स्वास्थ्य

मध्य प्रदेश में जीका का प्रकोप, गर्भपात की सलाह

मध्य प्रदेश में बिना वैज्ञानिक आधार के जीका पॉजिटिव महिलाओं को बच्चा गिराने की सलाह दी जा रही है

Banjot Kaur

37 साल की माधवी शर्मा गर्भवती हैं और एक अनचाहे डर से पूरी तरह टूट चुकी हैं। उन्हें बताया गया है कि बच्चे को जन्म देना मुसीबत मोल लेने जैसा है। पेशे से शिक्षिका माधवी की दो बेटियां हैं जो आंशिक रूप से अपाहिज है। इससे पहले वह अपना एक बेटा जन्म के कुछ घंटों बाद ही खो चुकी हैं। इस बार वह अपने आखिरी बच्चे की उम्मीद में हैं।

दरअसल, माधवी एक जीका पॉजिटिव महिला हैं और उन्हें कहा गया है कि गर्भ में पल रहा उनका बच्चा माइक्रोसेफली नामक बीमारी से ग्रसित पैदा हो सकता है। डराने वाले सरकारी अधिकारी ही हैं। माइक्रोसेफली से ग्रसित बच्चे का दिमाग पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता और उनका सिर दूसरे बच्चों की अपेक्षा छोटा होता है।

माधवी ने बताया, “15 नवंबर को ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर आरएल दिनकर और उसी अस्पताल के पीडियाट्रिशियन ने कहा कि अगर मुझे अपाहिज बच्चा नहीं चाहिए तो गर्भ में पल रहे बच्चे को गिराना होगा।” वह 3 माह से गर्भवती हैं और मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के सिरोंज ब्लॉक में वार्ड नंबर 3 में रहती हैं। जीका पॉजिटिव महिलाओं से निपटने का शायद यह दुनिया का सबसे नायाब तरीका है क्योंकि विज्ञान कहता है कि मात्र 10 से 15 प्रतिशत जीका पॉजिटिव महिलाओं से ही माइक्रोसेफली से ग्रसित बच्चा पैदा होता है।



मध्य प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की प्रधान सचिव पल्लवी जैन गोविल कहती हैं, “हमने किसी भी महिला को बच्चा गिराने की सलाह नहीं दी है। इसके विपरीत हम ऐसी गर्भवती महिलाओं का पता लगा रहे हैं जो जीका पॉजिटिव हैं। हमारे स्वास्थ्य कर्मी और दूसरे सरकारी अधिकारी उनसे मिलने जा रहे हैं, उनका नियमित अल्ट्रासाउंड कराया जा रहा है ताकि यदि कोई गांव और दूरदराज के इलाके में अल्ट्रासाउंड मशीन से दिमागी विकलांगता भ्रूण में दिखाई दे तो मां को जिला मुख्यालय लाकर अच्छी अल्ट्रासाउंड मशीन से दोबारा जांच की सके। यदि माइक्रोसेफली सुनिश्चित हो जाता है, तभी हम महिलाओं को गर्भपात की सलाह देंगे। फिर भी गर्भपात कराना है या नहीं, यह निर्णय महिलाओं का ही होगा।” वह आगे बताती हैं, “अगर माइक्रोसेफली ऐसी अवस्था में सामने आता है जिसके बाद गर्भपात कराना कानूनी रूप से वैध नहीं है तो उसकी समीक्षा राज्य स्तर का एक बोर्ड करेगा जिसमें स्त्री रोग विशेषज्ञ, रेडियोलॉजिस्ट और अन्य विशेषज्ञ होंगे। यदि उस बोर्ड को लगता है कि भ्रूण में माइक्रोसेफली हो गया है और गर्भपात की आवश्यकता है तो फिर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाएगा।” गोविल ने ये बातें भोपाल में अपने कार्यालय में कहीं जो विदिशा से मात्र 60 किलोमीटर की दूरी पर है।

दावों में कितना दम?

