स्वास्थ्य

क्या बड़ी फार्मा कंपनियों से टकराने से बचना चाहती है भारत सरकार?

एक ओर अमीर देश जब दवाओं के अनिवार्य लाइसेंस की खूबियां तलाश रहे हैं, दूसरी ओर भारत, कोर्ट के संकेतों के बावजूद इससे मुंह फेर रहा है।

Latha Jishnu

कोविड-19 की घातक दूसरी लहर से जूझ रहे भारत को रूस ने मानवीय आधार पर मई के अंत तक दवाईयों  के लगभग ढाई लाख पैकेट भेजे। इन पैकेटों में रेमेडीफार्म दवा भी शामिल थी, जिसका इस्तेमाल अस्पतालों में भर्ती कोरोना के गंभीर मरीजों को बचाने में किया जाता है। यह दवा रेमेडेसिवर का रूसी जेनरिक वर्जन थी, जिसका वास्तविक उत्पादन गिलियड साइंसेस नाम की अमेरिकी फार्मा कंपनी करती है। इस दवा के आने से भारत सरकार की उस दवा नीति पर एक बार फिर सवाल खड़े हुए, जिसके तहत सरकार अनिवार्य लाइसेंस के जरिए उन दवाओं के विकल्प का उत्पादन नहीं कर सकती, जिनका पेटेंट कराया जा चुका है। भले ही पेटेंट वाली दवाएं आम लोगों की पहुंच से बाहर और महंगी हों।

रूस में रेमेडीफार्म का उत्पादन, अनिवार्य लाइसेंस के जरिए ही किया जा रहा है। ऐसा विश्व व्यापार संगठन की उस लचीली नीति के तहत संभव है, जो अपने किसी सदस्य देश में स्वास्थ्य की आपातकालीन स्थितियों में बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देती है। भारत में रेमेडेसिवर, इसकी पेटेंट होल्डर फार्मा कंपनी गिलियड के स्वैच्छिक लाइसेंस के तहत बनाई जाती है। उसने आठ कंपनियों को ऐसे लाइसेंस दे रखे हैं, जो उसके नियम-कानूनों के तहत इस दवा का उत्पादन और निर्यात कर सकती हैं।

स्वैच्छिक लाइसेंस को अनिवार्य लाइसेंस की तुलना में तेज माना जाता है। इसके तहत दवाओं के उत्पादन और निर्यात में उस तरह की कानूनी अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ता, जैसे अनिवार्य लाइसेंस में। पेटेंट होल्डर कंपनी स्वैच्छिक लाइसेंस लेने वाली फर्म को  अपनी दवा की मांग और दाम तय करने की इजाजत देती है, चाहे बाजार में उस दवा की कितनी ही जरूरत क्यों न हो। यही वजह है कि अप्रैल-मई में भारत में रेमेडेसिवर की जितनी जरूरत थी, उसकी उपलब्धता उससे कहीं कम थी। जिसके चलते देश का दूसरे देशों की मदद लेनी पड़ी।

रूस के मुताबिक, उसने गिलियड से स्वैच्छिक लाइसेंस के लिए कई बार अनुमति मांगी्, लेकिन उसके इंकार किए जाने के बाद मजबूरी में उसे जनवरी में अनिवार्य लाइसेंस का फैसला लेना पड़ा। पुतिन सरकार का कहना था कि दवा के उत्पादन की मुख्य वजह यह थी कि उसकी कमी पड़ रही थी और दाम तेजी से बढ़ रहे थे। इसके चलते सरकार को गिलियड साइंसेस और गिलियड फार्मासेट के पेटेंट नियमों को एक साल तक के लिए खारिज करना पड़ा, हालांकि सरकार फार्मा कंपनी को राॅयल्टी का भुगतान करेगी। गिलियड ने रूस सरकार के फैसले को कानूनी चुनौती दी थी, जिसे कई में देश के शीर्ष कोर्ट ने खारिज कर दिया था। गिलियड की दलील थी कि अनिवार्य लाइसेंस लेना 'अनावश्यक और अनुत्पादक’ था। हालांकि रूस सरकार का कहना था कि इस प्रक्रिया से दवा के उत्पादन में, स्वैच्छिक लाइसेंस की तुलना में छह गुना कम लागत आई।

दूसरी ओर मोदी सरकार बड़ी फार्मा कंपनियों से टकराने से बचना चाहती है। यहां तक कि जब लोग महामारी से मर रहे थे और दवा की कमी से तड़प रहे थे, सरकार सार्वजनिक तौर पर स्वैच्छिक लाइसेंस का पक्ष ले रही थी। सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सरकार से कहा कि वह रेमेडेसिवर और कोविड-19 की दूसरी दवाओं की कमी को देखते हुए स्वैच्छिक लाइसेंस को वरीयता देने के अपने फैसले पर पुर्नविचार करे।

सरकार ने कोर्ट में अपने शपथ-प़त्र में कहा कि दवाओं की कमी की असली वजह कच्चे माल और दूसरी जरूरी चीजों की कमी है। फार्मा कंपनियों की दलील में सरकार ने यह तक कहा कि ‘यह मानना धृष्टता होगी कि पेटेंट होल्डर कंपनिया और स्वैच्छिक लाइसेंस देने पर राजी नहीं होंगी।’ सरकार की इस तरह की प्रतिबद्धता क्या साबित करती है ?

कहीं यह मोदी सरकार के उस वादे की वजह से तो नहीं, जिसमें उसने 2016 में भारत- अमेरिका बिजनेस काउंसिल में कहा था कि वह दवाओं के अनिवार्य लाईसेस की अनुमित नहीं देगी।

हालांकि अमेरिका के रुख में इसे लेकर अजीब सा बदलाव नजर आया है। प्रारंभिक तौर पर कारपोरेट के हितों की रक्षा के लिए इसने अनिवार्य लाइसेंस का विरोध किया। हालांकि अब यह इसका प्रशंसक बन गया है। पिछले दो दशकों में अमेरिका ने स्वास्थ्य इमरजेंसी में अनिवार्य लाईसेंस का इस्तेमाल करने वाले किसी देश पर शायद ही उसने जुर्माना लगाया हो या उसे धमकी दी हो।

अब जबकि अमेरिकी और यूरोपीय देश अलग सुर आलाप रहे हैं। सौ से ज्यादा देश भारत और दक्षिण अफ्रीका के विश्व व्यापार संगठन में उस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं, जिसमें दोनों देशों ने गुजारिश की है कि महामारी से लड़ने के लिए बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देना जरूरी है, जिससे कि दुनिया के गरीब और मध्यवर्गीय देशों को भी दवाईयां, वैकसीन और इलाज उपलब्ध हो सके।

अमेरिकी और यूरोपीय संघ भी ऐसे समय में अनिवार्य लाईसेंस की वकालत कर रहे हैं, जिससे पेटेंट की जड़ताओं को तोड़़़कर  दवाओं और वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाया जा सके।

हालांकि जून की शुरुआत में विश्व व्यापार संगठन में पेश यूरोपीय संघ का प्रस्ताव कुछ हद तक स्पष्ट नहीं है। उसका कहना है कि स्वैच्छिक निर्णय और सार्वजनिक-निजी सहयोग ही कोविड के इलाज और वैक्सीन तैयार करने का सबसे प्रभावी रास्ता है। उसका मानना है कि चूंकि ऐसे स्वैच्छिक समझौते हमेशा संभव नहीं हो सकते हैं, ऐसे में अनिवार्य लाइसेंस एक ‘महत्वपूर्ण और उचित तरीका ’ है।

हालांकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के ट्रैक रिकाॅर्ड का देखते हुए इसे उलटफेर ही कहा जाएगा। भारत ने केवल एक बार 2012 में अनिवार्य लाइसेंस की अनुमति दी थी जब हैदराबाद स्थित नाटको फार्मा की कैंसर की दवा नेक्सावर बाजार में बहुत महंगे दाम पर बिक रही थी। तब अमेरिका और यूरोपीय संघ ने उस पर धावा बोल दिया था और इस कदम की कड़ी आलोचना की थी। तब अमेरिका के व्यापारिक घरानों ने भारत की छवि ऐसे देश के तौर पर पेश की थी, जो बार-बार अनिवार्य लाइसेंस लागू करने वाला देश है, हालांकि भारत ने दोबारा ऐसा अब तक नहीं किया।

कोरोना महामारी ने फार्मा कंपनियों के बौद्धिक संपदा कानून के बड़े हितैषियों को भी सोच बदलने को मजबूर किया है। अमीर देश अब अनिवार्य लाइसेंस को कोविड-19 से लड़ने में जरूरी औजार मान रहे हैं।

2020 की शुरुआत से एक दर्जन देशों ने अपने बौद्धिक संपदा कानूनों में सुधार की अनिवार्य लाइसेंस को स्वीकृति देना तेज किया है। इनमें आर्थिक पाॅवरहाउस कहे जाने वाले जर्मनी समेत यूरोपीय संघ के कई देश शामिल हैं। दूसरे देश भी पीछे नहीं हैं, जैसे इजरायल, जिसने मार्च 2020 में कोविड-19 के मरीजों के काम आने वाले एचआईवी एडस की एक दवा के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने में देर नहीं लगाई। दरअसल, इस दवा की पेटेंट होल्डर कंपनी उसकी पर्याप्त सप्लाई नहीं कर पा रही थी।

इस पृष्ठभूमि में अनिवार्य लाइसेंस को लेकर भारत की हिचकिचाहट को समझना मुश्किल है क्योंकि इसे लेकर इस देश के नियम तार्किक हैं और जिन्हें सुधारने की जरूरत भी नहीं है। अप्रैल और मई में देश  के लोगोें का रेमेडेसिवर के लिए संघर्ष करना, स्वैच्छिक लाइसेंस वाली कंपनियों के लिए काला धब्बा था। सुप्रीम कोर्ट को मोदी सरकार को यह बताने को बाध्य होना पड़़ा कि स्वास्थ्य के आपातकाल की स्थिति मे बौद्धिक संपदा के नियमों में छूट देकर अनिवार्य लाइसेंस दिए जा सकते हैं। इससे कोई सबक लिया जा सकता है तो वह यह कि अनिवार्य लाइसेंस, स्वैच्छिक लाइसेंस से एक कदम आगे की चीज है।

निश्चित तौर पर अनिवार्य लाइसेंस उन सारी बीमारियों का इलाज नहीं है, जो महामारी ने हमें दी हैं। नए उत्पादों के उभरने से बौद्धिक संपदा का परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है और लगातार बदलता जा रहा है। व्यापार के नए रंग- ढंग के चलते पेटेंट प्रकाशित नहीं कराए जा रहे और तकनीक का बड़ा हिस्सा स्क्रूटनी से बाहर है। यह बात नई एमआरएनए वैक्सीन के बारे में बिल्कुल सच है, जिसे अमेरिका और यूरोप में बनाया जा रहा है और जिसकी नकल करना बहुत मुश्किल है।

भारत की दवा इंडस्ट्री में ख्याति वाले दिन इसकी रिवर्स इंजीनियरिंग दवाओं में दक्षता के चलते आए, जिन्हें छोटे अणुओं खासकर रासायनिक यौगिकों से विकसित किया गया था। निश्चित तौर पर रेमेडेसिवर तैयार करना इसकी क्षमता से बाहर नहीं है ? या फिर जेनरिक दवा तैयार करने वालों की बदलाव वाली सोच खत्म हो गई। एचआईवी दौर की सिपला जैसी मुख्य कंपनिया आज स्वैच्छिक लाइसेंस की पृष्ठभूमि में भी मजबूती से खड़ी हैं। शक्तिशाली नाटको फार्मा कंपनी ने हाल ही में बैरीसिटनिब के लिए पहले अनिवार्य लाइसेंस हासिल किया, बाद में उसने पेटेंट होल्डर कंपनी को पीछे छोड़कर स्वैच्दिक लाइसेंस पा लिया। बैरीसिटनिब, गठिया रोग की दवा है, जिसे अब कोविड-19 की दवा के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।