स्वास्थ्य

नौनिहालों को कुपोषण से निकालता पारंपरिक भोजन

बुंदेलखंड और बघेलखंड के चार जिलों में कुपोषण से बचाने का अभियान चल रहा है। इसके नतीजे उत्साहवर्धक हैं

DTE Staff

एस विवेक 

पन्‍ना टाइगर रिजर्व के बफर एरिया स्थित अपने गांव कोटा गुन्‍जापुर के एक बालवाड़ी (ईसीडी सेंटर) में खेल रहे रोहित की उम्र दो वर्ष है। रोहित का वजन करीब 12 किलो है और वह पूरी तरह स्‍वस्‍थ है। हालांकि, कुछ महीने पहले तक हालात ऐसे नहीं थे। रोहित इस साल की शुरुआत तक गंभीर रूप से कुपोषित था और उसका वजन मात्र आठ किलोग्राम रह गया था। उसी गांव के दो और बच्‍चों स्‍वाति (2 वर्ष) और रुप्‍ता (2.3 वर्ष) की कहानी भी रोहित जैसी ही है। ये दोनों बच्चियां भी कुछ महीने पहले तक गंभीर रूप से कुपोषित थीं, हालांकि अब ये स्‍वस्‍थ हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक और यूनिसेफ के नवीनतम अध्ययन के मुताबिक, दुनिया के करीब 24 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। इनमें से 90 फीसदी कुपोषित बच्चे अफ्रीका और एशिया में हैं। आंकड़ों के मुताबिक, कुपोषण की वजह से भारत के 43 फीसदी बच्चे कम वजन के और 48 फीसदी बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं। दुनिया के 10 ठिगनेपन के शिकार बच्चों में तीन बच्चे भारत में हैं। सितंबर 2015 में भारत समेत दुनिया के 193 देशों ने सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को अंगीकार किया था, इसके तहत वर्ष 2030 तक दुनिया के सभी देशों को कुपोषण की समस्या से मुक्त करना है। कुपोषण के खिलाफ भारत की लड़ाई में कोटा गुन्जापुर का सफल प्रयोग नई राह दिखा सकता है। 

कोटा गुन्जापुर के बच्‍चों के कुपोषण से पोषण तक के सफर में न किसी अस्‍पताल या एनआरसी सेंटर का योगदान है और न ही किसी दवा या न्‍यूट्रीशनल सप्‍लीमेंट का। बल्कि ये बच्‍चे जंगल में पैदा होने वाले परंपरागत आहार और गांव के घरों में उगने वाली उन फल-सब्जियों की बदौलत स्‍वस्‍थ हुए हैं। दरअसल, कोटा गुन्‍जापुर मध्‍य प्रदेश के बुंदेलखंड और बघेलखंड के चार जिलों पन्‍ना,सतना, रीवा और उमरिया के उन सौ गांवों में शामिल हैं, जहां स्‍थानीय खान-पान के जरिए बच्‍चों में कुपोषण को दूर करने का एक प्रयोग किया जा रहा है। कार्यक्रम शुरू होने के करीब दो साल बाद आज ये सभी गांव अति गंभीर कुपोषण (एसएएम) से मुक्‍त हो चुके हैं।  मध्‍यप्रदेश सरकार की ओर से कराए गए सर्वे भी इन आंकड़ों की तस्‍दीक करते हैं। खास बात ये है कि इनमें से ज्‍यादातर गांव आदिवासी बाहुल्‍य हैं और मध्‍यप्रदेश के सबसे गरीब गांवों में एक हैं। 

लगभग शून्‍य लागत वाले कुपोषण प्रबंधन के इस मॉडल में गांव के लोग अपने घरों के आस-पास खाली पड़ी जमीनों पर सब्जियां एवं फल उगाते हैं और स्‍वेच्‍छा से उसमें से कुछ गांव की आंगनवाड़ियों में दे जाते हैं। इसके अलावा, जंगलों में जाने वाले आदिवासी वहां से शहद, शहतूत, चिरौंजी, महुआ और जंगलजलेबी जैसे जंगली उत्‍पाद भी ले आते हैं, जिसे आंगनवाड़ी के स्‍टोर में जमा कर लिया जाता है। गांव की कुछ महिलाओं को इन चीजों को मिलाकर अलग-अलग व्‍यंजन बनाने की ट्रेनिंग दी गई है। ये महिलाएं रोजाना अलग-अलग भोजन बच्‍चों के लिए तैयार करती हैं।