पीड़ित महिलाएं गोविल के दावों से उलट कहानी कहती हैं। माधवी कहती हैं कि उन्हें तो अभी तक ठीक से यह भी नहीं पता कि वह जीका पॉजिटिव हैं या नहीं। 5 नवंबर को नजदीकी राजीव गांधी मेमोरियल अस्पताल के डॉक्टर उनके यहां आए और खून का नमूना लेकर चले गए। 10 दिन बाद वे फिर आए और बच्चा गिराने की सलाह देकर चले गए। उनके पति रामसेवक शर्मा बताते हैं, “बच्चा गिराने की सलाह देने के बाद हमसे कागज पर हस्ताक्षर करवा लिया गया। उसमें लिखा था कि हमें सलाह दी गई है, फिर भी हम बच्चा नहीं गिराते हैं तो यह सिर्फ हमारी जिम्मेदारी होगी। हमें न तो जीका पॉजिटिव रिपोर्ट की कोई कॉपी दी गई और न ही उस अंडरटेकिंग की।” माधवी के अनुसार, 15 नवंबर के बाद कोई डॉक्टर या अधिकारी परामर्श देने नहीं आया।

रिपोर्ट न मिलने पर रामसेवक भोपाल एम्स गए जहां उनकी पत्नी के खून की जांच हुई थी। वहां डॉक्टर में रिपोर्ट पढ़कर बताया कि माधवी जीका पॉजिटिव नहीं है। जब उन्होंने रिपोर्ट की कॉपी मांगी तो डॉक्टर ने यह कहकर रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया था कि ऊपर से ऐसा आदेश नहीं है। रामसेवक शर्मा कहते हैं कि अब हम अंधेरे में हैं। उन्हें नहीं मालूम कि उनकी पत्नी जीका पॉजिटिव है या नहीं। वह कहते हैं कि जब से ऐसा हुआ है, उनकी पत्नी बेहद मानसिक तनाव में है। उसने ठीक से खाना तक नहीं खाया।



सिरोंज ब्लॉक के ही वार्ड नंबर 1 में नीता साहू की कहानी और भयावह है। 27 साल की नीता अपना बच्चा 26 नवंबर को ही गिरा चुकी हैं। उनके खून का नमूना लेने भी 5 नवंबर को सरकारी अधिकारी आए थे। ठीक 10 दिन बाद उनके घर भी ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर आकर कहते हैं कि वह जीका पॉजिटिव हैं और उन्हें भी बच्चा गिराने की सलाह दी गई। इसके बाद उनसे भी एक अंडरटेकिंग ले ली गई। नीता कहती हैं, “हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था और हम ब्लॉक हॉस्पिटल पहुंच गए। वहां स्त्री रोग विशेषज्ञ ने मेरे खून के नमूनों की रिपोर्ट को देखा और बोला कि बच्चा गिरा दीजिए। हम इतना डर गए कि हमने वहीं निर्णय ले लिया कि हम गर्भपात करा लेंगे।” यह पूछे जाने पर कि क्या सलाह के पहले सरकारी डॉक्टर ने उनका अल्ट्रासाउंड कराया था, नीता कहती हैं, “नहीं”। नीता के पति बताते हैं, “हमारे पास इतना पैसा नहीं था कि हम किसी प्राइवेट अस्पताल में जाकर एक बार किसी डॉक्टर से दोबारा सलाह ले सकें, इसलिए हमने अपना बच्चा गिरा दिया।” मध्य प्रदेश सरकार के आंकड़ों के अनुसार, भोपाल में 53, विदिशा में 50 और सीहोर में 21 जीका पॉजिटिव मामले मिले जबकि सागर, रायसेन और होशंगाबाद में दो-दो मामले मिले। कुल मिलाकर 130 मामलों में 42 गर्भवती महिलाओं से संबंधित हैं। गर्भधारण के पहले तीन महीने में महिलाएं इसलिए निशाने पर होती हैं क्योंकि बच्चे का दिमाग इसी समय बनता है। माइक्रोसेफली के अलावा इन बच्चों में और विभिन्न शारीरिक विकास में देरी हो सकती है। अन्य जीका पॉजिटिव केस में यह किसी तरह की बड़ी बीमारी नहीं करता। बहुत दुर्लभ मामलों में गुलियन बारे सिंड्रोम हो सकता है जिससे मरीज लकवा का शिकार हो सकता है।

