पिछले कुछ दशकों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का स्तर तेजी से बढ़ रहा है। यह सही है कि एंटीबायोटिक दवाएं किसी मरीज की जान बचाने में अहम भूमिका निभाती है, पर जिस तरह से स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है उससे एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स की समस्या उत्पन्न हो गई है, जो स्वास्थ्य के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। आइए जानते हैं इससे जुड़े कुछ बुनियादी सवालों के उत्तर:
एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब उत्पन्न होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं के लगातार संपर्क में आने के कारण अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं। अपने शरीर में आए बदलावों के चलते वो धीरे-धीरे इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं उन पर असर नहीं करती। जब ऐसा होता है तो मनुष्य के शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट एक बड़ा खतरा है। अनुमान है कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2050 तक इसके कारण हर साल करीब 1 करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। यानी अगर दुनिया अब भी नहीं सीखी तो इससे हर दिन 27,400 लोगों की जान जाएगी। ये आंकड़े कोविड-19 से होने वाली मौतों से कहीं ज्यादा हैं। दवा-प्रतिरोधक बीमारियों के कारण हर वर्ष कम से कम सात लाख लोगों की मौत होती है।
जी, भारत भी इसके खतरे की जद से बाहर नहीं है। दुनिया भर में पहले से ही एंटीबायोटिक दवाओं का तेजी से दुरूपयोग हो रहा है और भारत इसमें अग्रणी है। अनुमान के मुताबिक, इससे होने वाली कुल मौतों में से 90 फीसदी एशिया और अफ्रीका में होंगी। इससे पता चलते है कि विकासशील देशों पर बहुत गहरा असर पड़ेगा, जिसमें भारत भी शामिल है।
विश्व बैंक के मुताबिक रोगाणुरोधी प्रतिरोध का इलाज कराने के लिए अस्पताल के चक्कर लगाने से 2030 तक अतिरिक्त 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गर्त में जा सकते हैं। साथ ही इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। यूएन की स्वास्थ्य एजेंसी ने एएमआर को उन 10 सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरों की सूची में शामिल किया है, जो मानवता के समक्ष चुनौती के रूप में मौजूद हैं। इससे वैश्विक स्वास्थ्य, विकास, सतत विकास लक्ष्यों और अर्थव्यवस्था पर खासा असर पड़ने की आशंका है।
अगस्त 2014 में द लांसेट इन्फेक्शस डिसीसेस में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2000 और 2010 के बीच दुनियाभर में एंटीबायोटिक के सेवन में होने वाली कुल बढ़ोतरी का 76 फीसदी सेवन ब्रिक्स देशों- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका- ने किया। इसमें से 23 फीसदी हिस्सेदारी भारत की थी। आमदनी बढ़ने से एंटीबायोटिक ज्यादा लोगों की पहुंच में आ रहे हैं और इससे जानें बच रही हैं, लेकिन इससे एंटीबायोटिक की उचित और अनुचित दोनों तरह की खपत भी बढ़ रही है।
साथ ही जिस तरह से कृषि और मवेशियों में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है वो भी इसके खतरे को और बढ़ा रहा है। जानवरों को दी जा रही एंटीबायोटिक लौटकर इंसानों के शरीर में ही पहुंच रहा है। सीएसई द्वारा जारी एक रिपोर्ट में भारत के पोल्ट्री फार्मों में बढ़ते एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर चिंता जाहिर की थी। जहां न केवल मुर्गियों को बीमारियों से बचाने बल्कि वजन बढ़ाने के लिए भी इन दवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। जिससे एंटीबायोटिक रजिस्टेंट बैक्टीरिया का उभार हो रहा है।
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