दुनियाभर में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जो एक ही वक्त में दो या इससे अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लिए लोग एक ही समय में दीर्घकालीन गैर संक्रामक (क्रोनिक नॉन इन्फेशियस) रोगों जैसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह से जूझ रहे हैं। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो दीर्घकालिक संक्रामक रोगों जैसे एचआईवी और दीर्घकालिक गैर संक्रामक बीमारी जैसे अस्थमा से भी पीड़ित हैं।
ऐसी परिस्थितियां बीमारियों, विकार और अन्य दीर्घकालीन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की वजह बन रही हैं। एक ही समय में उच्च रक्तचाप जैसी दो बीमारियों की स्थिति को मल्टीमोरबिडिटी कहा जाता है।
परंपरागत रूप से विकसित देशों में गैर संक्रामक बीमारियों के कारण उच्च रक्तचाप का फैलाव काफी अधिक देखा जाता है। यही वजह है कि इन विकसित देशों में मल्टीमोरबिडिटी का उच्च स्तर देखा जा रहा है।
लेकिन अब स्थिति में बदलाव आ रहा है। विकासशील देश भी इसकी जद में आ रहे हैं। गैर संक्रामक बीमारियों के बढ़ने के कारण इन देशों में भी मल्टीमोरबिडिटी बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है। इस वक्त उच्च रक्तचाप दुनिया भर में सबसे सामान्य गैर संचारी बीमारी बन गई है।
दुनियाभर में गैर संक्रामक बीमारियां इस स्तर पर पहुंच गई हैं कि खतरे की घंटी बजा रही हैं। साल 2000 में सभी बीमारियों में गैर संक्रामक बीमारियां 56 प्रतिशत थीं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विकासशील देशों में 2020 तक ये बीमारियां बढ़कर 70 प्रतिशत हो जाएंगी।
इन बीमारियों की बढ़ने की वजह शहरीकरण और मनुष्यों की खाद्य श्रृंखला में बदलाव को माना जा रहा है। व्यवहार में बदलाव भी एक वजह है। अब अधिकांश लोग प्रसंस्कृत भोजन और चीनी को तरजीह दे रहे हैं। व्यायाम भी कम किया जा रहा है। इन सब कारणों के अतिरिक्त अफ्रीका के बहुत से देशों में दीर्घकालीन संक्रामक बीमारियों का अतिरिक्त बोझ भी है।
गैर संक्रामक और दीर्घकालीन संक्रामक रोग के उभार के लिए मद्यपान और तंबाकू का सेवन भी काफी हद तक जिम्मेदार है। हालांकि इस पर बात बहुत कम होती है। मद्यपान और तंबाकू के सेवन से मल्टीमोरबिडिटी के भी खतरे हैं।
अफ्रीका में चिंता की बात यह है कि यहां की आबादी सामाजिक और आर्थिक रूप से संवेदनशील है। इस कारण यहां मल्टीमोरबिडिटी के खतरे सबसे ज्यादा हैं। यहां उम्रदराज लोगों का सामाजिक और आर्थिक स्तर निम्न दर्जे का है, साथ ही ये लोग ज्यादा शिक्षित भी नहीं हैं। इन समूहों को इन समस्याओं से निजात दिलाने के लिए गंभीर आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। अफ्रीकी देशों में ऐसे लोगों को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के सामने बड़ी चुनौती है।
व्यवस्था और मरीज प्रभावित
मल्टीमोरबिडिटी तीन स्तरों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। यह मरीज को प्रभावित करता है, स्वास्थ्य सेवा प्रदाता और फिर स्वास्थ्य व्यवस्था को समग्र रूप से प्रभावित करता है। इससे जूझ रहे मरीज का जीवन स्तर निम्न दर्जे का होता है। उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की अन्य लोगों से ज्यादा जरूरत होती है। बीमािरयों से जूझने की स्थिति में वह अपनी आय के स्रोत खो देता है। ऐसे हालात में मरीज पर आर्थिक भार तो पड़ता ही है, साथ ही मनोवैज्ञानिक बोझ भी उसे परेशान करता है।