विदिशा के अलावा सीहोर और भोपाल में भी कई महिलाओं का नाम जीका पॉजिटिव की सरकारी सूची में दर्ज है। इन जिलों में कई जीका पॉजिटिव गर्भवती महिलाएं से डाउन टू अर्थ ने बात की। भोपाल की दीपिका सतनाकर के पति को जब उनकी पत्नी का हाल जानने के लिए फोन किया तो वह झल्लाकर बोले, “किस जीका की बात कर रही हैं आप? आज तक हमारे पास कोई सरकारी अधिकारी या सरकारी डॉक्टर यह कहने नहीं आया कि मेरी पत्नी को ऐसी कोई बीमारी है। हां, वह कुछ खून के नमूने लेने जरूर आए थे पर उसके बाद कोई नहीं लौटा, इसलिए हमने समझ लिया की सब ठीक है।” सतनाकर भोपाल के भीम नगर में रहते हैं। सरकारी दस्तावेजों में भोपाल के दमखेड़ा क्षेत्र की बबली रजक भी जीका पॉजिटिव हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें तो पता ही नहीं कि उन्हें जीका है। यही जवाब भोपाल की आरती अहिरवार ने दिया। सीहोर की सविता ताराचंद ने यह मानने से साफ इनकार कर दिया कि उन्हें जीका जैसी कोई बीमारी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार इन्हें क्यों नहीं बता रही है कि इन्हें जीका है और यदि इन्हें जीका है तो प्रधान सचिव के दावों के अनुसार, आज तक इनके पास कोई सरकारी डॉक्टर या अधिकारी किसी तरह की सलाह देने क्यों नहीं पहुंचा। कोई रिपोर्ट क्यों नहीं दी गई जिस पर इनका अधिकार है?

जीका एडीज एजिप्टी नामक मच्छर से होता है। यही मच्छर डेंगू और चिकनगुनिया भी फैलाता है। मध्य प्रदेश के नेशनल वेक्टर बोर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम के प्रोग्राम ऑफिसर हिमांशु जायसवार कहते हैं कि मच्छर के फैलाव को रोकने के लिए विभिन्न प्रकार के केमिकल से इंडोर और आउटडोर फॉगिंग की जा रही है। उन्होंने कहा कि कम से कम चार सब से ज्यादा प्रभावित जिलों में हर 7 दिन में मच्छर मारने के केमिकल का छिड़काव किया जा रहा है। पर जब जमीनी हकीकत आंकी गई तो कुछ और ही मिला। सिरोंज ब्लॉक की ही गर्भवती स्वाति देवी कहती हैं कि दिवाली के बाद एक बार ही छिड़काव हुआ। भोपाल के एक टैक्सी ड्राइवर दयाल सिंह चार इमली एरिया के आसपास रहते हैं। वहां जीका के सबसे ज्यादा मामले मिले। वह कहते हैं कि उनके घर के आसपास भी सिर्फ एक बार फॉगिंग हुई।



क्या देर से जागी सरकार?

तो क्या मध्य प्रदेश सरकार को किसी तरह का अंदेशा था? इस सवाल के जवाब में जायसवार कहते हैं कि राजस्थान में जीका के प्रकोप के बाद मध्य प्रदेश सरकार को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से 9 अक्टूबर को एक चिट्ठी प्राप्त हुई। उसके अगले दिन ही राज्य भर में एक एडवाइजरी जारी की गई। जीका के सबसे पहले मामले मध्य प्रदेश में 30 अक्टूबर को सामने आए, एक भोपाल, एक सीहोर और एक विदिशा में। अभी यही तीनों जिले सबसे ज्यादा जीका प्रभावित हैं। ऐसा क्यों हैं, हम ठीक से कुछ भी नहीं कह सकते। जायसवार ने बताया, “यह बात सच है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में लोग इधर-उधर काफी आते जाते हैं पर कोई भी बात निर्णायक रूप से कहने के लिए हम अभी पुणे स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं।” वह कहते हैं कि सर्विलांस को लेकर जो एडवाइजरी जारी की गई वह केंद्र के प्रोटोकॉल को अनुसार थी। उनके अनुसार, “इन एडवाइजरीज को जारी करने के बाद हमने तुरंत उन जगहों की जांच करना शुरू की जहां मच्छर पनप सकता था और वहां छिड़काव शुरू किया। उन्हीं एरिया से हमने सैंपल कलेक्शन भी शुरू किया।”

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए ) सरकार के शुरुआती प्रतिक्रिया पर सवाल खड़ा करता है। मध्य प्रदेश आईएमए के पूर्व अध्यक्ष संजय गुप्ता ने बताया, “जीका जब प्रदेश में आया तब तक राजस्थान में वह अपने पैर पसार चुका था। जीका राजस्थान में सितंबर में ही आ गया था। ऐसे माहौल में सबसे जरूरत इस बात की थी कि लोगों में एक बड़े स्तर पर जागरुकता फैलाई जाए। अगर यह हुआ होता तो शायद जीका को जल्दी कम कर लिया जाता।” सरकार भी इस कमी को स्वीकार करती है। जायसवार के अनुसार, “हम ज्यादा काम इसलिए नहीं कर सके क्योंकि हमें पैसे और कई स्तरों पर अनुमति चाहिए थी। तब तक आचार संहिता लागू हो चुकी थी और इसलिए यह कर पाना मुश्किल था।”

हालांकि ठंड में वायरस का प्रजनन कम हो जाता है। यह इस तरह खुद ही खत्म हो जाता है, इसलिए सरकार राहत की सांस ले सकती है पर 15 दिसंबर तक अधिकारी कहते हैं कि वे हालात पर नजर रखेंगे। जो चीज सरकार को सबसे ज्यादा परेशान कर रही है वह यह कि इस वायरस की प्रकृति और प्रकार (स्ट्रेन) कैसा है। गौरतलब है कि राजस्थान के मामले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के विशेषज्ञों के हवाले से कहा कि इस वायरस के नोन म्यूटेशंस (अभी तक जान सकने वाले म्यूटेशन) से माइक्रोसेफली नहीं होता। राजस्थान में जीका के कुल 159 मामले सामने आए थे। आईसीएमआर की एपिडेमियोलॉजी और कम्युनिकेशन विभाग की साइंटिस्ट निवेदिता गुप्ता ने बताया, “अननोन म्यूटेशंस के बारे में कुछ नहीं जा सकता। अननोन शब्द लगभग सभी मीडिया रिपोर्ट से गायब हो गया था। इस पर रिसर्च अब भी जारी है।” जहां तक मध्य प्रदेश की बात है तो उसके वायरस का तो वैज्ञानिक सीक्वेंसिंग ही नहीं कर पाए इसलिए इस अवस्था में माइक्रोसेफली के बारे में कुछ भी बता पाना नामुमकिन है। सीक्वेंसिंग इसलिए नहीं की जा सकी क्योंकि जो सैंपल एकत्रित किए गए उनकी मात्रा बहुत कम थी और इस बारे में आईसीएमआर ने सरकार को बता दिया है।

यदि हम भारत में जीका के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि ये पहले मामले नहीं हैं। एडसन डेलातोरे द्वारा लिखित और नवंबर 2017 में प्रकाशित एक पेपर के मुताबिक, एनआईवी ने 1954 में गुजरात के भरूच जिले में 16.7 प्रतिशत सैंपल में जीका पॉजिटिव प्रतिरक्षी (एंटीबॉडी) पाई थी। चूंकि जीका और डेंगू वायरस आपस में क्रॉस रिएक्ट करता है इसलिए यह सुनिश्चित कर पाना मुश्किल था कि यह जीका ही है। अहमदाबाद में नवंबर 2016 में एक गर्भवती महिला जीका पॉजिटिव पाई गई पर उसने स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। दो और केस अहमदाबाद में फरवरी-मार्च 2017 में पाए गए। डेलातोरे कहते हैं कि जीका वायरस भारत में कोई नया नहीं है और यह वेक्टर बोर्न एंटिटी के रूप में पहले से एक विशिष्ट पर्यावरण में रह रहा है।

भारत जीका के लिए अनुकूल

जीका वायरस की विश्व में दो वंशावली पाई गई है। पहला एशियाई और दूसरा अफ्रीकी। निवेदिता के अनुसार, अफ्रीकी स्ट्रेन युगांडा में एक बंदर में 1947 में पाया गया था। फिर यह वायरस रूप बदलते-बदलते साल 2000 के आसपास नया एशियाई रूप (लीनिएज) धारण कर लेता है जिसमें फैलने की छमता कहीं अधिक है। एशियाई लीनिएज का प्रकोप माइक्रोनेशिया के येप द्वीप में 2007 में हुआ और फिर फ्रेंच पोलिनेशिया में प्रकोप 2013-14 में हुआ। आईसीएमआर के विशेषज्ञों के मुताबिक, राजस्थान में जिस वायरस का अभी आउटब्रेक हुआ वह एशियन लीनिएज का था और इसकी प्रकृति ब्राजील के वायरस जैसी थी। उल्लेखनीय है कि ब्राजील में 2015 में जीका पॉजिटिव महिलाओं से 15,000 बच्चे माइक्रोसेफली से संदिग्ध पैदा हुए थे।

