भारतीय शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो दीर्घकालिक किडनी रोगों की समय रहते पहचान में मददगार हो सकती है। इसे विकसित करने वाले शोधकर्ताओं के अनुसार, यह अत्यंत संवेदनशील इलेक्ट्रो-केमिकल सेंसर आधारित तकनीक है, जिसका उपयोग किडनी रोगों के विभिन्न स्तरों का पता लगाने के लिए किया जा सकेगा।
नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स ऐंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी और एमिटी विश्वविद्यालय, राजस्थान के शोधकर्ताओं ने कैप्चर प्रोटीन पैपेन के साथ बहु-भित्तीय (मल्टीवॉल्ड) कार्बन नैनोट्यूब इलेक्ट्रोड में बदलाव कर सहसंयोजी आबंधों के स्थिरीकरण के जरिये एक नया इलेक्ट्रो-केमिकल सेंसर विकसित किया है। शोध के दौरान विभिन्न माइक्रोस्कोपिक और स्पेक्ट्रोस्कोपिक पद्धितियों से इलेक्ट्रोड परीक्षण बंध की पुष्टि की गई है।
किडनी रोगों से संबंधित मार्कर 'सिस्टेटिन-सी' संशोधित इलेक्ट्रोड के जरिये होने वाले इलेक्ट्रॉनिक संचरण में कैप्चर अणु उत्पादक परिवर्तनों को आबंध कर सकता है। सिस्टेटिन-सी को किडनी रोगों के मार्कर के रूप में नेशनल किडनी फाउंडेशन द्वारा प्रमाणित किया गया है। मार्कर उन जैविक संकेतकों को कहा जाता है, जिनकी मदद से परीक्षण के दौरान रोगों की पहचान की जाती है।
क्रिएटिनिन, एल्ब्यूमिन और ग्लायडिन पर इसका परीक्षण करने पर वैज्ञानिकों ने इस सेंसर को 'सिस्टेटिन-सी' के प्रति सबसे अधिक प्रभावी पाया है। सेंसर का परीक्षण मलमूत्र के नमूने के साथ करने पर इसकी विशुद्धता की दर काफी अधिक पायी गई है।
अध्ययनकर्ताओं में शामिल एमिटी विश्वविद्यालय की शोधकर्ता मनाली दत्ता ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “विभिन्न पीएच स्तरों पर इस सेंसर का परीक्षण किया गया है और यह प्रति लीटर मलमूत्र में किडनी रोगों से जुड़े विशिष्ट मार्कर की छह माइक्रोग्राम तक न्यूनतम मात्रा की पहचान कर सकता है। यह सेंसर आधार-रेखा के अनुरूप सिस्टेटिन-सी की सांद्रता के साथ-साथ किडनी संबंधित रोगों के विभिन्न स्तरों का पता लगाने में सक्षम है।”
वृक्क नलिका में गड़बड़ी के कारण किडनी की कार्यप्रणाली में लगातार होने वाली गिरावट को किडनी की दीर्घकालिक बीमारी के रूप में जाना जाता है। डायबिटीज, हाइपरटेंशन, हृदय रोग और हार्मोनल असंतुलन के कारण किडनी संबंधी रोगों का खतरा बढ़ जाता है। बीमारी की गंभीरता के आधार पर किडनी रोगों को पांच स्तरों में बांटा गया है। अस्पतालों में किए जाने वाले परीक्षणों में आमतौर पर दीर्घकालिक किडनी रोगों के तीसरे से पांचवे स्तर की पहचान हो पाती है। तब तक बीमारी उग्र रूप धारण कर चुकी होती है।
किडनी रोगों की पहचान आमतौर पर अस्पताल में मलमूत्र और रक्त परीक्षण के जरिये की जाती है। इन परीक्षणों में मलमूत्र में प्रोटीन और क्रिएटिनिन के स्तर की जांच की जाती है। पर, सीरम क्रिएटिनिन के उपयोग से खतरे का अंदेशा बना रहता है क्योंकि किडनी की कार्यप्रणाली आमतौर पर 50 प्रतिशत कम होने पर परीक्षण से बीमारी का पता लग पाता है। ऐसे में सही समय पर उपयुक्त उपचार मरीज को नहीं मिल पाता, जो उसके लिए जानलेवा साबित होता है। इसलिए बीमारी की गंभीरता का पता लगाने के लिए एक सटीक पद्धति की आवश्यकता है।
आरंभिक स्तर पर अगर किडनी रोगों की पहचान हो जाए तो संतुलित आहार और एंजियोटेनसिन-कंवर्टिंग इन्हिबिटर्स के उपयोग से किडनी की बीमारियों को बढ़ने से रोका जा सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इस नई तकनीक के उपयोग से किडनी रोगों का समय रहते पता लगाना आसान हो सकता है और मरीजों को किडनी की बीमारियों से होने वाले दुष्प्रभावों से बचाया जा सकेगा।
भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या करीब 72 लाख है, 1.10 करोड़ लोग हाइपरटेंशन से ग्रस्त हैं और लगभग 40 लाख लोग हृदय रोगों से पीड़ित हैं। इन आंकड़ों को देखें तो हमारा देश दीर्घकालिक किडनी रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील है। ऐसे में 'प्वाइंट ऑफ केयर डायग्नोस्टिक' (पीओसीडी) डिवाइस विकसित करना जरूरी हो जाता है। नई तकनीक पीओसीडी के विकास में उपयोगी साबित हो सकती है।
अध्ययनकर्ताओं में मनाली दत्ता के अलावा एमिटी यूनिवर्सिटी की दिग्निया देसाई और इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स ऐंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (आईजीआईबी) के शोधकर्ता प्रोफेसर अशोक कुमार शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका बायोसेंसर्स और बायोइलेक्ट्रॉनिक्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)