स्वास्थ्य

बीमारी से उबरने के बाद उभर सकते हैं कैंसर उपचार के दुष्प्रभाव

अध्ययनों के मुताबिक उपचार की उन्नत तकनीक एवं बेहतर देखभाल के कारण बचपन में कैंसर का शिकार होने वाले मरीजों में इस बीमारी से उबरने की दर हाल के वर्षों में बढ़ी है।

Umashankar Mishra

बचपन के कैंसर से उबरने की दर में न केवल सुधार हो रहा है, बल्कि कैंसर से निजात पाने के बाद लंबा जीवन जीने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। छोटे बच्चों में होने वाले कैंसर का समय पर उपचार किया जाए तो वह ठीक हो सकता है। लेकिन, बचपन में कैंसर से ग्रस्त मरीजों में इस बीमारी से निजात पाने के बावजूद इसके उपचार से जुड़े दुष्प्रभाव कुछ समय बाद उभर सकते हैं। भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर आई है।

राजधानी दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में बचपन के कैंसर से उबर चुके अधिकतर मरीजों में लिंफोब्लास्टिक ल्यूकेमिया, रेटिनोब्लास्टोमा एवं हॉडकिंस लिंफोमा के लक्षण देखे गए हैं। 

अध्ययन के दौरान एम्स में कैंसर की बीमारी से उबर चुके 300 बच्चों के निरीक्षण से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। पांच साल तक किए गए इस निरीक्षण के दौरान कैंसर से निजात पा चुके बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ-साथ उनमें बीमारी के दोहराव संबंधी लक्षणों का भी अध्ययन किया गया है।

अध्ययनकर्ताओं में शामिल एम्स के बाल रोग विभाग से जुड़ीं रचना सेठ के अनुसार “कैंसर से उबरने वाले बच्चों में बीमारी के उपचार के लिए दी जाने वाली थेरेपी के देर से पड़ने वाले प्रभावों के विस्तार का आकलन करने के लिए यह अध्ययन किया गया है। अध्ययन के दौरान मरीजों के प्राथमिक निदान, उपचार एवं उनमें रोग की वर्तमान स्थिति को दर्ज किया गया है और पूरी पड़ताल के बाद कैंसर थेरेपी के दूरगामी प्रभावों का निर्धारण किया है।”

अध्ययन में शामिल कुल मामलों में से 25 प्रतिशत रक्त कैंसर से जुड़े थे। इनमें सामान्य प्राथमिक निदान में लिंफोब्लास्टिक ल्यूकेमिया, रेटिनोब्लास्टोमा और हॉडकिंस लिंफोमा के मामले शामिल थे। लगभग 23 प्रतिशत प्रतिभागी अल्प विकलांगता, कम वजन या फिर धीमे शारीरिक विकास से ग्रस्त पाए गए हैं। 

तेरह प्रतिशत लोग मध्यम अक्षमता से ग्रस्त पाए गए, जिन पर चिकित्सीय ध्यान दिए जाने की जरूरत है। इनमें दिल की मांसपेशियों के ऊतकों से संबंधित रोग (मायोकार्डियल डिस्फंक्शन), अशुक्राणुता (एजोस्पर्मिया), हाइपोथायरायडिज्म और हेपेटाइटिस-बी के मामले शामिल थे। दो प्रतिशत लोग धीमे मानसिक विकास और यकृत रोगों से ग्रस्त पाए गए हैं। जबकि ग्यारह लोगों में बीमारी दोबारा हावी हो गई, जिनमें से पांच लोगों को अपनी जान गवांनी पड़ी।

लिंफोब्लास्टिक ल्यूकेमिया रक्त कैंसर का एक रूप है, जबकि रेटिनोब्लास्टोमा आंखों में होने वाला कैंसर का एक प्रकार है। वहीं, हॉडकिंस लिंफोमा को चिकित्सा जगत में हॉडकिंस के रोग के नाम से भी जाना जाता है। यह लसीका तंत्र का कैंसर है, जो प्रतिरक्षा प्रणाली का हिस्सा होती है। हॉडकिंस लिंफोमा में कोशिकाएं लसीका तंत्र में असामान्य रूप से फैल जाती हैं और शरीर की संक्रमण से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है।

विकासशील देशों में बच्चों के कैंसर के उपचार के बाद देर से उभरने वाले बीमारी के लक्षणों का आकलन कई अध्ययनों में किया गया है। इन अध्ययनों के मुताबिक उपचार की उन्नत तकनीक एवं बेहतर देखभाल के कारण बचपन में कैंसर का शिकार होने वाले मरीजों में इस बीमारी से उबरने की दर हाल के वर्षों में बढ़ी है। हालांकि, कैंसर से छुटकारा पाने वाले एक तिहाई से 50 प्रतिशत बच्चों में उपचार पूरा होने के बाद भी इसके प्रभाव देखे गए हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार ऐसे करीब आधे मामले जानलेवा हो सकते हैं।

डॉ सेठ के अनुसार “गंभीर अक्षमता के मामले महज दो प्रतिशत पाए गए हैं। हालांकि, कैंसर का उपचार पूरा होने के बाद उभरने वाले प्रभाव चिंताजनक हैं। बचपन के कैंसर को पीछे छोड़ चुके लोगों में इस रोग और इसके उपचार के असर का आकलन करना आवश्यक है। देर से स्पष्ट होने वाले इसके प्रभाव के बारे में मरीजों, अभिभावकों और स्वास्थ्य कर्मियों के बीच जागरूकता का प्रसार भी जरूरी है।”

अध्ययनकर्ताओं की टीम में रचना सेठ के अलावा एम्स के बाल रोग विभाग से जुड़े अमिताभ सिंह एवं सविता सपरा और हृदय रोग विभाग के संदीप सेठ शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित किया गया है।

(इंडिया साइंस वायर)