इस बार राजस्थान और मध्य प्रदेश में ही प्रकोप क्यों हुआ? इसके जवाब में आईसीएमआर के एक दूसरे वैज्ञानिक कहते हैं कि यदि यह इक्का-दुक्का होते रहे तो यह समझा जा सकता था कि यह है लोगों के जीका के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों में आने जाने के कारण हुआ। इस बार यह प्रकोप राजस्थान और मध्य प्रदेश में बहुत बड़ा था, इससे यह पता चलता है कि यह अब वायरस का लोकल ट्रांसमिशन हो रहा है और अब यह कोई आयातित वायरस नहीं रह गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जीका वायरस के प्रजनन के लिए बहुत अनुकूल वातावरण है। नवंबर 2017 में प्रकाशित एनआईवी के डॉक्टर टी मौर्य द्वारा लिखे गए पेपर के मुताबिक, ज्यादा नमी और एडीज मच्छरों के लिए अनुकूल तापमान मच्छरों की उम्र को बढ़ाता है। पेपर यह भी कहता है कि यह उन्हीं जगहों पर ज्यादा होता है जहां पानी स्टोर करके रखा जाता है। मध्य प्रदेश के प्रधान सचिव ने भी कहा था कि इस मच्छर के लार्वा उन्हीं जगहों पर उनके विशेषज्ञों को ज्यादा मिले जहां लोगों ने पानी जमा किया था। वहां पानी की पाइपलाइन नहीं बिछी हुई थी। जीका वायरस के 80 प्रतिशत मामलों की पहचान नहीं हो पाती क्योंकि उनके लक्षण स्पष्ट नहीं होते। ऐसे मामलों को डेंगू और चिकनगुनिया में शामिल कर लिया जाता है। इसलिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस की फराह इस्तियाक अपने 2018 के एक पेपर में कहती हैं कि यह मान लेना गलत नहीं होगा कि भारत में जीका के मामले कई गुना ज्यादा होंगे। पर क्या 1954 से लेकर 2017-18 तक भारत में जीका की कोई जांच नहीं हुई? आईसीएमआर के मुताबिक, 1954 में जब एनआईवी ने इस वायरस को भारत में पाया, तब यह उच्च प्राथमिकता वायरस नहीं बन पाया क्योंकि अन्य कई वायरस का प्रकोप कई अधिक था। जब इस वायरस का प्रकोप ब्राजील में 2015-16 में हुआ, तब विश्व को समझ आया कि इससे माइक्रोसेफली जैसी भयानक बीमारी हो सकती है जिससे आगे की नस्ल बर्बाद हो सकती है। तभी इस बीमारी पर विश्व और भारत का ध्यान गया। तब इस पर विश्व स्वस्थ संगठन ने पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित की। निवेदिता के मुताबिक, “राजस्थान में प्रकोप से पहले हमने करीब 80,000 खून के नमूने चेक किए। जो नमूने डेंगू वायरस और चिकनगुनिया वायरस के लिए नेगेटिव पाए गए, उसके 10 प्रतिशत नमूनों को जीका वायरस के लिए भी जांचा। 2016 से 2017 तक की अवधि में केवल 4 मामले मिले। 2018 में राजस्थान और मध्य प्रदेश में अचानक से संख्या बढ़ गई, इसलिए यह कहना गलत होगा कि हमने अपना सर्विलांस 2016 से पहले बड़े स्तर पर नहीं किया।”

जीका से भारत को कितना बड़ा खतरा है, इसका अंदाजा ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में 2017 के एक पेपर से मिलता है। अमीर एस सैनी और टीएल एलेक्स के अध्ययन के अनुसार, एशिया में जीका का सबसे ज्यादा प्रकोप भारत में हो सकता है। भारत में करीब 46.5 करोड़ लोग जीका के वायरस के प्रति संवेदनशील हैं। उनके मुताबिक, यदि लैटिन अमेरिकी देशों जैसा आउटब्रेक भारत में हुआ तो इसके बहुत दूरगामी परिणाम होंगे। विशेषज्ञों के मुताबिक, मच्छरों को नियंत्रित करना ही बीमारी रोकने का कारगर तरीका है।

आईसीएमआर ने हाल ही में सरकार को चेताया है कि यदि अगले साल जीका का प्रकोप रोकना है तो मच्छरों के पनपने वाले संभावित क्षेत्रों में उनके प्रजनन से पहले से इसे रोकना होगा। अब यह सरकार पर निर्भर है कि वह कितनी गंभीरता से इस पर अमल करती है।