स्वास्थ्य

अथ एंटीबायोटिक कथा

इस विचार का सबूत नहीं मिला है कि एंटीबायोटिक को जल्दी बंद करने से जीवाणुओं के प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने का खतरा बढ़ जाता है।

Rakesh Kalshian

एक प्रजाति के तौर पर हम एक खूनी मशीन बन चुके हैं। हम ये हत्याएं केवल आत्मरक्षा के लिए नहीं कर रहे जैसा कि अन्य प्राणी करते हैं, जो अपने प्राकृतिक हथियारों जैसे जहर, सींग, दांतों आदि के जरिए अपना बचाव करते हैं। प्रकृति ने हमें सोचने की जो अलौकिक शक्ति दी है, उसका इस्तेमाल हम केवल किसी को नुकसान पहुंचाने या मारने के लिए ही नहीं कर रहे बल्कि उनका अस्तित्व ही समाप्त कर रहे हैं। फिर चाहे वह दीमक हो, मच्छर हो, कैंसर सेल हो या फिर अन्य मनुष्य ही क्यों न हों।

एंटीबायोटिक ऐसे हथियारों का ही हिस्सा हैं। इन्हें हानिकारक जीवाणुओं को खत्म करने के लिए बनाया गया था। जब भी हम बीमार पड़ते हैं, डॉक्टर आमतौर पर एंटीबायोटिक लेने को कहते हैं। हमें सलाह दी जाती है कि पांच या सात दिन ये दवाइयां लें, नहीं तो जीवाणु पूरी तरह खत्म नहीं होंगे और जिंदा रहकर उनमें दवाई की प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। चिकित्सा प्रतिष्ठानों के अनुसार, इस सिद्धांत का पालन न करना एंटीबायोटिक की प्रतिरोधक क्षमता की समस्या का एक कारण है।

अब यह पता चला है कि इस सिद्धांत का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के हालिया संस्करण में ब्रिटेन और ससेक्स मेडिकल स्कूल के अनुसंधानकर्ताओं ने यह दावा किया है कि “इस विचार का कोई सबूत नहीं मिला है कि एंटीबायोटिक को जल्दी बंद करने से जीवाणुओं के प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने का खतरा बढ़ जाता है, जबकि एंटीबायोटिक का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल प्रतिरोधक क्षमता के जोखिम को जरूर बढ़ा देता है।” इस विपरीत सिद्धांत के प्रतिपादकों का मानना है कि तबीयत में सुधार होते ही एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बंद कर दें।

इन विपरीत सिद्धांत वालों के कुछ समर्थक भी हैं, किंतु अभी इनकी संख्या इतनी नहीं है कि आमूलचूक परिवर्तन हो सके और डॉक्टर अपने इलाज का तरीका बदल लें। इस बीच, एंटीमाइक्रोबिअल प्रतिरोधक क्षमता (एएमआर) की समस्या चिंताजनक से बढ़कर गंभीर हो गई है। ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई एंटीमाइक्रोबिअल प्रतिरोधक क्षमता संबंधी समीक्षा के अनुसार, वर्ष 2050 तक एएमआर से उत्तर अमेरिका में हर वर्ष 317,000, यूरोप में 390,000 और एशिया तथा अफ्रीका में 40 लाख लोगों की जान जाने की आशंका है।

स्पष्ट रूप से, स्थिति इतनी गंभीर है कि अनुसंधानकर्ताओं ने भविष्य में “एंटीबायोटिक सदी” की कल्पना की है जिसमें कीमोथेरेपी, अंगों का प्रत्यारोपण अथवा सीजेरियन करना लगभग असंभव होगा। जबकि गॉनरिया, दिमागी बुखार और टायफाइड जैसे संक्रमण का इलाज नहीं हो पाएगा। पिछले दिसंबर में जब एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधी बैक्टीरिया की खबर सामने आई, जो स्पष्ट तौर पर मल्टी-ड्रग प्रतिरोधी बैक्टीरिया के खिलाफ अंतिम उपाय है, तो इसने शोधकर्ताओं को निराशा और भय से भर दिया।

