स्वास्थ्य

टीबी को खत्म करने की नई योजना पर बनी वैश्विक सहमति, 2021 में गई थी 16 लाख जानें

इस योजना के तहत तपेदिक की रोकथाम व देखभाल सेवाओं को 90 फीसदी लोगों तक पहुंचाने की बात कही गई है। साथ ही टीबी की कम से कम एक नई वैक्सीन को मंजूरी देने का लक्ष्य रखा गया है

Lalit Maurya

2030 तक दुनिया को टीबी यानी तपेदिक मुक्त करने के लिए नई योजना पर दुनिया भर के देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की है। इस पर शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च-स्तरीय बैठक में करार किया गया है। इस राजनैतिक घोषणापत्र में अगले पांच वर्षों के लिए नए महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का खाका पेश किया गया है। योजना का लक्ष्य दुनिया भर से इस बीमारी के दूर करने के लिए किए जा रहे प्रयासों में तेजी लाना है।

इसके तहत, तपेदिक (टीबी) की रोकथाम व देखभाल सेवाओं को 90 फीसदी लोगों तक पहुंचाने की बात कही गई है। साथ ही जो मरीज इस बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें इससे उबरने में आर्थिक-सामाजिक मदद देने की बात कही गई है। साथ ही इस घोषणापत्र में टीबी की कम से कम एक और नई वैक्सीन को मंजूरी देने की बात कही गई है। गौरतलब है कि इस बीमारी के खिलाफ जंग में केवल एक ही वैक्सीन उपलब्ध है, जिसे करीब 100 वर्ष पहले तैयार किया गया था। इसका लक्ष्य बीमारी का जल्द से जल्द पता लगाने के लिए रैपिड टीबी परीक्षण का उपयोग करना और 2027 तक टीबी की रोकथाम के लिए किए जा रहे प्रयासों और रिसर्च के लिए धन की कमी को पूरा करना भी है।

ट्यूबरक्लोसिस जिसे टीबी, क्षय रोग या तपेदिक भी कहते हैं, एक घातक संक्रामक बीमारी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार के मुताबिक टीबी, कोविड-19 के बाद दूसरी सबसे घातक संक्रामक बीमारी है। जो दुनिया भर में होने वाली मौतों का 13वां सबसे आम कारण है। यदि आंकड़ों पर गौर करें तो 2021 में इस बीमारी के चलते 16 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था, इनमें 187,000 लोग एचआईवी से पीड़ित थे।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार 2021 में, दुनिया भर में करीब 1.06 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में आए थे। इनमें से करीब 60 लाख पुरुष, 34 लाख महिलाएं और 12 लाख बच्चे शामिल थे। जो साफ तौर पर दर्शाता है कि यह बीमारी हर उम्र के लोगों को प्रभावित कर रही है। हालांकि इसका इलाज और रोकथाम दोनों संभव है। लेकिन मल्टीड्रग-प्रतिरोधी टीबी (एमडीआर-टीबी) सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए आज भी गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है।

एमडीआर-टीबी से पीड़ित केवल एक तिहाई लोगों को ही मिल सका था इलाज

यदि 2021 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो उस दौरान एमडीआर-टीबी से पीड़ित केवल तीन में से एक ही मरीज को इलाज मिल सका था। हालांकि 2000 से 2021 के बीच, टीबी को रोकथाम के लिए किए जा रहे प्रयासों की मदद से 7.4 करोड़ जिंदगियां बचाई जा सकी हैं, लेकिन इसके बावजूद अभी भी किए जा रहे प्रयास 2030 के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफी नहीं हैं। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा की एक उच्च-स्तरीय बैठक में इससे निपटने के लिए नए करार किए गए हैं।

अकेले भारत में देखें तो 2015 में इस बीमारी के 28 लाख मामले सामने आए थे, जिनमें से करीब 4.8 लाख लोगों की मौत हो गयी थी। वहीं 2019 के दौरान देश में टीबी के 21.6 लाख मामले सामने आए थे, जो 2020 में घटकर 16.2 लाख रह गए थे। एक ऐसी बीमारी है जिसकी पहचान आसानी से नहीं हो पाती इसलिए इसके लक्षणों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है।

गौरतलब है कि टीबी कोई नई बीमारी नहीं है। पिछली कई सदियों से इंसानियत ने टीबी का सामना किया है, जिसे पहले व्हाइट प्लेग या अन्य नामों से जाना जाता था। यह मुख्यत: एक बैक्टीरिया की वजह से फैलती है जो फेफड़ों को प्रभावित करता है, हालांकि एंटीबायोटिक्स के जरिए इसका इलाज मुमकिन है। हालांकि कोरोना के चलते इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों में सुस्ती आ गई थी। यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो कोरोना के चलते 2020 में करीब 14 लाख लोगों को जरूरी सहायता और इलाज नहीं मिल पाया था। इसकी वजह से कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा बोझ पड़ रहा है। 

टीबी की बीमारी को दुनिया से पूरी तरह खत्म करने के लिए इसे सतत विकास के लक्ष्यों में भी जगह दी गई थी। बता दें कि सतत विकास के यह लक्ष्य दशक के अंत तक एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए तैयार किए गए ब्लूप्रिन्ट हैं, जिसमें सबके विकास की बात कही गई है। यदि 2018 में देखें तो देशों ने टीबी के उपचार के दायरे में चार करोड़ लोगों को लाने का लक्ष्य रखा था, जिसके तहत तीन करोड़ 40 लाख मरीजों तक पहुंचा जा सके। साथ ही इसके तहत तीन करोड़ मरीजों तक रोकथाम और उपचार का लाभ पहुंचाने की बात कही गई थी, मगर दुःख की बात है कि यह लक्ष्य भी केवल 50 फीसदी ही हासिल किया जा सका है।

संयुक्त राष्ट्र की उपमहासचिव आमिना मोहम्मद ने टीबी के लिए गरीबी, पोषण की कमी, स्वास्थ्य देखभाल के साधनों का आभाव, एचआईवी, मानसिक स्वास्थ्य, धूम्रपान जैसे कारणों को जिम्मेवार माना है। उनके मुताबिक लोगों में इस बीमारी को लेकर आज भी छुआछूत की मानसिकता रहती है, जिसे दूर किए जाने की जरूरत है। ताकि बिना किसी भेदभाव और डर के इससे ग्रसित लोगों को मदद दी जा सके। उनके मुताबिक इसके साथ ही देशों को सभी के लिए स्वास्थ्य साधन मुहैया करने के प्रयास करने होंगें और टीबी की जांच, रोकथाम व उपचार को उसके दायरे में लाना होगा।