मनोवैज्ञानिक बोझ कई बार अवसाद या दिमाग के लिए दूसरी परेशानियां पैदा करता है। यह मल्टीमोरबिडिटी से संबंधित होती हैं। अक्सर इनकी अनदेखी होती है या इनसे ठीक से नहीं निपटा जाता। आमतौर पर मल्टीमोरबिडिटी के मरीजों को कठोर स्वप्रबंधन की जरूरत होती है। उधर, तमाम तरह की दवाइयां भी उनकी आर्थिक तंगी में लगातार इजाफा करती हैं।
सेवा प्रदाताओं की नजर से देखें तो मल्टीमोरबिडिटी से जूझ रहे मरीजों का इलाज जटिल होता है। इन मरीजों से काम का बोझ बढ़ता है। इसके अतिरिक्त बीमारियों के संबंध में विभिन्न दवाओं की समझ पैदा करनी पड़ती है। हर परामर्श के साथ प्रति मरीज पर वक्त और लागत उतरोत्तर बढ़ती जाती है। सेवा प्रदाता अक्सर ऐसी व्यवस्था में उलझकर रह जाता है जो ऐसे हालातों से निपटने के लिए अभी तैयार नहीं है क्योंकि वह अब तक एक ही ढर्रे पर चला है। यह व्यवस्था केवल एक ही बीमारी से पीड़ित मरीज पर ध्यान केंद्रित करती है, मरीज की संपूर्ण देखभाल उसके लिए मुश्किल है। ऐसे में व्यवस्था में बदलाव बहुत जरूरी है।
मल्टीमोरबिड मरीजों की सही और संपूर्ण देखभाल के लिए रचनात्मक आदर्श की जरूरत है। यह बड़ी चुनौती है। एक ही ढर्रा सभी मरीजों के लिए उपयोगी है, यह सोच मरीजों की जरूरतों को पूरा नहीं करेगी।
समस्या का निदान
इस समस्या से निपटने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि किन कारणों से मल्टीमोरबिडिटी का उभार हो रहा है। नीति निर्माताओं को स्वास्थ्य क्षेत्र से परे जाकर कई क्षेत्रों को देखना होगा। मल्टीमोरबिडिटी से संबंधित अधिकांश खतरे स्वास्थ्य व्यवस्था से बाहर ही हैं। मोटापा, मद्यपान और धूम्रपान ऐसे ही कारण हैं जो नीतियों से प्रभावित होते हैं, साथ ही ये स्वास्थ्य क्षेत्र इतर भी हैं।
दक्षिण अफ्रीका में इस संबंध में प्रयास भी किए जा रहे हैं। यहां धूम्रपान निषेध गतिविधियों के कारण सेकेंडरी स्मोकिंग (धूम्रपान से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित) में गिरावट दर्ज हुई है। मीडिया में धूम्रपान के खतरे के प्रचार और जागरुकता अभियानों के कारण यह संभव हुआ है। सेवा क्षेत्र की ओर से धूम्रपान को सीमित करने से भी सकारात्मक नतीजे निकले हैं। तंबाकू उत्पादों पर उत्पाद शुल्क लगाने के भी अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
हाल ही में मधुमेह के खतरे को देखते हुए दक्षिण अफ्रीका में चीनी मिश्रित पेय पदार्थों पर भी कर लगाने का सुझाव दिया गया है। मैक्सिको में ऐसे पेय पदार्थों पर टैक्स लगाने से इनके उपभोग में कमी दर्ज की गई है। इस तरह की नीतियों को बनाने की सबसे बड़ी चुनौती शक्तिशाली औद्योगिक घरानों का विरोध है जिनके हित स्वास्थ्य के मुद्दों से भिन्न हैं। उनका मकसद मात्र लाभ कमाना है। ऐसी नीतियों को बनाने के लिए शैक्षणिक संस्थानों, समाज और सरकारी विभागों को सक्रियता के साथ आगे आना होगा, तभी अच्छे नतीजे निकलने की उम्मीद है।
(लेखिकाएं कैपटाउन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर और शोध अिधकारी हैं। यह लेख द कन्वरसेशन के साथ खास समझौते के तहत प्रकाशित किया गया है)