरिक माध्यम था जिसमें मनोरंजन के अपने सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक निहितार्थ भी थे।

एक तरफ यह जहां वंचित सामुदायों के लिए आजीविका का एक श्रोत था तो दूसरी तरफ यह मनोरंजन के द्वारा ही समाज में सामूहिकता और कल्पनाशीलता का बीजारोपण करता था।  मदारीवाला केवल “तमाशा” नहीं लाता था, बल्कि वह गांव की बिखरी चेतना को एक डोर में बाँध लाता था, जिससे गांव की गलियों में एक अदृश्य ऊर्जा बहने लगती थी।

उसके आते ही एक साझा उत्सव का माहौल बन जाता था। इसी सामूहिक उपस्थिति के बीच जब मदारी अपने करतब दिखाता, तो उसके खेलों में मनोरंजन के साथ जीवन के गहरे पाठ भी होते थे। ये पाठ मात्र खेल नहीं थे, बल्कि मदारी की कहानियों के सहारे बच्चों के भीतर राजा, वफादार जानवरों और चमत्कारी शक्तियों की अपनी एक दुनिया बसने लगती थी।

धीरे-धीरे वह बिना किसी पाठशाला के जीवन, साहस और चतुराई के ऐसे सबक सीखा जाता था, जो लंबे समय तक लोगों के भीतर जीवित रहते थे। मदारी का आना गांव में न केवल उत्सव का कारण बनता था, बल्कि जाति-वर्ग से परे एक सामाजिक एकता का अनुभव भी कराता था। पर आज, जब हर हाथ में मोबाइल और आंखों में स्क्रीन की चमक है, तब वह सहज सामाजिकता कहीं खोती-सी प्रतीत होती है।

अब कहानियां मोबाइल ऐप्स में बंद हैं और साझा हंसी स्क्रीन पर अकेले स्क्रॉल करती ऊंगलियों में सिमट गई है। स्क्रीन पर चलती रीलें उस जीवंत कथा का स्थान नहीं ले सकतीं, जिसे हम कभी चौपाल पर बैठकर साझा करते थे। उन किस्सों की महक, वह आंखों में झलकती जिज्ञासा, और साथ बैठकर हंसने-रोने का जो अनुभव था, वह अब वर्चुअल हो गया है।

“कमेंट सेक्शन” अब संवाद का विकल्प बन बैठा है, लेकिन उसमें न वो ध्वनि है, न वह आत्मीयता। हम “इमोजी” भेज तो देते हैं, पर उसमें वो सजीव हंसी नहीं होती जो कभी चार लोगों के साथ बैठकर दिल से निकला करती थी। सामाजिकता अब स्क्रीन की दीवारों में गूँजती एक अकेली आवाज़ बनकर रह गई है।

मैं अपने गांव में पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ता था, उस समय मोबाइल और इंटरनेट की पहुंच कम थी, और मेलों, चौपालों, चाय की दुकानों और लोक-तमाशों का अपना अलग ही जमाना था। गांव की गलियों में किसी जादूगर या मदारी का आना मानो किसी बड़े उत्सव जैसा होता था, जिसमें पूरा गांव भागीदार बन जाता था। और उस दिन कुछ ऐसा ही हुआ, जो आज भी मेरी यादों में ताजा है।

दोपहर का समय था। हम कुछ बच्चे, और कुछ बड़े भाई, सब एक चाचा के घर के सामने वाली खुली जगह पर खेल रहे थे। वहां एक नीम और पाकर का पेड़ था, जिसकी छांव में हम घंटों खेलते रहते थे। अचानक वहां एक अजनबी आया, सांवला, दुबला और उसकी आंखों में तेज़ चमक थी। उसके हाथ में एक लकड़ी की छड़ी थी, कमर में बंधी एक डफली, और कंधे पर एक टोकरी लटकी हुई थी। टोकरी से फुफकार की आवाज़ आ रही थी। हमें समझते देर न लगी-वह “मदारी” था।

मदारी ने डफली बजाई और बोला, “देखो, देखो! प्रेम की सबसे पुरानी कहानी, जो इंसानों से नहीं, सांपों से जुड़ी है”।   उसने टोकरी खोली, और उसमें से दो सांप निकाले, एक काले रंग का और एक पीले रंग का। वह दोनों सांप एक-दूसरे से लिपटे हुए थे, जैसे प्रेमी हों।

मदारी ने कहा, “ये दोनों सांप पति-पत्नी हैं, उनका प्यार मिसाल है। वे एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। अगर एक मर जाए तो दूसरा भी खाना-पीना छोड़ देता है”। हम सभी बच्चे मंत्रमुग्ध होकर उन सांपों को देख रहे थे। फिर उसने एक सांप को टोकरी में डाला और कुछ मंत्र पढ़े। यहां पर मदारी ने जो कहा, वह थोड़ा रहस्यमय और डराने वाला था। जब उसने यह कहा, “अब देखो, यह मर गया है!” तो हम सब चौंक गए, क्योंकि एक सांप मरा हुआ दिख रहा था, जबकि दूसरा सांप गायब हो चुका था।

हमें समझ में नहीं आया कि वह सांप कहां गया, लेकिन मदारी ने जो कहा, वह और भी डरावना था। उसने कहा, “यह मरने वाला सांप का जोड़ा जो गायब है वो रात  को बदला लेने आएगा। अगर तुमने इसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ दान नहीं दिया, तो यह रात के बारह बजे आएगा और तुम्हें डस लेगा!”

