वर्ष 2012 की शुरुआत में, एक आशाजनक प्रयोगात्मक अवसादरोधी दवा का परीक्षण अमेरिकी मरीज पर अंतिम अवस्था में असफल हो गया। इस असफलता ने एक छोटी दवा कंपनी टार्गासेप्ट को आगे शोध जारी रखने को प्रोत्साहित किया। यह असफलता एक अप्रत्याशित सदमे के रूप में आई थी। विशेषकर टीसी-5214 नामक दवा के रूप में, जो पहले भारतीय मरीजों पर हुए परीक्षण में सफल रही थी।
एंग्लो-स्वीडिश फार्मा कंपनी टार्गासेप्ट और एस्ट्राजेनेका इस दवा के विशेष अधिकार के लिए 1.24 बिलियन अमेरिकी डॉलर (करीब 81 अरब रुपये) का भुगतान करने के लिए सहमत हो गई थी। यह असफलता उनका दुर्भाग्य थी। इस प्रकरण ने नैदानिक परीक्षणों से जुड़ी गड़बड़ी को लेकर सवाल उठाए। द स्ट्रीट डॉट कॉम के लिए एक नाराजगी भरे लेख में, एडम फ्यूरस्टेर्न (जो दवा उद्योग के बहुत सम्मानित व्यक्ति हैं) ने टार्गासेप्ट आपदा का पूरा दोष विदेश में हुए परीक्षण पर थोप दिया। उन्होंने लिखा, “कभी भी भारत से मिले नैदानिक आंकड़ों पर भरोसा नहीं करो। रूस में हुए नैदानिक परीक्षण भी विश्वसनीय नहीं हैं। इसलिए वहां के आंकड़ों पर भी भरोसा मत करो।”
वे एशिया और पूर्वी यूरोप के देश जैसे चीन, बांग्लादेश, पोलैंड और यूक्रेन जैसे देशों को भी इस सूची में जोड़ सकते हैं, जो पिछले दो दशकों में पश्चिमी दवा कंपनियों के लिए नैदानिक परीक्षण के केन्द्र बन गए हैं। अमेरिकन डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज के मुताबिक, विदेशों में किए गए नैदानिक परीक्षण के आंकड़े पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि दवा कंपनियों को उन्हें रिपोर्ट करने की आवश्यकता नहीं होती। वे सिर्फ विदेशों में किए गए नैदानिक परीक्षण का एक छोटा-मोटा आइडिया आपको दे देते हैं। अमेरिकन डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज के मुताबिक, अमेरिकी बाजार की दवाओं के लिए परीक्षण की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। 1990 में ये संख्या 271 थी, जो 2008 में बढ़कर 6485 हो गई है। यह वृद्धि 2000% से अधिक की है। सितंबर के शुरू में, स्टैटैनॉज डॉट कॉम नाम के एक ऑनलाइन हेल्थ पेपर की जांच से पता चला है कि इस वर्ष स्वीकृत की गई नई अमेरिकी दवाओं में से 90 प्रतिशत नई दवाओं का परीक्षण अमेरिका और कनाडा के बाहर किया गया था।
यह रुझान बहुत सारे लोगों के लिए चिंता की बात है। विदेशों में हुए नैदानिक परीक्षणों पर कई तरह के आरोप लगते हैं, जैसे अनैतिक व्यवहार, ढीला कानून, वैज्ञानिक दृढता की कमी, अनैतिक प्रथाएं जैसे रोगियों को क्षतिपूर्ति नहीं देना या सूचना देकर सहमति न लेना और आंकड़ों की गड़बड़ी जैसी धोखाधड़ी आदि। ऐसे संदिग्ध नैदानिक परीक्षणों द्वारा विकसित दवाएं न सिर्फ विकसित देशों में रोगियों के जीवन को खतरे में डाल सकती हैं (बॉलपार्क अनुमान के मुताबिक, हर साल लगभग 2,00,000 अमेरिकी चिकित्सीय दवाओं से मर जाते हैं), बल्कि विकासशील दुनिया के गरीब मानवों के लिए भी खतरा हैं।
1990 के दशक तक, सार्वजनिक अस्पतालों और विश्वविद्यालयों द्वारा नैदानिक शोध किए जाते थे। यह कहना गलत होगा कि उनमें गलतियां नहीं होती थीं। वास्तव में, काले लोगों और कैदियों पर किए गए कुछ सबसे भयानक अनैतिक प्रयोगों के लिए वे दोषी माने गए थे। सबसे कुख्यात मामला था, 1932 का “टस्की स्टडी”। यूएस पब्लिक हेल्थ सर्विस ने 600 अफ्रीकी-अमेरिकी पुरुषों को सिफलिस बीमारी के नैदानिक अध्ययन में शामिल करने के लिए फंसाया था। इन लोगों को 40 साल तक मुफ्त भोजन और चिकित्सीय देखरेख की गई। उन्हें कभी नहीं बताया गया कि वे संक्रमित है और उनका रोग पेनिसिलिन ठीक कर सकता है। 1972 में एक व्हिसलब्लोअर द्वारा जब इस घटना को सामने लाया गया तब नैदानिक परीक्षण में शामिल लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाए गए। नए कानूनों ने सार्वजनिक रूप से आयोजित नैदानिक अनुसंधान में कुछ हद तक जवाबदेही सुनिश्चित की। हालांकि, सरकार ने खुद को तस्वीर से हटा लिया। इसमें निजी पूंजी जल्दी से आ गई और नैदानिक अनुसंधान के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद वे लाभ की तलाश में विदेशों में स्थानांतरित हो गए।
ऐसा क्यों है, ये समझना मुश्किल नहीं है। पहली बात तो ये कि यह बहुत सस्ता है; दूसरा, कानून सुस्त हैं; तीन, रिश्वत के साथ नियमों को तोड़ना आसान है; चार, ये बहुत अधिक संख्या में सस्ता मरीज प्रदान करता है। उद्योग में एक शब्द है, “ड्रग-सरल” रोगी, वह मरीज जो दवा पर नहीं है और जिसके द्वारा परीक्षण परिणामों को उलझाए जाने की संभावना है।
यह नहीं कहा जा सकता है कि विकसित दुनिया में नैदानिक परीक्षणों के संचालन में कम बेईमानी है, सिवाय इसके कि पता चलने पर दंड अधिक से अधिक हो। सिर्फ एक उदाहरण देना काफी होगा। 2005 में, ब्लूमबर्ग की एक जांच ने बताया कि कॉन्ट्रैक्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीआरओ) एसएफबीसी इंटरनेशनल ने कैसे मियामी में एक रन-डाउन होटल में गैरकानूनी अप्रवासियों पर दवाओं का परीक्षण किया। वैनिटी फेयर के लेख, डेडली मेडिसिन नाम से, में लिखा गया था,“यह परीक्षण साइट उत्तरी अमेरिका में सबसे बड़ी अनुसंधान सुविधा थी। हॉलिडे इन परीक्षण सुविधा लगभग 10 साल से चला रहा था।”
अंततः एक ड्रग को स्वीकृति दिलाने के लिए धोखा देना, छल करना, छिपाना और झूठ बोलना, एक अंतर्निर्मित प्रवृत्ति है। अब तक दवा से कंपनी को इतना फायदा हुआ है कि वह कोई भी दंड स्वीकारने के लिए तैयार रहती है। 1999 में, ग्लैक्सो ने अपनी मधुमेह विरोधी दवा अवंदिया के सुरक्षा खतरों के आंकड़ों को छिपा रखा था, लेकिन जब यह 2007 में बाहर आया, तब तक दवा ने अरबों डॉलर का कारोबार कर लिया था। मुकदमों के निपटारे के लिए उसने महज 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया। इसमें आश्चर्य नहीं कि आज नैदानिक परीक्षण अरबों डॉलर की मशीन है। इससे भर्ती फर्म, चिकित्सा संचार एजेंसियां, शोध जांचकर्ता और हास्यास्पद रूप से लाभ नैतिकता समीक्षा बोर्ड जैसी संस्थाएं जुड़ी हुई हैं। पेरेक्सेल और क्विंटिल्स जैसी कंपनियां हैं जिनका वैश्विक नैदानिक परीक्षण व्यवसाय पर एकाधिकार है।
यह ऐसी श्रृंखला है, जो उत्तरदायित्व को अलग करते हुए लाभ सुनिश्चित करता है। ऐसे व्यापार में हर खिलाड़ी अपने तात्कालिक संरक्षक-शेयरधारक, दवा कंपनियों, लाभ-नैतिकता समीक्षा बोर्डों, क्रोस, भर्ती एजेंसियों, अस्पतालों, अनुसंधान जांचकर्ताओं व स्वयंसेवकों की रक्षा करती है।
रिसर्च इंवेस्टीगेटर (अनुसंधान जांचकर्ता) की बात करें तो ये मूल शोध नहीं करती बल्कि केवल परीक्षण ठीक से चले, इस काम को देखती है। सूत्र उन्हें “फैंटम इंवेस्टीगेटर” कहते हैं, क्योंकि ये परीक्षण साइट के आसपास शायद ही कभी मौजूद होते हैं। फिर भी, उन्हें अच्छी तरह से भुगतान दिया जाता है। मानवविज्ञानी एड्रियाना पेट्रीना की 2009 की पुस्तक व्हेन एक्सपेरीमेंट ट्रैवल में एक कर्मचारी बताता है, “रूस में, एक डॉक्टर एक महीने में 200 डॉलर कमाता है और वह प्रति अल्जाइमर रोगी से 5,000 डॉलर बनाता है।”
लेकिन सबसे अधिक मूल्यवान बात ये है कि इस बेहद खराब नाटक में सबसे अधिक संवेदनशील अभिनेता रोगी है। विशेष रूप से, वे अशिक्षित, बीमार हैं। इतने गरीब हैं कि इलाज नहीं करा सकते। जब एक दवा का परीक्षण अपने घर में विफल रहता है, तो दवा कंपनियां भारत, चीन, रूस और ब्राजील जैसी “रेस्क्यू कंट्रीज” के मरीजों का शिकार करती हैं।
भारत में इन परीक्षणों में अनैतिक प्रथाओं, कुटिल व्यवहार के आरोप लगाए जाते हैं। 2012 की संसदीय स्थायी समिति ने निष्कर्ष निकाला कि दवा कंपनियां, अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभ, क्रॉस और सरकारी एजेंसियां गरीब मरीजों के खिलाफ अपराध में सहयोगी थीं। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2005 और 2012 के बीच किए गए परीक्षणों के दौरान 3,458 लोगों की मृत्यु हो गई और 14,320 लोगों ने “प्रतिकूल घटनाओं” (जीवन के लिए खतरा) का सामना किया।
नैदानिक परीक्षणों के क्रूर अर्थशास्त्र से पहले रोगियों की सुरक्षा और भलाई के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है। अमेरिकी दार्शनिक कार्ल इलियट ने लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में लिखा है,“नैदानिक शोध को बाजार में बदलकर हमने एक ऐसा सिस्टम बनाया है जिसमें निजी चिकित्सक-जांचकर्ता अपने मरीजों को शोध में नामांकित कर ज्यादा पैसा बना सकते हैं, बजाए इलाज करके। क्योंकि गरीब हताश रोगी नई दवाओं का परीक्षण करने के लिए सहमति दे देते हैं। उन्हें धन की जरूरत होती है या सामान्य स्वास्थ्य देखभाल का भुगतान नहीं कर सकते, जहां नैतिक निरीक्षण भी राजस्व देने वाला बन गया है। इस बिजनेस मॉडल में मानवता खो गई है।”
(इस कॉलम में विज्ञान और पर्यावरण की आधुनिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है)