रीवा जिले के खैरहा सिया गांव के बालवाड़ी केंद्र की सहायिका राखी वर्मा बताती हैं, बच्‍चे सुबह से 9 से 9.30 बजे के बीच बालवाड़ी केंद्र में आ जाते हैं और 4.30 बजे तक वहीं रहते हैं। इन बच्‍चों की उम्र 6 माह से लेकर 6 वर्ष तक है। इन साढ़े सात घंटों में बच्‍चों को तीन बार भोजन कराया जाता है। वर्मा कहती हैं कि रोज अलग-अलग पकवान होने से बच्‍चों को वह पसंद आता है और उन्‍हें सभी तरह का पोषण भी मिलता है। खाने के अलावा बच्‍चों का शेष समय खेलने, पढ़ने और सोने में बीतता हैं। 

कोटा गुन्‍जापुर समेत पन्‍ना के करीब दो दर्जन गांवों को समुदाय आधारित कुपोषण के प्रबंधन में सहयोग देने वाली स्‍थानीय संस्‍था पृथ्‍वी ट्रस्‍ट के संचालक यूसुफ बेग कहते हैं, आजादी के पहले तक आदिवासियों में कुपोषण जैसी समस्‍या कभी थी ही नहीं। वे पूरी तरह जंगल पर आश्रित थे और उन्‍हें पूरा पोषण जंगल से मिल भी जाता था। उन्‍हें ये तक पता था कि किस मौसम में कौन-सा मांस खाया जाता है। हालांकि, आजाद भारत की सरकारें उन्‍हें जंगल के हिस्‍से के तौर पर देखने की बजाए एक अतिक्रमणकारी के तौर पर देखने लगीं और उन्‍हें जंगल से खदेड़ा जाने लगा। इसी के बाद आदिवासियों में भी कुपोषण की समस्‍या देखने को मिलने लगी। बेग ने कहा कि इस समस्‍या के समाधान के लिए हमने इन आदिवासी परिवारों को एक बार फिर जंगल की ओर मोड़ा है। हमें इसके परिणाम भी काफी अच्‍छे मिले हैं।

विस्‍थापन में कमी से भी कुपोषण रोकने में मिली मदद

हाल फिलहाल मध्‍यप्रदेश में कुपोषण के मामलों में पोस्‍टर बेबी बनी पन्‍ना के मनकी गांव की छह माह की बच्‍ची विनीता जब गर्भ में थी, तब उसके माता-पिता मजदूरी करने हिमाचल प्रदेश चले गए थे। विनीता का जब जन्‍म हुआ तो उसका वजन डेढ़ किलो से भी कम था। तीन माह की उम्र तक उसका वजन मात्र 1.9 किलो था। हालांकि, गांव के सामुदायिक कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से बच्‍ची को समय रहते एनआरसी केंद्र भेज दिया गया, जहां 21 दिन बिताने के बाद उसकी हालत में सुधार आया। अब उसका वजन बढ़कर 2.9 किलो हो गया है और वह खतरे से बाहर आ चुकी है।

गांव के सामुदायिक कार्यकर्ता रामविशाल गौड़ बताते हैं, विनीता की मां जब हिमाचल गई तब उसे सिर्फ एक टीका लगा था। हिमाचल जाने के बाद गर्भावस्‍था में न उसकी कोई जांच हुई, न कोई टीका लगा और ना ही कोई सप्‍लीमेंट उसे मिल सका। गौड़ कहते हैं हमारे और आसपास के सभी गांवों के आधे से ज्‍यादा परिवार दो साल पहले तक काम के लिए पंजाब, दिल्‍ली, राजस्‍थान,हरियाणा और हिमाचल चले जाते थे। विस्‍थापन के दौरान पति-पत्‍नी दोनों ही मजदूरी करते हैं, ऐसे में बच्‍चों की देखभाल नहीं हो पाती और उन्‍हें सरकार की ओर से चलने वाले टीकाकरण कार्यक्रम का भी फायदा नहीं मिल पाता है। ये भी बच्‍चों में होने वाले कुपोषण का एक बड़ा कारण था। 

गौड़ ने कहा कि दो साल पहले गांव के लोगों ने ही मिलकर ही गाद से भर चुके तालाबों को गहरा किया और कुंओं की गाद भी निकाली गई। इससे गरमी में भी सिंचाई के लिए पानी मिलने लगा और जो ग्रामीण मजदूरी करने के लिए गांवों का रुख करते थे वे अब खेती होने के चलते गांव पर ही रुके रहे। इससे बच्‍चों को जहां बेहतर देखभाल मिली, वहीं उन्‍हें उन सुविधाओं का लाभ भी मिल सका जो सरकार देती है। इस दौरान अगर किसी बच्‍चे में गंभीर कुपोषण दिखा तो उसे गैर-सरकारी संगठनों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की मदद से एनआरसी सेंटर भेज दिया गया। इसके कारण इन गावों में अब कोई भी बच्‍चा अतिकुपोषित नहीं है।  

वहीं, मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित गैर-सरकारी संगठन विकास संवाद के अरविंद मिश्रा आंगनवाड़ी केंद्रों को भी कुपोषण प्रबंधन का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा बताते हुए कहते हैं, ऐसे गांवों में जहां आजीविका के साधन कम या जंगल पर निर्भर हैं वहां आंगनवाड़ी या बालवाड़ी केंद्र बेहद जरूरी हो जाते हैं। क्‍योंकि इन गांवों गरीब माता-पिता अपने बच्‍चों को घरों में ही छोड़कर मजदूरी करने चले जाते हैं। ऐसे में उनके बच्‍चों की देखभाल का जिम्‍मा अकसर उनके बड़े भाई-बहनों पर आ जाता है। ज्‍यादातर मामलों में इन बच्‍चों को सही देखभाल नहीं मिल पाती। यह भी कुपोषण का कारण बनता है। अरविंद कहते हैं, गांव में आंगनवाड़ी जैसे केंद्र होने पर माता-पिता बच्‍चों को वहां छोड़कर काम पर जा सकते हैं। वहां रहने से बच्‍चों को न सिर्फ खाने को मिलता है, बल्कि उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास का भी ध्‍यान रखा जाता है। विकास संवाद इस प्रयोग में तकनीकी सहायता उपलब्‍ध कराती है। 

इस प्रयोग के सकारात्‍मक प्रभावों को अब सरकारी मशीनरी भी स्‍वीकार कर रही है। इतना ही नहीं, कुछ गांवों में बाकायदा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सीखने के लिए भेजा जा रहा है। रीवा के जावा तहसील में आईसीडीएस योजना के ब्‍लॉक समन्‍वयक सुधीर कुमार कहते हैं, इस प्रयोग से कई गांवों में बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य में सुधार आया है। इसका सबसे खास पहलू ये है कि इसमें कोई अतिरिक्‍त खर्च नहीं आता, अगर इन गांव के लोगों के आर्थिक हालात देखें तो उन्‍हें ऐसे ही किसी कार्यक्रम की जरूरत थी। 

यहां कहना न होगा कि बाल स्‍वास्‍थ्‍य एवं कुपोषण के मामले में मध्‍यप्रदेश का रिकॉर्ड हमेशा से खराब रहा है। हाल ही में आए फैमिली हेल्‍थ सर्वे के मुताबिक, मध्‍यप्रदेश में शिशु मृत्‍युदर (51) देश में सबसे अधिक है। वहीं, कुपोषण के मामले में मध्‍यप्रदेश 42.8 फीसदी स्‍तर के साथ बिहार के बाद दूसरे स्‍थान पर है। 42 फीसदी ठिगनेपन के साथ मध्य प्रदेश इस मामले में देश में तीसरे नंबर पर है।

जुलाई के पहले सप्‍ताह में ही मध्‍यप्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में बताया है फरवरी 2018 से मई 2018 तक 120 दिनों में शून्य से पांच वर्ष की आयु के 7,332 बच्चों की मौत हुई है। इसमें 6,024 बच्चे एक से पांच वर्ष की आयु के थे, जबकि 1308 बच्चे एक से पांच वर्ष के बीच थे। मध्‍यप्रदेश सरकार इन मौतों का कारण विभिन्न बीमारियां बताती है, हालांकि गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि इसमें से ज्‍यादातर मौतें कुपोषण के चलते हुई हैं। ऐसे गंभीर हालातों में मध्‍यप्रदेश सरकार को कुपोषण से निपटने के लिए भी एक बार इस प्रयोग को भी अपने स्‍तर पर जरूरत अपनाना चाहिए।