अकेबे लूथर किंग अबिआ
हम भले ही इस बारे में सोचना पसंद नहीं करते, लेकिन मरने के बाद हम में से कई कब्रिस्तानों में ही जगह पाएंगे। हमारे समाज में शमशान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये वह जगहें हैं, जहां लोग अपने प्रियजनों का शोक मना सकते हैं। और आमतौर पर कब्रिस्तान ऐसी जगहें होती हैं जहां लाशें सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बने बिना सड़ सकती हैं। लेकिन जब स्वच्छता और अपशिष्ट प्रबंधन सेवाएं दुरुस्त नहीं होतीं, तब ये मानव गतिविधियों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषकों के पर्यावरणीय भंडार बन सकते हैं। इनमें रोगजनक जीवाणु (रोगाणु) होते हैं।
जब कब्रिस्तान के आसपास लोगों की रिहाइश होती है, तब इन जीवाणुओं का भूजल में पहुंचना आसान होता है। ऐसी स्थिति में वहां के निवासी या कब्रिस्तान में आने जाने वाले लोग भूजल या सतह के पानी के माध्यम से रोग फैलाने वाले इन रोगाणुओं के संपर्क में आ सकते हैं। सड़ते हुए पार्थिव शरीर मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि कर सकते हैं, लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि वो पर्यावरण में पहले से मौजूद जीवाणुओं को पोषक तत्व प्रदान करते हैं।
एशरीकिया कोलाई (ई कोलाई) एक सूक्ष्मजीव है, जिसका उपयोग आमतौर पर पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को इंगित करने के लिए किया जाता है। इसे विशेष रूप से जलीय पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को मापने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह जीव कई जगहों पर पाया जा सकता है, जिसमें मिट्टी, पानी, भोजन, मनुष्यों और जानवरों की आंतें शामिल हैं। पर्यावरण में बड़ी तादाद में ई कोलाई की उपस्थिति मल प्रदूषण का संकेत देती है। इस जीव के कुछ स्ट्रेंस से नवजात शिशुओं में दस्त, मूत्रमार्ग के संक्रमण और मेनिन्जाइटिस जैसे रोग भी विकसित हो सकते हैं।
यह जीवाणु अन्य जानवरों और पक्षियों में भी संक्रमण का कारण बन सकता है। विकसित और विकासशील देशों में कुछ स्ट्रेंस को कई रोगों के प्रकोप से भी जोड़ा गया है। कई ई-कोलाई स्ट्रेंस उन एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी हैं, जिनका उपयोग मानव रोगों के इलाज के लिए किया जाता है। हम यह पता लगाना चाहते थे कि क्या कब्रिस्तान इन प्रतिरोधी जीवाणुओं को प्रश्रय दे सकते थे। यह एक ऐसा सवाल था जिसका जवाब अब तक नहीं दिया गया था। उथले जल-स्तर वाले स्थानों में ये जीवाणु सड़ते हुए पार्थिव शरीरों से निकलते अन्य विषैले जैविक अपशिष्टों के साथ मिलकर आसपास के समुदायों में जलस्रोतों को दूषित कर सकते हैं, जिसकी वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर एक चिंता का माहौल बन सकता है।
कब्रिस्तानों में प्रदूषण
कई विकासशील देशों में तेजी से शहरीकरण की वजह से कब्रिस्तानों के आसपास अवैध बस्तियों का बसना शुरू हो गया है। चूंकि इनमें से कई बस्तियों में शौचालय जैसी बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं का अभाव है, इसलिए गड्ढेनुमा अवैध शौचालयों से मल बह कर कब्रिस्तान में जा सकता है। कभी-कभी, लोग कचरा भी कब्रिस्तानों में भी फेंक दिया करते हैं क्योंकि ऐसी बस्तियों में कोई अपशिष्ट प्रबंधन सेवाएं उपलब्ध नहीं होतीं और कई कब्रिस्तानों को घेरा नहीं गया होता है या वहां लोगों के अवांछित प्रवेश को रोकने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है।
परिणामस्वरूप, कई कब्रिस्तान ई कोलाई जैसे जीवाणु वाले मानव अपशिष्ट से प्रदूषित हो गए हैं। इसके अलावा, चूंकि कब्रिस्तान में आमतौर पर बसाहट नहीं होती है, इसलिए कई जानवर उनमें रहने आ जाते हैं। ये जानवर अपनी आंतों में ई कोलाई ले जाते हैं और अपने मल से उस क्षेत्र को कुछ हद तक दूषित करते हैं। ऐसे वातावरण में ई कोलाई और अन्य जीवाणुओं के लिए सड़ता हुआ पार्थिव शरीर भी भोजन का एक स्रोत हो सकता है।
