स्वास्थ्य

मुजफ्फरपुर में 1996 से पहले क्यों नहीं था चमकी बुखार?  

Vivek Mishra

बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार के कारण बच्चों के दम तोड़ने का सिलसिला 24 वर्षों से जारी है। मानसून आने से ठीक पहले ही गर्मियों में एक बेहद जटिल और लाइलाज एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) बुखार बच्चों को बेहोश और लाचार कर देता है। बच्चे इससे लड़ नहीं पाते और जान गंवा देते हैं। डॉक्टर्स सैंपल लेते हैं, जांच के लिए लंबी कवायद होती है और कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ रहा है। ज्यादातर डॉक्टर्स बच्चों में लक्षण के आधार पर इलाज करते हैं लेकिन जांच रिपोर्ट आने या फिर सही विषाणु का पता न चलने से इलाज सफल नहीं होता। पुणे के राष्ट्रीय वायरोलॉजी संस्थान से 1996 में एमडी के बाद डीएमवी (डिप्लोमा इन मेडिकल वायरोलॉजी) करने वाले और बेतिया मेडिकल कॉलेज के सहायक प्रोफेसर विजय कुमार ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में एक नए आयाम की ओर संकेत किया है।

डॉक्टर विजय कहते हैं कि वे स्वयं मुजफ्फरपुर के रहने वाले हैं और उनका बचपन भी वहीं बीता है। कहते हैं कि इस अपरिचित बुखार में गर्मी और लीची को जिम्मेवार मानकर जांच की फाइल बंद कर देना ठीक नहीं है। दो दशक से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन मुजफ्फरपुर के भूगोल, जलवायु और वहां मौजूद कीटों के साथ इस चमकी बुखार का कोई अध्ययन नहीं किया गया है। यहां से इस बीमारी का हल शायद निकल सकता है। बच्चों के अभिभावकों का चिकित्सा के नजरिए से गहन साक्षात्कार भी होना चाहिए। सिर्फ सैंपल लेने से बात नहीं बनेगी। क्योंकि इंसेफ्लाइटिस होने के सैकड़ों विषाणु कारक हो सकते हैं।  

वे कहते हैं कि 1996 से पहले भी मुजफ्फरपुर में लीची खाते थे और और गर्मी भी खूब पड़ती थी। हालांकि, यह परेशानी नहीं थी। यह एक बेहद अहम सवाल है, जिसे टाला या नजरअंदाज किया जा रहा है। यह सारी परेशानी 1996 से शुरु हुई थी। मुजफ्फरपुर से पहली बार पुणे के राष्ट्रीय वायरोलॉजी संस्थान में सैंपल भेजे गए थे। वहां के शोधार्थियों ने इसकी जांच की और उस वक्त वहां मैं मौजूद था। हम सिर्फ जापानी इंसेफ्लाइटिस के वायरस का परीक्षण कर पाए लेकिन सैकड़ों ऐसे वायरस हैं जो इस चमकी बुखार यानी इंसेफ्लाइटिस के लिए जिम्मेवार हो सकते हैं। उस वक्त पुणे संस्थान ने कहा था कि चिकित्सकीय तरीके के साथ यदि स्थानीय स्तर पर वायरस का परीक्षण किया जाए तो इस समस्या का निदान संभव है। वे बताते हैं कि उस वक्त राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थी और इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आईजीएमएस) में एक क्षेत्रीय वायरोलॉजी प्रयोगशाला स्थापित करने की कवायद हुई थी लेकिन वह कागज पर ही रह गया। हम आजतक जापानी इंसेफ्लाइटिस को ही जानते हैं, इसका पता चलने के बाद आज यूपी और बिहार में इसपर नियंत्रण पाया गया है। इस विषाणु या एजेंट की खोज के लिए स्थानिक अध्ययन बेहद जरूरी है। हो सकता है कि कोई नया एजेंट गर्मियों में सक्रिय होता हो और उसका यह दुष्परिणाम हो।

डॉक्टर विजय बताते हैं कि मुजफ्फरपुर का मामला जेई से अलग है। इसलिए इसे सिंड्रोम का नाम दिया गया है। एईएस समूह में जेई भी शामिल है।  वे बताते हैं कि हर वर्ष दो नए विषाणु जन्म लेते हैं। संभावना है कि यह किसी नए विषाणु का काम हो जो अभी तक हम  नहीं पकड़ पाए। जिस तरह मैसूर में क्यासनूर फॉरेस्ट डिजीज (केएफडी) के विषाणु का पता एक लंबी स्थानिक खोज के बाद लगाया गया था। इसी तरह मुजफ्फरपुर में भी स्थानिक खोजबीन होनी चाहिए। सिर्फ बाहर से सैंपल के लिए टीम आए और वह नमूनों की जांच कर रिएक्टिव या नॉन रियक्टिव लिखकर दे इससे बात नहीं बनेगी। राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम और वायरोलॉजी से जुड़े लोगों के साथ हुई बैठकों में अब तक इस महामारी के विषय में दो ही बातों पर जोर दिया जा रहा है। पहला कि लीची में कुछ जहरीला तत्व है और दूसरा कि हीटस्ट्रोक यानी लू के कारण बच्चे बेहोश हो जाते हैं या उनकी मृत्यु हो जाती है। यह दोनों कारण सामान्य व्यक्ति पर भी लागू होते हैं।

हीटस्ट्रोक लगने की प्रमुख वजह खाली पेट रहना भी होता है। कई बार बच्चे या तो मजबूरी में खाना नहीं पाते हैं या फिर वे समय से खाते नहीं है। ऐसी दशा में उन्हें हीटस्ट्रोक लग सकता है। लीची ज्यादा खाने से भी परेशानी हो सकती है। लेकिन बात इतनी भर नहीं है। यह नहीं जाना गया है कि बच्चा कितनी देर धूप में खेला-कूदा या फिर कितनी लीची उसने खाई थी। यह सारे विषय जांच के ट्रिगर प्वाइंट हो सकते हैं। अब पूरे वर्ष जेई की जांच होती है। जून से अगस्त तक डेंगू, चिकनगुनिया और जेई की बीमारी से ग्रसित बच्चों और लोगों की संख्या बढ़ जाती है। हालांकि, पूरे साल होने वाली जांच में अन्य महीनों में भी इक्का-दुक्का केस सामने आते रहते हैं लेकिन इसका नियंत्रण हुआ है। हमें केएफडी की तरह जांच के आयाम को बड़ा करना होगा।