आंखों से संबंधित बीमारियों के उपचार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरी सलाह के बिना बड़े पैमाने पर दवाओं का उपयोग हो रहा है, जो आंखों में संक्रमण और अल्सर का प्रमुख कारण है। नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के चिकित्सकों द्वारा किए गए एक ताजा सर्वेक्षण में इसका खुलासा हुआ है।
हरियाणा के गुरुग्राम के ग्रामीण क्षेत्रों में 25 अलग-अलग चयनित समूहों में लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली आंख की दवाइयों और अन्य उपचारों का विस्तृत सर्वेक्षण करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
अध्ययनर्ताओं के अनुसार आंख की पुतली की रक्षा करने वाले आंख के सफेद भाग यानी कोर्निया में संक्रमण को मोतियाबिंद के बाद अंधेपन का एक प्रमुख कारण माना जाता है। इस बात से अनजान अधिकतर ग्रामीण आज भी एक्सपायर्ड दवाओं, बिना लेबल वाली स्टेरॉइड आईड्राप्स और घरेलू उपचार का इस्तेमाल अधिक करते हैं। आमतौर पर घरेलू उपचार में उपयोग की जाने वाली दवाएं पौधों के सूखे भागों, दूध, लार और मूत्र आदि से तैयार की जाती हैं।
शोधकर्ताओं ने पाया है कि ग्रामीण लोगों में आंखों में पानी आना, आंखें लाल होना, खुजलाहट, दर्द, जलन और कम दिखाई देने जैसी शिकायतें ज्यादा पाई जाती हैं। ज्यादातर लोग डॉक्टरी सलाह के बिना इन तकलीफों के उपचार के लिए कोई भी दवा डाल लेते हैं।
सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 25 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण 'सुरमा या काजल' के साथ-साथ शहद, घी, गुलाब जल जैसे उत्पादों का उपयोग आंखों के घरेलू उपचार में करते हैं। आंखों के उपचार के लिए उपयोग की जाने वाली दवाओं में 26 प्रतिशत स्टेरॉइड, 21 प्रतिशत एक्सपायर्ड एवं बिना लेबल वाली दवाएं और 13.2 प्रतिशत घरेलू दवाएं शामिल हैं। नेत्र संबंधी विभिन्न बीमारियों में लगभग 18 प्रतिशत लोग नेत्र विशेषज्ञों से परामर्श के बिना ही इलाज करते हैं। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार ऐसा करने से आंखों मे अल्सर होने की आशंका बढ़ जाती है।
अध्ययन के दौरान कॉर्नियल संक्रमण और आंख के अल्सर जैसी बीमारियां ज्यादा देखने को मिली हैं। सर्वेक्षण से एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर लोगों की आंखों में होने वाले अल्सर तथा उसका पता लगने और मामले के जटिल होने में आंखों के लिए उपयोग की जाने वाली पारंपरिक दवाएं सबसे बड़ा कारण होती हैं।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में नेत्र देखभाल कार्यक्रमों के आयोजन और उच्च गुणवत्ता वाली प्राथमिक नेत्र स्वास्थ्य सेवाओं की स्थापना के साथ-साथ प्रतिरक्षात्मक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य देखभाल को प्रभावी ढंग से बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके अलावा इस तरह की पारंपरिक प्रथाओं के कारण आंखों पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए सार्वजनिक जागरूकता और संबंधित कानूनों को लागू किया जाना भी जरूरी है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. नूपुर गुप्ता, डॉ. प्रवीण वाशिष्ठ, डॉ. राधिका टंडन, डॉ. संजीव के. गुप्ता, डॉ. मणि कलैवानी और डॉ. एस.एन. द्विवेदी शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका प्लॉस वन में प्रकाशित किया गया है।
(इंडिया साइंस वायर)