भारत के लिए यह स्थिति विशेषरूप से हानिकारक है क्योंकि यहां एंटीबायोटिक की खपत पूरे विश्व में सबसे ज्यादा है। वर्ष 2010 में द लेंसेट में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 1300 करोड़ यूनिट की खपत हुई और चीन में लगभग 1000 करोड़ और अमेरिका में लगभग 700 करोड़ यूनिट की। चिंताजनक रूप से, गहन अध्ययन और आंकड़ों के अभाव में हम यह तक नहीं जानते कि हमारा शत्रु कितना ताकतवर है।हमारी इस चिंता को बढ़ाने वाला एक तथ्य यह भी है कि हम यह भी नहीं जानते कि विश्व में डेरी और मांस उद्योग कितनी मात्रा में एंटीबायोटिक का उपयोग करता है। एक अनुमान के अनुसार, अमेरिका अपने 80-90 प्रतिशत एंटीबायोटिक का इस्तेमाल खेतों में जानवरों के लिए करता है ताकि उन्हें मोटा किया जा सके। शोधकर्ताओं का मानना है कि जाहिर तौर पर, चीन इससे बड़ा अपराधी है। उनका मानना है कि जीवाणु प्रतिरोध विकृति चीन के सुअर फार्म से आई है। वहीं वर्ष 2006 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित करने वाला यूरोपीय संघ इस प्रतिबंध को लागू करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा है।

एंटीबायोटिक रिस कर उद्योगों और घरों से निकलने वाले गंदे पानी (शोधन संयंत्र इसे साफ नहीं कर पाते) के रूप में पीने के पानी में मिलते हैं अथवा फार्म पर पलने वाले पशुओं के जरिए मांस व दूध में पहुंचते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि हम असल में बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक निगल रहे हैं। ये बातें भूतिया फिल्म की तरह लगती हैं जिसमें एंटीबायटिक मानो कोई भयानक राक्षस है। लगभग 75 वर्ष पहले, जब पहला एंटीबायोटिक ऐनीसिलिन बनाया गया था, तब इन्हें रामबाण दवाइयां माना जाता था जो मानवजाति को सभी प्रकार की महामारियों को बचाएंगी।

इससे पहले, 19वीं सदी के अंत में और 20वीं सदी की शुरुआत में, रोगाणु के सिद्धांत ने लुई पाश्चर, जोसेफ लिस्टर और रॉबर्ट कोच जैसे महान व्यक्तियों को जीवाणु के अत्याचार के खिलाफ काम करने के लिए प्रेरित किया जिसने दुनियाभर में लाखों लोगों को अपना शिकार बनाया था। रोगाणु का सिद्धांत विदेशियों द्वारा दिया गया यह विचार था कि बीमारियों का कारण ऐसे छोटे जीव हैं जिन्हें आंखों से देख पाना संभव नहीं है। सन 1918 से 1919 के बीच ग्रेट स्पेनिश फ्लू नामक बीमारी ने 50 करोड़ लोगों को अपनी चपेट में ले लिया था और 2 से 4 करोड़ लोग मारे गए थे। इसके बाद एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने सामान्य ब्रेड मोल्ड की बैक्टीरिया मारने की क्षमता का उपयोग करते हुए उससे पेनिसिलिन बनाई। इससे पहले वैज्ञानिक फफूंदी और बैक्टीरिया से एंटीबायोटिक बना रहे थे जिसने एंटीबायोटिक क्रांति को जन्म दिया। इन चमत्कारी दवाइयों के प्रति डॉक्टर इस हद तक उत्साहित थे कि उनका मानना था कि ये बिना किसी नुकसान के लगभग हर बीमारी को ठीक कर सकते हैं जैसे और दवाइयां करती हैं। इसलिए यद्यपि इसने लाखों लोगों की जान बचाई, तथापि इसके अत्यधिक और अंधाधुंध प्रयोग ने ऐसे रोगाणुओं को बढ़ावा दिया जो पहले की शक्तिशाली दवाइयां का मुकाबला कर सकते थे।  

इसे इस तरह समझें। डारविन के जीवन के लिए संघर्ष सिद्धांत के अनुसार रोगाणु, बैक्टीरिया, फफूंदी और जीवाणु- लाखों वर्षों तक एक-दूसरे को हरा कर जीवन की दौड़ में आगे रहना चाहते थे। इस कभी न खत्म होने वाले युद्ध ने न केवल एंटीबायोटिक नामक रासायनिक हथियार को जन्म दिया बल्कि उन्होंने आत्मरक्षा की रणनीति भी ईजाद कर ली। वर्ष 2011 में वैज्ञानिकों को कनाडा के याकुन प्रांत में पर्माफ्रौस्ट के नीचे 30,000 वर्ष पुराना बैक्टीरिया मिला जो आधुनिक एंटीबायोटिक के लिए चुनौती पेश करता है जो बताता है कि रोगाणु पुरातन समय के भी पहले एंटीबायोटिक की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके थे।

तो क्या इसका मतलब यह है कि एंटीबायोटिक की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ावा देने के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं? पूरी तरह से नहीं। जैसा कि अमेरिकी माइक्रोबायलॉजिस्ट मार्टिन ब्लेजर लिखते हैं, “यद्यपि प्रतिरोधक क्षमता प्राचीन है, तथापि हमने इसे और बदतर बना दिया है। हम यह तक नहीं जानते कि इसकी सीमा क्या है। समुद्री जीवन तक ने हमारे क्रियाकलापों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता दिखाई है।” प्राचीन काल की प्रतिरोधक क्षमता यह भी दर्शाती है कि इसे रोका नहीं जा सकता। जीवाणुओं के विरुद्ध किसी भी रामबाण दवा का सपना अंतत: टूट जाएगा।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि स्वरोगप्रतिरोधक क्षमता संबंधी विकार, बच्चों में डायबिटीज, ऑटिजम, मोटापा, भोजन संबंधी एलर्जी तथा कुछ अन्य बीमारियों का कारण एंटीबायोटिक का दुरुपयोग हो सकता है, जिसकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या अभी नहीं मिली है। इस परिकल्पना के अनुसार, ऐसा तब होता है जब गैर-हानिकारक बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक से लड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। हमारे शरीर के हर हिस्से के अंदर और बाहर उपस्थित ये बैक्टीरिया शरीर की प्रतिरोधक क्षमता, पाचनक्रिया और ज्ञान संबंधी जरूरतों को पूरा करने में सहायता करते हैं।

स्पष्ट रूप से, जिन बोतल से निकल चुका है और अब इसे वापस डालना कठिन है। दवा निर्माता कंपनियां एंटीबायोटिक में और निवेश नहीं करना चाहतीं क्योंकि इसे होने वाला लाभ बहुत कम है। एंटीबायोटिक के दुरुपयोग को रोकने के लिए जागरुकता अभियानों, ऐसी जांचों, जिनसे पता चल सके कि व्यक्ति को एंटीबायोटिक की आवश्यकता है अथवा नहीं, और यदि है तो कितनी मात्रा में है, के जरिए सरकारें अपनी ओर से प्रयास कर रही हैं, जैसे कि हमारी एएमआर संबंधी मसौदा राष्‍ट्रीय कार्य योजना। तथापि, एएमआर के खतरे की मात्रा और जटिलता को देखते हुए ये प्रयास पर्याप्त नहीं लगते। शुरुआत के तौर पर सरकार डेनमार्क के पदचिह्नों पर चल सकती है जिसने मांस और दुग्ध उत्पादों में एंटीबायोटिक का प्रयोग बंद कर दिया है। जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता के इतिहास को देखते हुए हम कम से कम उनके खिलाफ एक सीमा के भीतर तो युद्ध कर ही सकते हैं। जैसा कि विकासवादी जीवविज्ञानी स्टीफन जे. गुड कहते हैं, “हम बैक्टीरिया के युग में रहते हैं (यह आरंभ में भी थे, आज भी हैं और दुनिया के खत्म होने तक रहेंगे)...”।  

(इस कॉलम में विज्ञान और पर्यावरण की उलझी आधुनिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास रहेगा)