हमने ई-कोलाई को संकेतक जीव के रूप में इस्तेमाल करते हुए दक्षिण अफ्रीका में एक अनुसंधान किया जिसमें यह पता लगाने की कोशिश कि क्या कब्रिस्तान वैसे मानव रोगजनक, जो कई एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी होते हैं, के भण्डार भी हो सकते हैं। यह अध्ययन केपटाउन के केप फ्लैट्स क्षेत्र के तीन कब्रिस्तानों (मैटलैंड, डेल्फ्ट और वेलमोड कब्रिस्तान) में किया गया था। ये कब्रिस्तान खराब बुनियादी ढांचे के साथ ही साथ अनधिकृत बस्तियों के अतिक्रमण, अपशिष्ट प्रबंधन की कमी व अनधिकृत आवाजाही को आसान बनाती टूटी दीवारों जैसी परेशानियों से जूझ रहे थे।
इस क्षेत्र में जलस्तर उच्च है, जिसमें मैटलैंड कब्रिस्तान में जमीन के स्तर से दो मीटर नीचे (ताबूतों के समान गहराई) पानी मिल जाता है। इस क्षेत्र में जलस्तर बढ़ने पर समुद्र का पानी घुस आता है। इस तरह का नमीयुक्त वातावरण ई कोलाई को बढ़ने में मदद करता है। कुछ मामलों में हमने खासकर सतही जल के 100 मिलीलीटर पानी के नमूनों में 2,400 से अधिक ई-कोलाई कोशिकाएं पाईं। 100 मिलीलीटर पीने के पानी में ई-कोलाई की संख्या शून्य होनी चाहिए।
आंशिक तौर पर शरीर के संपर्क में आने वाले पानी में 100 मिली में ई-कोलाई कोशिकाओं की संख्या 575 से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि पूरे शरीर के संपर्क में आने वाले पानी में प्रति 100 मिलीलीटर ई-कोलाई की संख्या 235 से अधिक नहीं होनी चाहिए। बोरहोल के पानी से लिए गए कुछ नमूनों में भी ई-कोलाई पाया गया, लेकिन उसकी सांद्रता कम थी। जिन ई-कोलाई पर अध्ययन किया गया, उनमें से 42 प्रतिशत में ऐसे जीन पाए गए, जिनकी वजह से वे इंसानों में संक्रमण का कारण बन सकते हैं।
87 प्रतिशत ई-कोलाई परीक्षण में कम से कम एक एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी, जबकि 72 प्रतिशत ई-कोलाई में तीन से अधिक एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी क्षमता पाई। वहीं, चार ई-कोलाई में सभी आठ तरह के एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधी क्षमता पाई गई। दूसरे शब्दों में, कब्रिस्तान के पानी में पाए गए कई बैक्टीरिया इंसानों में रोगों का कारण बन सकते हैं और वे एंटीबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधी हैं।
कब्रिस्तान की सुरक्षा
एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी संक्रमणों के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वन हेल्थ कॉन्सेप्ट की सिफारिश की है, जिसमें मनुष्यों और जानवरों के साथ ही पर्यावरण को भी ध्यान में रखा गया है। हमारे अध्ययन से पता चलता है कि इस संबंध में कब्रिस्तान पर्यावरण का एक अहम हिस्सा हैं। अगर कब्रिस्तानों के पास अनौपचारिक बस्तियां पानी की आपूर्ति के लिए बोरहोल पर निर्भर करती हैं, तो वहां के लोग दूषित पानी से संक्रमित हो सकते हैं।
खासकर कब्र खोदने वालों को काम के दौरान चोट लगती है तो वह भी इससे प्रभावित हो सकते हैं। नगरपालिकाओं को कब्रिस्तान के लिए जगहों का चुनाव करते समय मिट्टी के प्रकार और भूजल स्तर का भी खयाल रखना चाहिए। खासतौर पर कब्रिस्तान के पास बस्तियों का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। स्थानीय निवासियों को स्वच्छ जल और अपशिष्ट प्रबंधन सेवाएं मुहैया करानी चाहिए। अगर ऐसी जगहों पर बस्तियां मौजूद हैं तो लोगों को बोरहोल के पानी का इस्तेमाल करने के लिए हतोत्साहित करना चाहिए।
(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ क्वाजुलू-नटल में अनुसंधान वैज्ञानिक हैं। यह लेख द कन्वरसेशन से विशेष अनुबंध के तहत प्रकाशित)