हम सब डर के साए में आ गए। कुछ बच्चे रोने लगे, कुछ घर की तरह दौड़े, कोई चावल लाया, कोई गेहूं, कोई आटा, तो कोई माँ से गिड़गिड़ाकर एक -दो रूपये लेकर आया। मदारी की सांपों की कहानी और उत्पन्न किया गया डर दर्शकों में सामूहिक प्रतिक्रिया को जगाता है। बच्चों का चावल, गेहूं या पैसे लाना यह दिखाता है कि मनोरंजन केवल एक मानसिक अनुभव नहीं, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर सकता है।

आज जब सोचता हूँ तो हंसी भी आती है और एक टीस (मन में  दुख) भी महसूस होती है। वह दिन कैसे डर और कहानी के संग एक बड़ा लोक-नाट्य बन गया था। मदारी की कहानी ने हम सभी को उस रहस्यमय दुनिया में ले जाकर अपने डर और विश्वास को साझा करने का मौका दिया।

वह सामूहिकता, जिसमें हम सभी का एक साझा अनुभव था; उसकी प्रस्तुतियाँ बच्चों को भय, प्रेम और चमत्कार के भावात्मक अनुभवों के मध्य एक वैकल्पिक कल्पना-लोक में प्रवेश कराती थीं। उस समय गाँवों में न तो मोबाइल फोन थे और न ही इंटरनेट जैसी तकनीकी सुविधाएं; बच्चे खुले मैदानों में पारंपरिक खेलों- जैसे गिल्ली-डंडा, बरफ-पानी, और चोर-सिपाही- में व्यस्त रहते थे। मदारी का आगमन उनके लिए एक सामूहिक उत्सव जैसा था, जहां सामाजिकता, मनोरंजन और शिक्षा का अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई देता था।

वर्तमान में, डिजिटल तकनीकों के प्रसार के कारण यह सांस्कृतिक अनुभव लगभग विलुप्त हो गया है। अब बच्चों की प्राथमिकताएं मोबाइल गेम्स, यूट्यूब वीडियो और सोशल-मीडिया की ओर स्थानांतरित हो चुकी हैं। मौखिक परंपराएं, जो कभी सामाजिक स्मृति और सामूहिकता का निर्माण करती थीं, आज व्यक्तिगत डिजिटल उपभोग तक सिमट गई हैं। मदारी की कला, जो कभी सामूहिक कल्पना और लोक शिक्षा का माध्यम थी, अब एक सांस्कृतिक स्मृति भर बनकर रह गई है।

यह अंधविश्वास नहीं, लोकजीवन की एक खास शैली थी, जिसमें कहानियों के जरिए समाज की बातें, रिश्तों की अहमियत और जीवन के रंग सिखाए जाते थे। आज का बच्चा अब उन रंगों से दूर होता जा रहा है। वह डिजिटल-दुनिया में इतना उलझ गया है कि लोककथाएं उसे धीमी लगती हैं, मदारी की आवाज़ फीकी हो गयीं हैं। अब उसे त्वरित मनोरंजन चाहिए- फटाफट एक्शन, म्यूजिक और ग्राफिक्स। अब बंदर की चालाकी या सांप की प्रेम कहानी उतनी रोचक नहीं लगती, क्योंकि उसकी जगह सुपरहीरो, रील्स और फाइटिंग गेम्स (पब्जी, फ्री फायर) ने ले ली है। इस बदलाव ने बच्चों की मानसिकता और सामाजिक व्यवहार में गहरा परिवर्तन किया है। पहले जहां लोककथाएं और पारंपरिक कहानियां बच्चों को सामूहिकता, रिश्तों और जीवन के महत्वपूर्ण पाठ सिखाती थीं, अब वे डिजिटल और त्वरित मनोरंजन में उलझ गए हैं।

समाज में बदलाव स्वाभाविक हैं, लेकिन यह सोचने योग्य है कि क्या इस बदलाव में हमने अपनी लोकसंस्कृति को पीछे छोड़ दिया है। डिजिटल तकनीक के प्रसार के साथ-साथ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम जैसे कानूनों ने परंपरागत मदारी संस्कृति को लगभग समाप्त कर दिया है। अब सांप, बंदर जैसे जीवों का सार्वजनिक प्रदर्शन अवैध है।

यह परिवर्तन पशुओं के अधिकारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहां एक ओर मदारी के खेलों को “क्रूरता” कहा गया, वहीं चिड़ियाघरों में जानवरों को सीमित स्थान में बंद रखना आज भी स्वीकार्य सामाजिक व्यवहार बना हुआ है। मदारी केवल मनोरंजन नहीं करता था, बल्कि वह बच्चों और बड़ों को कल्पना, साहस और सामूहिकता के अनुभव से जोड़ता था। उसकी कहानियाँ जीवन के गहरे अर्थ सिखाती थीं। आज मोबाइल, टीवी और इंटरनेट जैसे साधनों ने मनोरंजन के व्यक्तिगत रूपों को बढ़ावा दिया है, पर सामूहिक अनुभव की भावना कमजोर हुई है। पहले गांवों में चबूतरे, चौपाल और पेड़ों की छांव में सामूहिकता पनपती थी, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। आज व्यक्ति अकेले हंसता है, अकेले डरता है और अकेले सीखता है, जिससे हमारी साझा सांस्कृतिक स्मृति क्षीण होती जा रही है।

लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं