देश के कई राज्यों में महिलाओं के गर्भाशय निकलवाने के मामले सामने आए तो डाउन टू अर्थ ने इसकी तहकीकात की गई। पता चला कि जरूरत न होने के बावजूद डॉक्टरों ने कम उम्र की महिलाओं के भी ऑपरेशन करके गर्भाशय निकलवा लिए। पहली कड़ी में आपने इस बारे में विस्तार से पढ़ा कि डॉक्टरों ने हजारों महिलाओं को भ्रम में रखकर गर्भाशय निकालवाए । पढ़ें, दूसरी कड़ी -
देश में हिस्टरेक्टमी (सर्जरी कर गर्भाशय निकालना) सर्जरी कराने की दर आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में सबसे ज्यादा है। आंध्रप्रदेश में ये दर 8.9 प्रतिशत और तेलंगाना में 7.7 प्रतिशत है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-IV) के मुताबिक 30 साल से कम उम्र की महिलाओं में हिस्टरेक्टमी कराने की दर 1.1 प्रतिशत है। हालांकि, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में ये आंकड़े रखने का चलन हाल में शुरू हुआ है। दरअसल, साल 2012 में ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क और प्रयास के नरेंद्र गुप्ता ने एक अध्ययन में बंध्याकरण कार्यक्रम और हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन में एक हैरतंगेज गठजोड़ पाया था। इसके बाद से ही एनएफएचएस में ये आंकड़ा शामिल किया जाने लगा।
इस अध्ययन में पता चला था कि हिस्टरेक्टमी कराने वाली महिलाओं की एक बड़ी आबादी बंध्याकरण के बाद (हिस्टरेक्टमी कराने से पहले) पेट के दर्द से जूझने लगी थीं। ये महिलाएं जब निजी डॉक्टरों के पास गईं, तो उन्होंने हिस्टरेक्टमी ऑपरेशन को इसका समाधान बता दिया। इस खुलासे के बाद ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क और नरेंद्र गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट में एक अपील दायर की। इसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि एनएफएचएस-IV में इन आंकड़ों को शामिल किया जाए।
लेकिन डॉक्टर ऑपरेशन क्यों कराते हैं? जब सरकारी हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम और हिस्टरेक्टमी को एक दूसरे से जोड़कर देखें, तो एक लिंक मिला। साल 2007 में आंध्रप्रदेश (अविभाजित) में आरोग्यश्री स्कीम शुरू की गई। इस स्कीम के तहत लाभ प्राप्त करने वालों को 1.5 लाख रुपए का हेल्थकेयर कवरेज दिया जाता था। इसी तरह, केंद्र सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा बीमा योजना के साथ भी हुआ। इन बीमा योजनाओं के तहत आंध्रप्रदेश, बिहार, राजस्थान व अन्य राज्यों की हजारों महिलाओं को गैरजरूरी तौर पर हिस्टरेक्टमी सर्जरी कराने की सलाह दी जाने लगी।
रिप्रोडक्टिव हेल्थ में 2018 में छपे एक शोध पत्र बताता है कि साल 2009-2010 में आंध्रप्रदेश में हिस्टरेक्टमी कराने वाले मरीजों की संख्या 10 लाख से अधिक थी। लेकिन, जब सरकार ने हिस्टेरेकटमी सर्जरी के लिए स्वास्थ्य बीमा के दावों को लेकर निजी अस्पतालों पर रोक लगाना शुरू किया, तो इनकी संख्या में गिरावट आने लगी। साल 2010-2011 में ये सर्जरी घटकर 6189 और साल 2011-2012 में 4943 हो गई।
यहीं से परिदृश्य में निजी इंश्योरेंस कंपनियों की पैठ शुरू हुई। उदाहरण के लिए बीड जिले को ही ले लीजिए। जिला सिविल सर्जन की अध्यक्षता वाली एक कमेटी के मुताबिक, बीड में साल 2016-2017 से 2018-2019 के बीच 99 निजी अस्पतालों ने 4605 मरीजों की हिस्टरेक्टमी सर्जरी की। सरकारी स्वास्थ्य बीमा और हिस्टरेक्टमी भी एक सूत्र में बंधे हुए हैं। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से तमाम ऐसी रपटें आई हैं, जो बताती हैं कि स्वास्थ्य बीमा दावों की प्रमुख वजह हिस्टरेक्टमी सर्जरी रही है। इतना ही नहीं, जिन महिलाओं को बीमा का लाभ भी नहीं मिल रहा है, डॉक्टर उनको भी ऑपरेशन करके गर्भाशय निकालने के लिए तैयार कर लेते हैं। इसके लिए डॉक्टर ठीकठाक रकम वसूल लेते हैं।
इसी तरह इन राज्यों में सामान्य प्रसव को भी ऑपरेशन की प्रवृति भी बढ़ी है। डॉक्टर सीजेरियन डिलीवरी के लिए लोगों को लगभग मजबूर कर देते हैं।
गुप्ता कहते हैं, “सरकार की तरफ से उन इलाकों में जरूर ऑडिट कराना चाहिए जहां भारी संख्या में सर्जिकल आपरेशंस होते हैं और उचित कार्रवाई होनी चाहिए। हिस्टरेक्टमी करने की इजाजत देने को लेकर दिशानिर्देश जारी करने की जरूरत है।" पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट इन इंडिया के राष्ट्रीय को-कनवेनर अभय शुक्ला का कहना है, “क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट व स्टैंडर्ड ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल्स लागू कर निजी अस्पतालों की प्रक्रियाओं में तर्कसंगतता सुनिश्चित की जा सकती है।” वहीं, सिंह कहती हैं, “नियमों को न तो कठोरता से लागू किया जाता है और न ही दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है।”
बीड जिले के जगह प्रतिष्ठान की अध्यक्ष मनीषा टोकले कहती हैं, “अगर एक निजी अस्पताल भारी संख्या में हिस्टेरेक्टोमी करते हुए पाए जाता है, तो सरकार की तरफ से उस अस्पताल का क्लीनिकल ऑडिट किया जाना चाहिए।” सुप्रीम कोर्ट की वकील रंजना कुमारी कहती हैं कि महिला अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्थाओं को चाहिए कि वे अदालतों का इस्तेमाल करें ताकि इस तरह के स्त्री विरोधी काम बंद हों। सरकार और मेडिकल इस्टैब्लिशमेंट को भी अब इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए।